इक्कीसवीं शताब्दी में, गुरुत्वाकर्षण के आर्थिक और सामरिक केंद्र का रूपांतरण भारत-प्रशांत क्षेत्र की ओर होने के साथ ही, हिन्द और प्रशांत महासागरों के बीच तेजी से बढ़ती अंतर-संयोजनता और अंतर-निर्भरता के परिणामस्वरूप दोनों का दृष्टिकोण और भी अधिक एकीकृत हुआ है। क्षेत्रीय और वैश्विक व्याख्यानों में भारत-प्रशांत का उदय और उसका संवर्धित महत्व क्षेत्र में गहन भू-राजनीतिक मंथन से जुड़ा हुआ है। जैसे-जैसे विश्व इस क्षेत्र में बदलती भू-राजनीतिक वास्तविकताओं को अपनाने का प्रयास कर रहा है, यूरोप ने अब तक भारत-प्रशांत के संबंध में होने वाली बहसों में प्रमुखता के साथ हिस्सा नहीं लिया है। तथापि, यूरोपीय देशों, विशेष रूप से फ्रांस और जर्मनी ने धीरे-धीरे इस क्षेत्र पर ध्यान देना शुरू कर दिया है, जो हाल ही में यूरोप की सुरक्षा और समृद्धि के लिए भारत-प्रशांत के महत्व को स्वीकार करने के लिए अधिक सक्रिय रहे हैं। भारत-प्रशांत के लिए फ्रांसीसी रणनीति 2019 में बल दिया गया है कि "भारत-प्रशांत की सुरक्षा एक सामरिक चुनौती है"।1 जर्मन विदेश मंत्री हेको मास ने भारत-प्रशांत पर जर्मन सरकार के नीतिगत दिशा-निर्देशों की घोषणा करते हुए कहा कि इस क्षेत्र में "अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का आकार तय किया जाएगा"2 और यह भी कहा कि "जर्मनी एक यूरोपीय भारत-प्रशांत रणनीति के लिए यूरोपीय संघ (ईयू) के भागीदारों, विशेष रूप से फ्रांस के साथ काम कर रहा है”।3 नीदरलैंड ऐसा नवीनतम यूरोपीय देश है जिसने भारत-प्रशांत क्षेत्र के लिए एक नई रणनीति की रूपरेखा तैयार करते हुए एक नया नीतिगत दस्तावेज़ जारी किया है।4
इस पत्र का उद्देश्य भारत-प्रशांत क्षेत्र में भारत-यूरोपीय संघ के सहयोग के संभावित क्षेत्रों का पता लगाना है, क्योंकि यह क्षेत्र अब यूरोप के नीति-संबंधी आयामों में महत्व हासिल करता जा रहा है। एक घनिष्ठ ‘सामरिक साझेदार’ होने तथा एक सुरक्षित, स्थिर और समृद्ध क्षेत्र बनाए रखने में साझा हित रखने के नाते; समुद्री सुरक्षा और संरक्षा, क्षेत्रीय संयोजनता, स्थिर बहुपक्षीय व्यवस्था के लिए सहयोग कुछ ऐसे प्रमुख क्षेत्र हैं, जो इस क्षेत्र में भारत-यूरोपीय संघ के सहयोग को मजबूत करने के लिए गुंजाइश प्रदान करते हैं।
भारत और ईयू : भारत-प्रशांत मे उभरते हुए भागीदार
भारत और यूरोपीय संघ वर्ष 2004 से सामरिक साझेदार हैं, हालांकि इस रिश्ते का मुख्य ध्यान आर्थिक पहलुओं पर अधिक रहा है और सामरिक मुद्दों पर इतना अधिक नहीं है। हालांकि, जैसे-जैसे यूरोपीय संघ ने भारत-प्रशांत के सामरिक महत्व का संज्ञान लेना शुरू किया है और इस क्षेत्र में अपनी भूमिका का पुनर्मूल्यांकन किया है, भारत भविष्य में यूरोपीय संघ के लिए एक महत्वपूर्ण भागीदार होगा। यूरोपीय संघ की नई भारत रणनीति 2018 "इसके सुरक्षा हितों को आगे बढ़ाने, प्रभावी बहुपक्षवाद को प्रोत्साहित करने, एशियाई क्षेत्र में विकास और समृद्धि को बढ़ावा देने तथा वैश्विक चुनौतियों से निपटने के लिए" भारत के साथ संबंध स्थापित करने के महत्व को स्वीकार करती है।5
