“युद्ध, दूसरे मायनों से राजनीति की निरंतरता है”
उपरोक्त उद्धरण प्रुशिया के सैन्य सिद्धांतकार– कार्ल फॉन क्लाउज़विट्स द्वारा दिया गया था जिनका उद्देश्य राष्ट्र हित को बढ़ावा देने में सशस्त्र बलों की उपयोगिता को बताना था। राष्ट्र के हित में आधुनिक सशस्त्र बलों की गतिशील प्रोफाइल के कारण, उन्हें ‘सैन्य कूटनीति’के नामकरण के तहत कूटनीति के दायरे में भी जगह मिली है।
सैन्य कूटनीति के क्षेत्र में भारत के अनुभव का इतिहास, राष्ट्र हित के उपकरण के रूप में, विश्व के अन्य हिस्सों के साथ समग्र जुड़ाव की तुलना में अपेक्षाकृत छोटा है। हालांकि, इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि भारत, वैश्विक मंच संयुक्त राष्ट्र के आरंभिक दिनों, जो कोरियाई युद्ध के दिनों से भी कुछ पहले का है, के तत्वाधान में सक्रिए रूप से और निरंतर शांति स्थापना का समर्थन करने वाले कुछ पहले देशों में से एक था। बावजूद इसके, बाहरी दुनिया के साथ भारत के सैन्य संबंध के इस पहलू को शायद ही कभी उस रूप में देखा जाता है जिसे अब आम तौर पर सैन्य कूटनीति कहा जाता है। इस आधार पर परिसीमन न केवल दिखावों में से एक है बल्कि सैद्धांतिक संज्ञान से भी ग्रस्त है क्योंकि सैन्य कूटनीति के सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य परिभाषा का अभाव है।[i]
परिभाषा के इस प्रश्न के अलावा, अधिकांश मामलों में भारत की सैन्य कूटनीतिक पहुंच को 1990 के दशक की शुरुआत में भारतीय आर्थिक नीति के पुनर्विन्यास के अनपेक्षित लाभ के रूप में देखा जाता है और इसके बाद के लहर का प्रभाव शेष विश्व के साथ नई दिल्ली के राजनीतिक संबंधों में देखा गया है। शीत युद्ध के दौरान, भारत की सैन्य भागीदारी ज्यादातर तत्काल पड़ोस में सक्रिए युद्ध अभियानों, संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों या कार्यों में मदद करने के लिए जो बहुत हद तक विदेश में बने रक्षा उपकरणों और मंचों, जो ज्यादातर तत्कालीन सोवियत संघ और पूर्वी ब्लॉक से प्राप्त किए गए थे, पर उपयोग किए जाने के लिए तक सीमित थे। भारत और उसके दक्षिणपूर्व एशियाई पड़ोसी राष्ट्रों के बीच सैन्य कूटनीति के संबंध में, तत्कालीन दो महाशक्तियों के बीच वैश्विक प्रभुत्व के लिए वैचारिक संघर्ष के युग का प्रभाव दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच संबंध की प्रकृति पर पड़ा। बंगाल की खाड़ी के पार इन दोनों क्षेत्रों के राष्ट्र रुबिकॉन की दोनों तरफ थे।
इसके अलावा, 1980 के दशक के घटनाक्रम ने भी संदेह के बीच बोने में भूमिका निभाई। उदाहरण के लिए, कुछ दक्षिण पूर्व एशियाई देशों ने श्रीलंका में आंतरिक सुरक्षा मामलों और एमराल्ड द्वीप पर शांति स्थापना मिशन के साथ– साथ मालदीव के काउंटर– कूपन ऑपरेशन कैक्टस में भारत की भूमिका को उचित नहीं माना। हालांकि, भारत की बात करें तो, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को एक प्रमुख नौसेनिक अड्डा के रूप में विकसित करने की नई दिल्ली की ‘सूचित योजना’ ने कुछ तिमाहियों में चिंता पैदा की।[ii]
