अफगानिस्तान के इस्लामिक गणराज्य और तालिबान का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधिमंडल के बीच बहुप्रतीक्षित अंतर-अफगान शांति वार्ता 12 सितंबर 2020 को दोहा की राजधानी कतरी में शुरू हुई। यकीनन यह अफगान शांति प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण चरण है क्योंकि इसने पहली बार शांति के लिए बातचीत करने के लिए दो युद्धरत पक्षों को आमने-सामने ला दिया था। इन वार्ताओं के कुछ प्रमुख लक्ष्य स्थायी संघर्ष विराम को प्राप्त करना तथा दशकों से चले आ रहे संघर्ष के लिए एक राजनीतिक समझौता करना है, जिसने हजारों लोगों की जान ले ली और अफगानिस्तान को अस्थिर कर दिया। यह इश्यू ब्रीफ वार्ता के लिए अब तक के घटनाक्रमों को संक्षिप्त रूप से देखते हुए, दोहा में वार्ता की शुरुआत, मुख्य चुनौतियों सहित शांति वार्ता की रूप-रेखा और आगे के रास्ते के लिए शांति प्रक्रिया का अवलोकन प्रदान करने का प्रयास करता है।
वार्ता का मार्ग
युद्धरत पक्षों के बीच बातचीत 10 मार्च को शुरू होने वाली थी, लेकिन कैदियों की अदला-बदली को लेकर असहमति के कारण बार-बार इसमें देरी होती गई। यह वार्ता 29 फरवरी 2020 को तालिबान और संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) द्वारा हस्ताक्षरित एक ऐतिहासिक सौदे[i] का नतीजा थी। इसने रेखांकित किया कि कैसे अफगान सरकार, जो कि समझौते में शामिल नहीं थी, 1000 सरकारी कैदियों के बदले में 5000 तालिबानी कैदियों को रिहा करेगी। बाधाओं के बावजूद, इन शर्तों को पूरा करने के लिए पिछले कुछ महीनों में कैदियों की अदला-बदली की गई थी। लेकिन अंतिम बाधा उन 400 उच्च जोखिम वाले बंदियों की रिहाई के संबंध में दिखाई दी, जिसमें छह ऐसे अफगानी तालिबानी कैदी शामिल थे, जिनकी रिहाई का विदेशी सहयोगियों ने विरोध किया था। राष्ट्रपति गनी ने लोया जिरगा (आदिवासी बुजुर्गों की भव्य सभा) की मंजूरी मांगी और दोहा में अंतर-अफगान वार्ता की अंतिम बाधा को दूर करने के लिए, अपनी सुरक्षा से समझौता करते हुए तालिबानी कैदियों को रिहा कर दिया।
रिपोर्टों के अनुसार2, छह "कट्टर" कैदी, जिनकी रिहाई का फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया ने विरोध किया था, उन्हें वार्ता के दौरान “सीधी निगरानी” के लिए दोहा स्थानांतरित कर दिया गया था; उम्मीद की जा रही है कि जब तक बातचीत होगी, वे कतर में रहेंगे और उसके बाद उन्हें काबुल वापस लाया जा सकता है। सभी छह कैदियों की रिहाई पर अंतिम बाधा का समाधान हो जाने पर, कतर के विदेश मंत्रालय ने संकेत दिया कि अंतर-अफगान वार्ता, जो "अफगानिस्तान में स्थायी शांति लाने में एक कदम आगे बढ़ने" का प्रतिनिधित्व करती है; 12 सितंबर से शुरू हो जाएगी।
वार्ता की शुरुआत
वार्ता के उद्घाटन समारोह में अमेरिका, पाकिस्तान, भारत, तुर्की, जापान, जर्मनी, स्पेन, कतर सहित महत्वपूर्ण क्षेत्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय हितधारकों की भागीदारी देखी गई जिसमें अन्य लोगों के साथ संयुक्त राष्ट्र (यूएन), नाटो, यूरोपीय संघ (ईयू) जैसे वैश्विक निकायों के प्रतिनिधि भी शामिल हुए, जिन्होंने अपनी प्रारंभिक टिप्पणी की। इनमें से कई कोरोनोवायरस प्रतिबंधों के कारण आभासी रूप से शामिल हुए। अपने भाषण के दौरान प्रत्येक भागीदार ने वार्ता से अपनी अपेक्षाओं