भारत-प्रशांत क्षेत्र अनिवार्य रूप से व्यापक सामुद्रिक भौगोलिक विशेषता रखता है, जो ‘अफ्रीका के समुद्र-तटों से लेकर अमेरिका’ तक फैला है, जिसमें अरब सागर/खाड़ी क्षेत्र, हिंद महासागर, दक्षिण चीन सागर और प्रशांत महासागर शामिल हैं। भारत हिंद महासागर के केंद्र में अपनी सामरिक अवस्थिति और अपनी 7500 किलोमीटर की अत्यंत विशाल तटरेखा, तथा इसकी निरंतर बढ़ती आर्थिक, समुद्री सैन्य क्षमताओं, व्यापक भारत-प्रशांत में इसकी सुदृढ़ सामरिक महत्वाकांक्षाओं और समूचे क्षेत्र के देशों के साथ साझेदारी को मजबूत बनाने के इसकी उत्सुकता के फलस्वरूप हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण देश है।
हालांकि यूरोप भौगोलिक रूप से भारत-प्रशांत क्षेत्र का हिस्सा नहीं है, लेकिन यूरोप-एशिया व्यापार का एक बड़ा हिस्सा भारत-प्रशांत क्षेत्र में स्थित महत्वपूर्ण स्थानों से होकर गुजरता है। महत्वपूर्ण समुद्री मार्गों के लिए किसी भी खतरे और मार्ग में विद्यमान अड़चनों, तथा क्षेत्र में मौजूद ऊर्जा और वाणिज्य के प्रवाह को चुनौती देते किसी भी विवाद का सीधा प्रभाव यूरोप की समृद्धि और सुरक्षा पर पड़ेगा।6 इन खतरों को देखते हुए, यूरोप के कई नीति निर्माताओं ने यूरोपीय संघ को भारत-प्रशांत की सुरक्षा में एक महत्वपूर्ण हितधारक के रूप में पहचानना आरंभ कर दिया है।
जैसे-जैसे भारत-प्रशांत वैश्विक ध्यानाकर्षण का केंद्र बनता जा रहा है, इस क्षेत्र के लिए कई दृष्टिकोण और रणनीतियां सामने आ रही हैं, जो भले ही एक-समान नहीं हैं, लेकिन उनमें कुछ पूरक तत्व अवश्य विद्यमान हैं। शांगरी-ला वार्ता 2018 में अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भारत के दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया था, जिसमें स्वतंत्रता और खुलेपन के साथ-साथ समावेशिता पर बल प्रदान किया गया था। जापान और अमेरिका की रणनीति एक ‘मुक्त और खुले’ भारत-प्रशांत का आह्वान कहती है। यूरोप में, उल्लेखनीय रूप से, फ्रांस ने, जो हिंद महासागर क्षेत्र का एक देश है, मेयोट और ला रियूनियन द्वीपों के अपने विदेशी भूभागों के कारण, 2019 में भारत-प्रशांत पर फ्रांसीसी रणनीति जारी की थी, जिसमें क्षेत्र में एक समावेशी, स्थिर, कानून-आधारित, बहुध्रुवीय व्यवस्था के लिए समग्र दृष्टि को प्रस्तुत किया गया था। सितंबर 2020 में, जर्मनी ने भारत-प्रशांत के लिए औपचारिक नीतिगत दिशा-निर्देशों की घोषणा की, जिसमें अन्य बातों के अलावा बहुपक्षवाद, नियम आधारित व्यवस्था, खुले बाजारों, संयोजनता, समावेशिता के मूल्यों और समूचे क्षेत्र में संबंधों में विविधता लाने की आवश्यकता को दोहराया गया था। नीदरलैंड नीतिगत दस्तावेज में "मुक्त मार्ग और समुद्री सुरक्षा की गारंटी के लिए" यूरोपीय संघ तथा क्षेत्र के देशों के बीच अधिक सहयोग की आवश्यकता पर जोर दिया गया है और यह बल भी दिया गया है कि "यूरोपीय संघ को दक्षिण चीन सागर में होने वाले घटनाक्रमों पर अधिक बार और अधिक मजबूती के साथ बोलना चाहिए" जो यूएनसीएलओएस का उल्लंघन करते हैं”।7 जैसे-जैसे ईयू अपनी स्वयं की भारत-प्रशांत रणनीति पर काम कर रहा है, इसमें उन्हीं समान अवयवों और मूल्यों के होने की संभावना हो रही है जो क्षेत्र में भारत और यूरोपीय संघ के बीच गहन सहयोग के अवसर खोल सकते हैं।
सहयोग के बल प्रदान किए जाने वाले संभावित क्षेत्र