वर्षों की अशांति से लेकर संपर्क बनाने तक
1990 के दशक के नए दशक ने शीत युद्ध के बाद के चरणों में बदली वैश्विक व्यवस्था के कारण राष्ट्रों के बीच संबंधों की प्रकृति में न केवल एक नए अध्याय की शुरुआत की बल्कि भारत के लिए 1993 में ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ को अपनाने भी बड़ी भूमिका निभाई। नई दिल्ली की लुक ईस्ट पॉलिसी में कुछ मामलों में दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की नीतियों की सराहना की गई है, जैसे, थाइलैंड की ‘लुक वेस्ट पॉलिसी’ और आसियान नीत मंचों के साथ नई दिल्ली के संबंधों के मामले में सिंगापुर के समर्थन ने प्रोत्साहन के रूप में काम किया जिसने भारत और दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्र के बीच संबंधों के नए रास्ते खोले। इस पर और अन्य पिछले संबंधों के आधार पर, भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के देश बहु–आयामी संबंध को बढ़ावा देने में सक्षम थे जो न केवल द्विपक्षीय संबंधों तक सीमित है बल्कि बहुपक्षीय संबंध भी है।
उदाहरण के लिए, 1993 में भारत को दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ(आसियान) के संवाद साझीदार के रूप में स्वीकार करना और आगे चल कर इन क्षेत्रीय समूहों के बड़े मंचों जैसे आसियान + मैकेनिज्म, आसियान क्षेत्रीय मंच, पूर्वी एशियाई शिखर सम्मेलन, आसियान रक्षा मंत्री मीटिंग–प्लस (ADMM+) और अन्य में नई दिल्ली को शामिल किए जाने से भारत के लिए संबंधों को प्रगाढ़ करने के नए मार्ग प्रशस्त हुए। इसके अलावा, बिम्सटेक (BIMSTEC) और मेकांग गंगा सहयोग जैसे द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय संबंधों ने इस क्षेत्र के राष्ट्रों और भारत के बीच सौहार्द को बढ़ाने में सहयोग दिया, जो वियतनाम जैसे भारत के परंपरागत साझेदारों के रूप में देखे जाने से कहीं आगे बढ़ जाना है।
अपनी आरंभिक अवस्था में सैन्य कूटनीति
हालांकि राजनयिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर संबंध प्रगाढ़ हो रहे थे, विदेश नीति के घटक के रूप में सैन्य संबंधों ने भी महत्व प्राप्त किया। लगभग न के बराबर स्थिति से, 1990 का दशक वह समय रहा जब भारतीय सेना अपने दक्षिण पूर्व एशियाई समकक्षों के साथ सक्रिए रूप से जुड़ी। इस संदर्भ में मलेशिया के पूर्व विदेश मंत्री सैयद हामिद अलबरम ने संबंधों की प्रकृति पर विचार किया और कहा “... शीत युद्ध की समाप्ति आसियान और भारत को एशिया में ऐसे रणनीतिक माहौल को बढ़ावा देने पर ध्यान देने का अवसर प्रदान करती है जो उन जटिल मुद्दों से मुक्त है जिन्होंने दोनों पक्षों के बीच संबंधों को उलझा रखा है ”। मंत्री ने दोनों पक्षों के राष्ट्रीय हितों के सम्मिलन बिन्दु के रूप में 'आपसी और समान सुरक्षा के सिद्धांत' के दायरे में ‘सहकारी सुरक्षा’ की भी बात की।[iii]
पहला महत्वपूर्ण सेना–से–सेना संबंध 1995 में बनाया गया था, जब मिलन सैन्याभ्यास, एक बहुराष्ट्रीय नौसेना अभ्यास, का आयोजन भारत के अंडमान और निकोबार त्रि सेवा कमान के तत्वाधान में किया गया। इसमें इंडोनेशिया, सिंगापुर और श्रीलंका के साथ –साथ थाइलैंड की नौसेना से हिस्सा लिया था। मिलन सैन्याभ्यास, दो वर्ष में एक बार आयोजित किया जाता है और दक्षिणपूर्व एशियाई देशों समेत इसमें कई देशों की नौसेनाएं हिस्सा लेती हैं।