को साझा किया और एक शांतिपूर्ण अफगानिस्तान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और समर्थन का आश्वासन दिया। उद्घाटन समारोह के मुख्य वक्ताओं में अफगानिस्तान के राष्ट्रीय सुलह उच्च परिषद के अध्यक्ष अब्दुल्ला अब्दुल्ला, तालिबान के उप नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर और अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ3 शामिल थे। अपनी टिप्पणी में, अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने तालिबान को "बातचीत करने की इच्छा" दिखाने के लिए धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा, "मेरा मानना है कि अगर हम एक-दूसरे का साथ देंगे और ईमानदारी से शांति के लिए काम करेंगे, तो देश में चल रहे दुख खत्म हो जाएंगे।"4 मुल्ला बरादर ने कहा कि तालिबान ने पिछले समझौते में उल्लिखित बिंदुओं के अनुसार काम किया है और दूसरे पक्ष से उन बिंदुओं पर कार्रवाई करने का अनुरोध किया है जिन पर सहमति है।
उद्घाटन समारोह में वक्ताओं ने अफगान सरकार और तालिबान के बीच शांति वार्ता की शुरुआत को एक ‘ऐतिहासिक अवसर’ करार दिया और अफगानी दलों को वार्ता के दौरान खुला दिमाग रखने के लिए कहा। सभा को संबोधित करते हुए माइक पोम्पिओ ने बड़ी कुशलता से कहा कि यह अब एक बिल्कुल अलग अफगानी हितधारकों पर है कि वे अपने मतभेदों को दूर करें और बात को आगे ले जाएं। उन्होंने कहा "हम आपकी बातचीत का समर्थन करने के लिए तैयार हैं। लेकिन समय आपका है।" उन्होंने आगे कहा कि "आपका चुनाव और आचरण भविष्य में अमेरिकी सहायता के आकार और दायरे दोनों को प्रभावित करेंगे"5, इसने स्पष्ट रूप से यह दर्शा दिया है कि अफगानिस्तान को अमेरिकी सहायता अब "खाली चेक" नहीं है। सभा को आभासी तरीके से संबोधित करते हुए, भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अफगानी नेतृत्व, अफगानी स्वामित्व और अफगान-नियंत्रित प्रक्रिया के लिए भारत के समर्थन को दोहराया और कहा कि शांति प्रक्रिया को "अफगानिस्तान की राष्ट्रीय संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना चाहिए" और "मानव अधिकार तथा लोकतंत्र को बढ़ावा देना चाहिए।"6 वक्ताओं द्वारा तत्काल, व्यापक और बिना शर्त संघर्ष विराम के लिए सर्वसम्मति से मांग की गई।
'शांति' वार्ता की रूप-रेखा
उद्घाटन समारोह के बाद दोनों पक्ष कुछेक बार मिले, जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक पक्ष के दो सदस्यों के साथ संपर्क समूहों का निर्माण हुआ।7 प्रारंभिक बैठकों का उद्देश्य अंतिम वार्ताओं के एजेंडे पर निर्णय लेना था और उन नियमों और शर्तों पर भी काम करना था, जिनका बातचीत में पालन करना होगा। निस्संदेह, शांति वार्ता के लिए दो युद्धरत पक्षों का एक साथ आना एक महत्वपूर्ण कदम है, फिर भी विवाद निपटान के साधनों पर अलग-अलग विचारों के कारण वास्तविक वार्ता अब तक नहीं हो सकी है। प्रक्रियात्मक नियमों के लिए 20 में से 18 अनुच्छेदों पर दोनों पक्षों ने सहमति दे दी है, लेकिन यूएस-तालिबान सौदे और न्यायशास्त्र के स्कूल की वैधता से जुड़े दो मुख्य अनुच्छेद अब तक अनसुलझे हैं।