क्षेत्रीय भू-राजनीतिक बाध्यताएं निश्चित रूप से भारत-यूरोपीय संघ संबंधों के भावी मार्ग को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी। क्षेत्रीय और वैश्विक शक्तियों के बीच जटिल अंतरविरोधों को ध्यान में रखते हुए, भारत-प्रशांत क्षेत्र की भू-राजनीति अभूतपूर्व परिवर्तन के दौर से गुजर रही है तथा कोविड-19 महामारी ने उस परिवर्तन को और भी तेज कर दिया है। हाल के वर्षों में इस क्षेत्र में भू-राजनीतिक मंथन को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों में से एक चीन की शक्ति में वृद्धि और उसकी बढ़ती मुखरता शामिल है, जिसके बारे में भारत और यूरोप में कुछ हद तक चिंता व्याप्त है। बेल्ट रोड पहल (बीआरआई) के तहत बीजिंग की व्यापक परियोजनाओं की व्यापक, गैर-पारदर्शी और गैर-संधारणीय प्रकृति ने तथा विशेष रूप से हिंद महासागर में इसके बढ़ते कदमों ने क्षेत्रीय देशों के मध्य आशंकाएं उत्पन्न की हैं। इसके अलावा, अमेरिका (संयुक्त राज्य अमेरिका) और चीन के बीच बढ़ते हुए टकराव, यूरेशिया और दक्षिण चीन सागर में अमेरिका की प्रतिबद्धता के बारे में अनिश्चितता के परिणामस्वरूप एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जहां इस क्षेत्र में सुरक्षा संतुलन अनिश्चित दिखाई पड़ता है। यूरोपीय संघ के लिए एक बड़ी चुनौती चीन और अमेरिका के साथ अपने संबंधों को संतुलित करना रही है, ताकि परिणामहीन स्थिति में फंसने से बचा जा सके। यद्यपि यूरोपीय संघ के लिए चीन के संबंध में एक व्यापक दृष्टिकोण रखना मुश्किल है क्योंकि यूरोपीय संघ के भीतर इस बारे में एक-समान राय नहीं हैं लेकिन यूरोपीय संघ के 2018 चीन सामरिक दृष्टिकोण में यह उल्लेख किया गया है कि चीन एक "प्रणालीगत प्रतिद्वंद्वी और आर्थिक प्रतिस्पर्धी" है।8
बढ़ती प्रतिस्पर्धा, शक्ति-संबंधी प्रतिद्वंद्विता, बहुपक्षीय व्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय कानूनों को चुनौती देने वाली एकतरफा कार्रवाइयां भारत और यूरोप द्वारा सामना की जाने वाली कुछ साझी चिंताएं हैं। क्षेत्र के अन्य समान विचारधारा वाले देशों के साथ उनके सामरिक संबंधों और जुड़ाव पर ध्यान केंद्रित करने के माध्यम से भारत और यूरोपीय संघ एक खुले, मुक्त, समावेशी और नियमों पर आधारित व्यवस्था का संरक्षण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
बल प्रदान किया जाने वाला क्षेत्र, जहां भारत और यूरोपीय संघ को एक साथ काम करने की आवश्यकता है, समुद्री सहयोग से संबंधित है। भारत के लिए, देश की भौगोलिक स्थिति इसे आंतरिक रूप से इसकी सुरक्षा, वाणिज्य और व्यापार को समुद्री क्षेत्र के साथ जोड़ती है। यूरोपीय संघ के बाहरी व्यापार के 90% और इसके आंतरिक व्यापार के 40% की ढुलाई समुद्री मार्गों से की जाती है।9 भारत-प्रशांत क्षेत्र में लगभग दो-तिहाई अंतर्राष्ट्रीय समुद्री व्यापार समुद्री मार्गों के माध्यम से होकर गुजरता है।10 विशेष रूप से हिंद महासागर एक महत्वपूर्ण सामरिक क्षेत्र बन गया है तथा इसने अटलांटिक और प्रशांत महासागरों को पीछे छोड़ते हुए दुनिया के सबसे व्यस्त व्यापार गलियारे के रूप में पहचान बना ली है। भौगोलिक दूरी के बावजूद, हिंद महासागर का यूरोप के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण आर्थिक और सामरिक महत्व है क्योंकि यह स्वेज नहर के माध्यम से यूरोप के लिए एशिया-प्रशांत बाजार के लिए प्राथमिक प्रवेश द्वार के रूप में कार्य करता है। इसलिए, इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण समुद्री मार्गों की सुरक्षा और संरक्षा तथा समुद्र में सुशासन, जिन्हें पारंपरिक और गैर-पारंपरिक, दोनों ही प्रकार के खतरों द्वारा चुनौती दी गई है, न केवल क्षेत्रीय देशों के लिए बल्कि यूरोपीय आर्थिक स्थिरता के लिए भी महत्वपूर्ण है।