मिलन सैन्याभ्यास के अलावा, संबंधों के अन्य तरीके अधिकांशतः द्विपक्षीय संबंधों के रूप में संयुक्त सैन्याभ्यास, संयुक्त गश्त और पासेक्स आदि प्रकृति के हैं। कुछ उल्लेखनीय संबंध जिन्हें संस्थागत बनाया गया है वे हैं– सिंगापुर के साथ सिमबेक्स ( SIMBEX)। वर्ष 1994 में स्थापना के बाद से सिंगापुर–भारत समुद्री द्विपक्षीय अभ्यास (SIMBEX) दोनों देशों की नौसेनाओं के वार्षिक कैलेंडर का हिस्सा रही है। इसके अलावा, दोनों देशों की वायु सेना और थल सेना का अपना संयुक्त अभ्यास और प्रशिक्षण कार्यक्रम होता है जिन्हें क्रमशः ‘सिन्डेक्स (Sindex)’ और ‘बोल्ड कुरुक्षेत्र’ नाम दिया गया है।
वर्ष 2006 में रॉयल थाई आर्मी और भारतीय सेना के बीच वार्षिक संयुक्त युद्धाभ्यास को ‘मैत्री’ नाम से जाना जाता है और सिंगापुर नौसेना के साथ, ये तीन देश त्रिपक्षीय समुद्री अभ्यास ‘सिटमेक्स (SITMEX)’ भी करते हैं। इंडोनेशिया के साथ, संयुक्त सेनाओं का युद्धाभ्यास, गुरुड़ शक्ति नाम से किया जाता है। क्षेत्र की नौसेनाओं के साथ इस प्रकार के सहयोग के अलावा, अन्य प्रकार से सहयोग भी किया जाता है जैसे समन्वित गश्ती (कॉरपैट/ CORPAT), पोर्ट कॉल्स और अन्य।
1990 के दशक के आरंभ में संबंधित सेनाओं के बीच प्रारंभिक संपर्क किया गया था। हालांकि, भारतीय थल सेना, विशेष रूप से नौसेना ने 2004 में आई सुनामी के बाद, हिन्द महासागर के बड़े हिस्से में खोज़ और बचाव (एसएआर) अभियान के संदर्भ में जो भूमिका निभाई, ने, बहुत नुकसान होने के बावजूद, भारत को हिन्द महासागर क्षेत्र में क्षेत्रीय केंद्र के रूप में प्रस्तुत किया।
सैन्य कूटनीति की बदलती परिस्थित
काई कारणों से, दुनिया भर में सैन्य कूटनीति का दायरा और क्षेत्र, सहयोग के मामले में छोटी–छोटी समस्याओं द्वारा बाधित है। बहरहाल, राष्ट्रों के बीच सैन्य संबंधों की पहचान दो तरीकों पर आधारित है। पहला है, सैन्य मंचों और उपकरणों का अधिग्रहण/ हस्तांतरण; और दूसरा है मंचों और उपकरणों का संयुक्त विकास। और यह सैन्य संबंधों का वह मार्ग है जो स्थायी संबंधों को बढ़ावा देता है एवं बदले में क्षेत्रीय एवं उप–क्षेत्रीय सुरक्षा को आकार प्रदान करता है।
भारत की सैन्य कूटनीति की प्राथमिकताएं प्रशिक्षण, संयुक्त सैन्याभ्यास, प्रतिनिधिमंडल स्तर के दौरों और पोर्ट कॉल पर आधारित एक विनम्र दृष्टिकोण रही हैं।सैन्य कूटनीति की यह प्रकृति इरादों में कमी के कारण नहीं बल्कि भारत के रक्षा औद्योगिक परिसर की क्षमता और योग्यता का प्रश्न है। हालांकि, यह स्थिति नई दिल्ली के साथ परिवर्तन के संकेत दिखा रही है जो सैन्य उपकरणों और मंचों की बिक्री एवं हस्तांतरण के क्षेत्र में प्रवेश का मार्ग प्रशस्त कर रही है।
इस संबंध में पहला उल्लेखनीय विकास, फिलीपींस को ब्रह्मोस मिसाइल सिस्टम की दो बैटरियों की बिक्री है जिनका मूल्य 375 मिलियन अमेरिकी डॉलर है। यह मिसाइल प्रणाली, जिसे भारत और रूस ने मिल कर विकसित किया है, पूर्व सोवियत संघ के पी–800 ओनिक्स पर आधारित है। इसे यखोंट मिसाइल प्रणाली के नाम से भी जाना जाता है। हालांकि, ब्रह्मोस के हस्तांतरण से पूर्व, भारत इस क्षेत्र में 1994 से ही सक्रिए है। जब मलेशिया ने रूसी मिग 29एन विमानों का स्क्वाड्रन खरीदा तो भारत को कल–पुर्जों, रख–रखाव और मरम्मत के साथ– साथ चालक दल के प्रशिक्षण की व्यवस्था करने के संबंध में कुआलालंपुर के प्रति उसकी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए मास्को की मदद हेतु सौदे में शामिल किया गया था।[iv]
हाल ही में, स्वदेशी हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) ने मलेशिया में कार्यालय बनाने के लिए समझौता किया है। इस कार्यालय का प्राथमिक उद्देश्य रॉयल मलेशियाई वायु सेना को एचएएल द्वारा निर्मित 18 तेज़स हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए) की बिक्री करना है। साथ ही एचएएल मलेशिया द्वारा की जाने वाली खरीद के आधार पर तेज़स लड़ाकू जेट विमानों की सर्विस के लिए मेंटेनेंस एंड रिपेर ऑपरेशंस (एमआरओ) बनाने का भी इरादा रखता है। इसके अलावा, दोनों पक्षों ने मलेशिया भारत रक्षा सहयोग बैठक (मिडकॉम/MIDCOM) के माध्यम से रक्षा मंत्रियों के स्तर पर अधिक–से–अधिक संलग्नता के लिए संस्थागत व्यवस्था भी की है।
मलेशिया के अलावा, हिन्द– प्रशांत क्षेत्र के अन्य देश जैसे ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, फिलीपींस और संयुक्त राज्य अमेरिका, पाइटर लेड इन ट्रेनिंग (FLIT) के रूप में अपने संबंधित वायु सेना के प्रशिक्षण स्क्वाड्रन के लिए एलसीए तेज़स की दो सीटों वाले छोटे विमान में दिलचस्पी दिखाई है।[v]
टैक्सिंग से टेकऑफ तक
भारत की मंशा से, ‘आत्मनिर्भर’ योजना के मद्देनज़र सैन्य व्यापार और आत्मनिर्भरता के विश्व में सक्रिए भूमिका निभाने के लिए, नई दिल्ली ने 2015-16 से 2021-22 के बीच अपने रक्षा और सुरक्षा व्यापार में आठ गुना वृद्धि दर्ज की है।[vi] हालांकि, भारत के ये दोनों ही इरादे अपने आरंभिक चरण में हैं, कई कारणों से, नई दिल्ली की मंशा और नीति पूर्ण रूप से स्पष्ट है। हालांकि, दक्षिणपूर्व एशिया के समग्र महत्व को भूला नहीं जा सकता क्योंकि रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017-2021 के बीच भारतीय रक्षा निर्यात का लगभग आधा हिस्सा अकेले म्यांमार का रहा है।[vii]
इसे, जब भारत के हिन्द– प्रशांत आउटरीच के लिए, आसियान की केंद्रीयता के दृष्टिकोण से देखा जाता है, तो सैन्य कूटनीति के महत्व को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। इसके दो कारण हैं। पहला कारण है– भारत का हिन्द–प्रशांत दृष्टिकोण 'नियम आधारित क्षेत्रीय व्यवस्था' के सिद्धांत द्वारा निर्देशित है। दूसरा, नई दिल्ली का हिन्द– प्रशांत व्यवस्था व्यापक क्षेत्रीय संबंधों का एक अन्य मंच है, यह नकारात्मक गठबंधन प्रणाली नहीं बल्कि एक सकारात्मक बहुराष्ट्रीय साझेदारी है।