तालिबान के मुताबिक, 29 फरवरी 2020 को हस्ताक्षरित यूएस-तालिबान शांति समझौते को स्वीकार करने के लिए अफगान सरकार इच्छुक नहीं है।8 इस मामले पर काबुल की स्थिति को इस तथ्य के मद्देनज़र समझा जा सकता है कि वह उक्त समझौते का पक्ष नहीं था। शांति प्रक्रिया की धीमी रफ़्तार का एक अन्य कारण तालिबान की वह मांग है जिसके तहत वह अफगानिस्तान में कानून बनाने के लिए ‘हनाफ़ी’ इस्लामिक न्यायशास्त्र स्कूल (अफगानिस्तान के सुन्नी मुसलमानों के बहुमत द्वारा मान्य) के निर्माण की बात कर रहा है, और जिसका अफगानिस्तान सरकार विरोध करती है। अफगानिस्तान की पर्याप्त शिया आबादी को देखते हुए, जो कि कुल आबादी का लगभग 10 से 15 प्रतिशत9 है, अफगान सरकार को इस बात की चिंता है कि इस्लामिक कानून की शरिया की केवल सुन्नी व्याख्या को शिया हजारा समुदाय और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों द्वारा भेदभावपूर्ण माना जा सकता है। हालाँकि, डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला के हवाले से आई रिपोर्टों के अनुसार, दोनों पक्षों द्वारा "शिया समुदायों या अल्पसंख्यकों के साथ किसी भी भेदभाव के बिना हनाफी की भूमिका के मुख्य सिद्धांत को मान्यता देने पर”10 अनंतिम रूप से सहमति जताए जाने के बाद, गतिरोध अब समाप्ति की ओर है। जाहिर है, वार्ता को पटरी पर लाने के लिए यह अफगान वार्ताकारों द्वारा किए गए एक समझौते का संकेत है, लेकिन अल्पसंख्यकों के बारे में चिंता अब भी बड़ी है।
वर्तमान अफगान सरकार और तालिबान के बीच बातचीत में महिलाओं के अधिकारों का मुद्दा एक महत्वपूर्ण पहलू होगा। अमेरिका ने एक बार अफगानी महिलाओं को तालिबान के कठोर दमन से मुक्त करने की कसम खाई थी, लेकिन हस्ताक्षरित समझौते ने देश के संविधान में महिलाओं के अधिकारों या नागरिक स्वतंत्रता को बनाए रखने की कोई गारंटी नहीं दी। पिछले कुछ वर्षों में कई पर्यवेक्षकों ने उन जोखिमों के बारे में गंभीर चिंताएं उठाई हैं जो तालिबान को वैध बनाने और अफगानिस्तान में कुछ हद तक राजनीतिक सत्ता में वापसी से अफगान महिलाओं की भविष्य की स्थिति के लिए पैदा होंगे। लेकिन तालिबान को मेज पर लाने के लिए ऐसे किसी भी संदेह को जान-बूझकर एक तरफ धकेल दिया गया जो शांति प्रक्रिया को पटरी से उतार सकते थे। हालाँकि, तालिबान ने इस्लाम के तहत महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करने का वादा किया है, लेकिन यह कैसे होगा, इसके बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ भी कहने से परहेज किया है। ऐसे समय में जब यहाँ कि महिलाओं को वार्ता के दौरान अपने अधिकारों से छेड़छाड़ किए जाने के वाजिब डर का सामना करना पड़ रहा है, अफगानिस्तान इतिहास में पहली बार महिलाओं की स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र आयोग में एक सीट हासिल कर रहा है, और इसे उनके लिए एक ऐतिहासिक उपलब्धि के रूप में देखा जा रहा है।
अफगानिस्तान में भविष्य के राजनीतिक क्रम की प्रकृति भी चर्चा के सबसे महत्वपूर्ण बिंदुओं में से एक है। अब तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि तालिबान लोकतांत्रिक राजनीतिक और संवैधानिक व्यवस्था के भीतर काम करने के लिए तैयार होगा या नहीं। उनके राजनीतिक एजेंडे में जान-बूझकर डाली गई यह अस्पष्टता भ्रम पैदा करती है। अफगानी राज्य की पूरी तरह से असमान और प्रतिस्पर्धी दृष्टि वार्ता के बिगड़ने का बड़ा कारण बन सकती है। जहां तक काबुल का संबंध है, वे पिछले दो दशकों में हासिल किए गए लाभ को संरक्षित करना चाहेंगे, वे ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान’ के संविधान के आवश्यक तत्वों का संरक्षण भी करना चाहेंगे। दूसरी ओर, तालिबान ‘इस्लामिक अमीरात ऑफ़ अफगानिस्तान’ ¼1990 के दशक में अफगानिस्तान के अधिकाँश क्षेत्रों को नियंत्रण में लेने के दौरान वे खुद को कहा करते थे½ के अधिकांश तत्वों को बनाए रखने के लिए कड़ी लड़ाई लड़ेगा। अफगानिस्तान में पूर्व भारतीय राजदूत, विवेक काटजू के अनुसार, "अफगानिस्तान के संवैधानिक भविष्य के इन बेहद अलग विचारों के सामंजस्य की प्रक्रिया एक बड़ी बाधा होगी"11 और इसलिए, वे सुलह के मार्ग में भारी कठिनाइयों को देख रहे हैं।
अमेरिकी-तालिबान समझौते ने संकेत दिया है कि तालिबान द्वारा सुरक्षा गारंटी के बदले में मई 2021 तक विदेशी बल अफगानिस्तान छोड़ देंगे। राष्ट्रपति ट्रम्प, जो अगले महीने फिर से चुने जाने की उम्मीद में हैं, ने हाल ही में घोषणा की है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिक "क्रिसमस तक अपने घर"12 में होंगे। इस तथ्य के बाद कि तालिबानी विद्रोह और हिंसा बेरोकटोक जारी है, वो भी तब जबकि दोनों पक्षों को शामिल करते हुए शांति वार्ता हो रही है, ऐसा कोई कारण नहीं है जिससे यह उम्मीद की जा सके कि अमेरिकी सैनिकों की अनुपस्थिति में, वे अपने तरीके में सुधार कर लेंगे। इसके विपरीत, इससे तालिबान की स्थिति युद्ध के मैदान के साथ-साथ बातचीत की मेज पर भी मजबूत हो जाएगी। अफगानिस्तान में विदेशी सैनिकों की मौजूदगी कम होने से प्रोत्साहित तालिबान, सरकार से देश के राजनीतिक नियंत्रण को छीनने के लिए हिंसा को और तेज़ करने के लिए आज़ाद हो जाएगा।
शांति की लंबी राह
चार दशकों से चली आ रही युद्धों की श्रृंखला के बीच ‘शांति’ की खोज दोनों पक्षों के लिए कभी आसान नहीं थी। वार्ता की आधिकारिक शुरुआत के बाद की अवधि ने भी इसे ही रेखांकित किया है। इस बीच, दोनों पक्ष सक्रिय रूप से अपने लिए एक मजबूत आधार बनाने की कोशिश कर रहे हैं। वार्ता की शुरुआत से ठीक पहले एक उच्चस्तरीय तालिबान प्रतिनिधिमंडल अफगान शांति प्रक्रिया में आगे बढ़ने के तरीकों पर चर्चा करने के लिए पाकिस्तान गया; तालिबान पक्ष ने वार्ता की पूर्व संध्या पर अपनी वार्ता टीम के संयोजन को भी बदल दिया। सरकार के पक्ष में क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समर्थन जुटाने के लिए अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने भी हाल ही में पाकिस्तान और भारत की यात्रा की। इससे पहले, अफगानिस्तान सुलह वार्ता के लिए अमेरिकी विशेष प्रतिनिधि राजदूत ज़ाल्मे ख़लीलज़ाद अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया के लिए समर्थन हासिल करने के लिए क्षेत्रीय देशों के पास भी पहुँचे।
इस बीच, अमेरिका और शांति प्रक्रिया में शामिल देशों के राजनयिक दबाव के बाद, विवादित मुद्दों पर मतभेदों को निपटाने और दोहा में वार्ता में तेजी लाने के प्रयास किए जा रहे हैं। कथित तौर पर, विवादित मुद्दों को निपटाने में मदद के लिए एक सूत्रधार की उपस्थिति पर भी चर्चा हुई है।13 एक ऐसे देश के लिए जो 1970 के दशक से उथल-पुथल में रहा है, और जिसने कम्युनिस्ट शासन, मुजाहिदीद शासन, तालिबान शासन और पश्चिम समर्थित इस्लामिक रिपब्लिक का सामना किया है- के लिए पिछले दशकों के अंतर्विरोधों को स्वीकार करना एक बड़ा कार्य होगा। निर्विवाद रूप से, अफगान शांति प्रक्रिया अफगानिस्तान के लिए वर्षों के संघर्ष को समाप्त करने और शांति स्थापित करने का एक अवसर है, लेकिन उस छोर तक पहुँचने के लिए दोनों पक्षों को कई तरह का समझौता करने की जरूरत होगी।