यूरोपीय संघ एडन की खाड़ी में 2008 में ईयूएनएवीएफओआर के माध्यम से शुरू किए गए ‘ऑपरेशन अटलांटा’ द्वारा समुद्री डकैती-रोधी अभियानों में सक्रिय रहा है; इस तरह की और पहलें संचालित किए जाने की जरूरत है। 2018 की ईयू सामुद्रिक सुरक्षा रणनीति (ईयूएमएसएस) वैश्विक समुद्री जोखिमों का निवारण करने के प्रयोजनार्थ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए यूरोपीय संघ की प्रतिबद्धता को दोहराती है।11 जबकि यूरोप ने अपने देश से दूर संबंधों को सुदृढ़ करना प्रारंभ कर दिया है, अपनी सामरिक अवस्थिति, विशाल नौसेना और हिंद महासागर में तटरक्षकों की उपस्थिति तथा साथ ही पूरे क्षेत्र में एक मुक्त, खुले और सुरक्षित समुद्री स्थान के लिए साझेदारी बनाने की इच्छा के साथ भारत यूरोपीय संघ के लिए एक महत्वपूर्ण भागीदार साबित होगा।
भारत और यूरोपीय संघ जिन कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में मिलकर काम कर सकते हैं, उनमें विभिन्न चुनौतियों के खिलाफ क्षमता के निर्माण में संयुक्त प्रयास किए जाने शामिल हैं जैसे, समुद्री डकैती, आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष, अवैध रूप से मछली पकड़ना और इस क्षेत्र में अन्य समुद्री अपराध। भविष्य में सहयोग के लिए एचएडीआर में सहयोग, अंतरप्रचालनात्मकता और विषय-संबंधी जागरूकता में वृद्धि, सामुद्रिक प्रौद्योगिक, पत्तन विकास, संयोजनता अवसंरचना, सामुद्रिक अर्थव्यवस्था, सामुद्रिक पारिस्थिकी, समुद्री कचरे का प्रबंधन आदि महत्वपूर्ण क्षेत्र हो सकते हैं।
यूरोपीय संघ-भारत के सहयोग में अवसंरचना और संयोजनता ध्यान दिए जाने वाला एक अन्य क्षेत्र होना चाहिए। जैसे-जैसे यूरोप चीन के बीआरआई के व्यापक आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा निहितार्थों को महसूस करना प्रारंभ कर रहा है, उसका प्रारंभिक उत्साह यूरोप में चीनी परियोजनाओं की व्यवहार्यता और पारदर्शिता के बारे में एक चिंता में बदल रहा है। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन ने 2019 में ब्रसेल्स में यूरोपीय संघ के शिखर-सम्मेलन में बोलते हुए कहा कि चीनी कंपनियों को यूरोपीय संघ की अवसंरचना जैसे सामरिक बंदरगाहों तक पहुंचने की अनुमति देना एक "सामरिक त्रुटि" थी।12 अत: यूरोपीय संघ अवसंरचना के अंतर को कम करने और बीआरआई के लिए एक संधारणीय विकल्प प्रदान करने के प्रयास में क्षेत्र में समान विचारधारा वाले भागीदारों के साथ सहयोग करने का इच्छुक है।13 यूरोपीय संघ ने 2018 में कनेक्टिंग यूरोप एंड एशिया: बिल्डिंग ब्लॉक्स फॉर एन ईयू स्ट्राटेजी नामक दस्तावेज जारी किया जिसमें एक व्यापक, टिकाऊ और नियमों पर आधारित संयोजनता को बढ़ावा देने के लिए यूरोपीय संघ-एशिया सहयोग की आवश्यकता पर जोर दिया गया था।14 इसके तहत, यूरोपीय संघ और जापान ने 2019 में समान प्रतिस्पर्धी अवसरों के आधार पर कार्रवाइयों का समन्वय करने के लिए सतत संयोजनता और गुणवत्ता अवसंरचना पर साझेदारी पर सहमति व्यक्त की। भारत भी एशिया अफ्रीका विकास गलियारे' (एएजीसी) के माध्यम से एशिया और अफ्रीका के उप-क्षेत्रों के बीच संपर्क को बढ़ावा देने के लिए जापान के साथ जुड़ा हुआ है, जिसमें संबंधित देशों की "विकास संबंधी जरूरतों और प्राथमिकताओं के साथ पर्याप्त समन्वय विद्यमान है"।15