इस संदर्भ में, पहले दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ और फिर बड़े पूर्वी एशियाई देशों के साथ भारत की सैन्य कूटनीति की प्रकृति द्विपक्षीय और बहुपक्षीय संबंधों को मजबूत करने पर आधारित है जो आपसी सम्मान और क्षमताओं की पूरकताओं पर आधारित है। इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि भारत द्वारा निर्मित सुरक्षा मंचों और उपकरणों की स्वीकृति न केवल द्विपक्षीय राजनीतिक और सामरिक संबंधों की प्रकृति का प्रतिबिंब है बल्कि भारतीय सैन्य औद्योगिक परिसर के विकास की मजबूती भी है। नई दिल्ली के सैन्य औद्योगिक परिसर (एमआईसी) की मान्यता दक्षिणपूर्वी एशियाई देशों और नई दिल्ली के बीच सहजता के स्तर का वसीयतनामा है, एक पीढ़ी पहले का संदेह अब अतीत बन चुका है।
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*डॉ. श्रीपति नारायणन, रिसर्च फेलो, इंडियन काउंसिल ऑफ़ वर्ल्ड अफ़ेयर्स, सप्रू हाउस, नई दिल्ली।
अस्वीकरण: व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं।
डिस्क्लेमर: इस अनुवादित लेख में यदि किसी प्रकार की त्रुटी पाई जाती है तो पाठक अंग्रेजी में लिखे मूल लेख को ही मान्य माने ।
अंत टिप्पण:
[i] Dhruva Jaishankar, ‘India’s Military Diplomacy’, Defence Primer: India at 75 https://www.gmfus.org/sites/default/files/Military_Layout_Final-1.20-26.pdf. (Accessed on August 24, 2022).
[ii] Pankaj Kumar Jha, “India’s Defence Diplomacy in Southeast Asia Focus”, Journal of Defence Studies, IDSA, Vol 5. No 1. January 2011, https://idsa.in/system/files/jds_5_1_pkjha.pdf, page 53. (Accessed on August 29, 2022).
[iii] Pankaj Kumar Jha, “India’s Defence Diplomacy in Southeast Asia Focus”, Journal of Defence Studies, IDSA, Vol 5. No 1. January 2011, https://idsa.in/system/files/jds_5_1_pkjha.pdf, page 52-53. (Accessed on August 29, 2022).
[iv] Pankaj Kumar Jha, “India’s Defence Diplomacy in Southeast Asia Focus”, Journal of Defence Studies, IDSA, Vol 5. No 1. January 2011, https://idsa.in/system/files/jds_5_1_pkjha.pdf, page 53. (Accessed on August 29, 2022).
[v] Tejas Fighter Aircraft, Lok Sabha, Parliament of India, August 5, 2022, https://loksabhaph.nic.in/Questions/QResult15.aspx?qref=42221&lsno=17, (Accessed on September 12, 2022).
[vi] ‘India defence exports at record ₹13,000 crore, US biggest importer’, Mint, July 9, 2022, https://www.livemint.com/news/india-defence-exports-at-record-rs-13-000-crore-us-biggest-importer-11657369829286.html, (Accessed on August 30, 2022).
[vii] Raghav Bikhchandani, ‘India 3rd largest military spender, 50% defence exports go to Myanmar, shows data from SIPRI’, The Print, 26 April, 2022, https://theprint.in/defence/india-3rd-largest-military-spender-50-defence-exports-go-to-myanmar-shows-data-from-sipri/930570/, (Accessed on August 30, 2022).