निष्कर्ष
हाल ही में एक साक्षात्कार14 में अफगानिस्तान के प्रथम उपराष्ट्रपति अमरूल्लाह सालेह ने तालिबान के साथ वार्ता को "इतिहास की सबसे कठिन शांति वार्ताओं में से एक" बताया और कहा कि "प्रतीकवाद और मूल्यों" पर चर्चा वार्ता का सबसे चुनौतीपूर्ण हिस्सा होगी। सालेह ने जोर देकर कहा कि अंतिम समाधान में हर किसी की सुरक्षा और सम्मान तथा सहिष्णुता की विविधता को सुनिश्चित करना होगा- "अगर मैं तालिबान की गर्दन पर टाई लगाने की कोशिश करता हूं तो शांति प्रक्रिया विफल हो जाएगी, लेकिन अगर वे मेरे सिर पर पगड़ी लगाने की कोशिश करेंगे तो भी वार्ता असफल हो जाएगी। समाधान के लिए एक ही छत के नीचे सूट और पगड़ी दोनों को लाना होगा... किसी भी पक्ष द्वारा दूसरे पर हावी होने की कोशिश इसे ¼शांति वार्ता½ विफल कर देगा।"15 यह तथ्य कि, विभिन्न स्थानों में कई चर्चाओं के दौरान, तालिबानी प्रतिनिधियों ने महत्व के मुद्दों पर अधिक लचीलापन नहीं दिखाया है, वार्ता के परिणाम के बारे में उन्हें रुखा बनाता है। हालांकि, यह कहना उचित है कि वार्ता एक लंबी और जटिल प्रक्रिया का केवल प्रारंभिक कदम है, और अफगानिस्तान में ‘शांति’ का मौका देने के लिए लगातार अंतरराष्ट्रीय समर्थन जारी रहना अति आवश्यक है।
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*डॉ. अन्वेषा घोष विश्व मामलों की भारतीय परिषद में शोधकर्ता हैं ।
व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं।
डिस्क्लेमर: इस अनुवादित लेख में यदि किसी प्रकार की त्रुटी पाई जाती है तो पाठक अंग्रेजी में लिखे मूल लेख को ही मान्य माने ।
अंत टिप्पण
[1] “Agreement for Bringing Peace to Afghanistan”. US Department of State, February 29,2020. Available at:https://www.state.gov/agreement-for-bringing-peace-to-afghanistan/?fbclid=IwAR07KIQXZ_-hL_34ppgpUGHIOyLgqithW7HXpXvq3DV0gDHZBia7grnB7vk (Accessed on 2.3.2020)
9 2019 Report on International Religious Freedom: Afghanistan. US Department of State, 2019. Available at: https://www.state.gov/reports/2019-report-on-international-religious-freedom/afghanistan/ (Accessed on 17.10.2020)
10 “Negotiators “near compromise” in stalled Afghan Peace Talks”. Gandhara. October 1, 2020. Available at: https://gandhara.rferl.org/a/negotiators-near-compromise-in-stalled-afghan-peace-talks/30867758.html (Accessed on 17.10.2020)
11 India’s EAM Jaishankar joins intra-Afghan ceremony in Doha virtually- Afghan Taliban Peace Talk. WION News, September 2020. Available at: https://www.youtube.com/watch?v=BF0tjMxcvFY&t=889s (Accessed on 17.10.2020)
12 “Trump says US Troops in Afghanistan should be home by Christmas”.AL Jazeera, Oct 8, 2020. Available at: https://www.aljazeera.com/news/2020/10/8/trump-wants-us-troops-out-of-afghanistan-by-christmas (Accessed on 17.10.2020)