’ईयू-इंडिया रोडमैप टू 2025' इस बात पर जोर देता है कि राजवित्तीय और पर्यावरणीय, पारदर्शिता और समावेशिता, दोनों ही के स्थायित्व संबंधी अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों, सिद्धांतों के अनुरूप संयोजनता को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त प्रयास किए जाने चाहिए।16 इसलिए, बीच भारत और यूरोपीय संघ में भारत और यूरोपीय संघ के बीच और साथ ही व्यापक भारत-प्रशांत क्षेत्र में तीसरे देशों में संयोजनता में वृद्धि करने के लिए इस तरह के सहयोग की संभावना तलाशने की गुंजाइश है।
चूंकि भारत और यूरोपीय संघ, दोनों ही प्रभावी बहुपक्षवाद में समान रूप से विश्वास रखते हैं, सहयोग का एक और संभावित क्षेत्र क्षेत्रीय बहुपक्षीय संस्थानों में विद्यमान है। भारत अनेक क्षेत्रीय बहुपक्षीय मंचों में सक्रिय रूप से भाग लेता है जिनमें आसियान, पूर्वी एशिया शिखर-सम्मेलन (ईएएस), हिंद महासागर रिम एसोसिएशन (आईओआरए), हिंद महासागर नौसेना संगोष्ठी (आईओएनएस) शामिल हैं, जो क्षेत्रीय और वैश्विक मुद्दों पर प्रमुख क्षेत्रीय सहयोगियों के साथ सहयोग का अवसर प्रदान करते हैं। आसियान के सामरिक साझेदार के रूप में, यूरोपीय संघ को हित के साझे क्षेत्रों में अधिक सक्रिय सहयोग की संभावना तलाशनी चाहिए। यूरोपीय संघ और भारत, दोनों ही आसियान क्षेत्रीय मंच के संवाद भागीदार हैं और यूरोपीय संघ ने भी पर्यवेक्षक के रूप में ईएएस में शामिल होने के लिए रुचि व्यक्त की है। ये यूरोपीय संघ को भारत और अन्य क्षेत्रीय देशों के साथ हितों और चिंताओं के सामान्य क्षेत्रों में शामिल करने में सक्षम बनाएंगे। यूरोपीय संघ भी क्वाड के साथ कार्रवाइयों का समन्वय करने के लिए प्रयास कर सकता है, जो धीरे-धीरे गति हासिल कर रहा है।
भावी मार्ग
इस क्षेत्र में एक व्यापक यूरोपीय भूमिका की आवश्यकता के बारे में निरंतर परिकल्पना की जा रही है, क्योंकि यूरोपीय सामरिक समुदाय ने यह स्वीकार करना शुरू कर दिया है कि यूरोप के सामरिक और आर्थिक हित भारत-प्रशांत क्षेत्र के साथ घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं। भारत-प्रशांत क्षेत्र में भू-राजनीतिक परिवर्तनों का यूरोप के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ेगा, चाहे वह इसे चुने या नहीं। इसलिए, यह उचित समय है कि यूरोपीय संघ के लिए इस क्षेत्र के लिए एक सुसंगत रणनीति तैयार करे। हितों और साझे मूल्यों का बढ़ता अभिसरण वैश्विक साझे हितों को सुरक्षित करने, स्थिरता बनाए रखने और एक सहकारी तरीके से आर्थिक समृद्धि का समर्थन करने तथा एक स्थिर बहुध्रुवीय व्यवस्था को आकार देने के लिए क्षेत्र में भारत-यूरोपीय संघ के सहयोग को गहन बनाने के लिए गुंजाइश प्रदान करते हैं।
जबकि भारत और यूरोपीय संघ भारत-प्रशांत के संदर्भ में सहयोग को गहन बनाने के लिए तत्पर हैं, दोनों पक्षों द्वारा निम्नलिखित तथ्यों पर विचार किया जाना चाहिए:
भारत-यूरोपीय संघ के सामरिक सहयोग के ध्यान दिए जाने वाले प्रमुख क्षेत्रों पर चर्चा की जानी चाहिए और यूरोपीय संघ-भारत शिखर-सम्मेलनों सहित उच्च स्तर की वार्ता के दौरान बु पर स्पष्ट रूप से प्रकाश डाला जाना चाहिए।
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*डॉ. प्रज्ञा पाण्डेय, विश्व मामलों की भारतीय परिषद में शोधकर्ता हैं ।
व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं।
डिस्क्लेमर: इस अनुवादित लेख में यदि किसी प्रकार की त्रुटी पाई जाती है तो पाठक अंग्रेजी में लिखे मूल लेख को ही मान्य माने ।
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