पाकिस्तानी झंडा दो रंगों से बना है-हरा और सफेद। हरा रंग मुस्लिम बहुसंख्यक का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि सफेद पट्टी धार्मिक अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करती है। झंडे पर अर्धचंद्र प्रगति को दर्शाता है और पांच-नोक वाले सितारे इस्लाम के पांच स्तंभों को दर्शाते हैं। इससे पता चलता है कि इसके संस्थापकों ने पाकिस्तान के समग्र राज्य में अल्पसंख्यकों के महत्व को पहचाना था। हालाँकि, कई कारणों से, पाकिस्तान के धार्मिक अल्पसंख्यकों को वह नहीं मिल सका, जिसका वादा क़ायदे-ए-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने किया था। किसी भी प्रभावी तंत्र / निकाय की अनुपस्थिति में, उनकी वास्तविक शिकायतें असंबोधित रही हैं और पीड़ाएँ निरंतर जारी हैं। पाकिस्तान में अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों को मान्यता देने का भ्रम पैदा करने के लिए एक अल्पसंख्यक आयोग के गठन का एक लंबा इतिहास रहा है। अल्पसंख्यकों के लिए एक आयोग की स्थापना की दिशा में किए गए विभिन्न आधे-अधूरे प्रयास या तो तार्किक निष्कर्ष तक नहीं पहुंचे या दंतहीन निकायों का गठन हुआ जो काफी हद तक केवल कागज पर ही थे। संघीय सरकार द्वारा हाल ही में एक कार्यकारी आदेश के माध्यम से राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (एनसीएम) स्थापित करने का प्रयास, वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चलाई गई एक प्रक्रिया को समाप्त करता है और रोकता है जो संभवत: एक कानूनी आधार और चार्टर के साथ एक अधिक प्रभावी संस्थान का निर्माण कर सकता है। अहमदियों को नए निकाय के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखने का जानबूझकर किया गया कृत्य देश में सभी अल्पसंख्यकों की संवेदनशीलता को दर्शाता है।
2015 में जिन्ना इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट पाकिस्तान में धार्मिक स्वतंत्रता की स्थिति को रेखांकित करता है कि गैर-मुस्लिमों को न केवल राष्ट्रीय मुख्यधारा से बाहर रखा गया था, बल्कि देश के चरमपंथियों ने उन्हें नियमित रूप से अपना निशाना भी बनाया था।1 समय के साथ-साथ, न केवल उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति खराब हुई, बल्कि उनके राजनीतिक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता को भी निचोड़ लिया गया। भेदभाव, हिंसा, कई मामलों में जबरन धर्मांतरण, और उनकी पूजा स्थलों पर हमले काफी आम हो गए। इसी पृष्ठभूमि में पाकिस्तान की एक गैर सरकारी संगठन, पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग (एचआरसीपी) ने 2010 में अल्पसंख्यकों और संवेदनशील समुदायों की दुर्दशा का अध्ययन करने और रेखांकित करने के लिए एक कार्य समूह की स्थापना की। 2012 में, यह एक और अधिक केंद्रित विशेषज्ञ समूह में बदल गया जिसने दिसंबर 2013 में एक डरावनी रिपोर्ट पेश की। रिपोर्ट में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) द्वारा 22 सितंबर, 2013 को पेशावर चर्च पर हमले और विशेष रूप से इस बात पर चर्चा की गई थी कि हमले के बाद प्रभावित परिवारों की जरूरतों को संबोधित करने में सरकार कैसे विफल रही थी। इसने मुस्लिम युवकों की भीड़ द्वारा भुरो भील (एक हिंदू) का मृत शरीर उसकी कब्र से खोद कर निकालने का मामला भी उठाया। इस रिपोर्ट में देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के टकराव के मुद्दों पर सरकार और मीडिया दोनों से इनके अभावपूर्ण रवैये पर सवाल उठाया गया है।2
सरकार की बढ़ती आलोचना के बीच, सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, दस्सुदक हुसैन जिलानी ने 2013 में पेशावर के ऑल सेंट एंग्लिकन चर्च पर हुए दुखद हमले को ध्यान में लिया और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए तीन सदस्यीय पीठ का गठन किया।3 इस हमले के शिकार मुख्य रूप से ईसाई हुए थे लेकिन जैसे-जैसे यह मामला आगे बढ़ता गया, मामलों का दायरा बढ़ाने के लिए हिंदुओं सहित अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के मुद्दों को भी उठाया गया। विभिन्न अल्पसंख्यक संगठनों और सरकार के प्रतिनिधियों की बात सुनने के बाद, अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची कि अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ हुई घटनाओं ने पाकिस्तान के नागरिकों को संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन किया है।4 19 जून, 2014 को एक ऐतिहासिक फैसले में, शीर्ष अदालत ने सरकार को एक आठ-सूत्री दिशानिर्देश दिया, जिसमें अन्य चीजों के साथ-साथ “धार्मिक और सामाजिक सहिष्णुता की संस्कृति” को बढ़ावा देने के लिए स्कूल और कॉलेज के स्तरों पर पाठ्यक्रम का विकास करना, और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए एक राष्ट्रीय परिषद का गठन करना शामिल था।5 इसने तीन-सदस्यीय पीठ के समक्ष प्रस्तुत एक अलग फाइल को खोलने का भी निर्देश दिया यह सुनिश्चित करने के लिए कि फैसलों को अक्षरशः प्रभाव में लाया जाए।6
अल्पसंख्यक आयोग का विचित्र इतिहास
अल्पसंख्यकों के लिए पाकिस्तानी आयोग का एक विचित्र और जटिल इतिहास रहा है। यह पहली बार नहीं था कि अल्पसंख्यक आयोग का सवाल सामने आया था। विभिन्न अवसरों पर, लोगों ने देश में अल्पसंख्यकों के लिए एक अस्पष्ट आयोग के अस्तित्व के बारे में सुना था, फिर भी इसका पता लगाना मुश्किल था। एक अस्तित्वहीन संस्था के अस्तित्व का इतिहास 1990 से चला आ रहा है। अखबार की रिपोर्टों के अनुसार, 1990 में प्रधानमंत्री के रूप में बेनजीर भुट्टो के पहले कार्यकाल के दौरान एक राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (एनसीएम) की स्थापना की गई थी, लेकिन इसकी कानूनी स्थिति हमेशा की तरह सवालों के घेरे में रही क्योंकि सरकार ने इसकी कार्य प्रणाली को लेकर कोई नियम नहीं बनाया था। यह दुबारा 2018 में सुर्खियों में आया, जब राष्ट्रीय सभा ने अल्पसंख्यक आयोग पर तीन निजी सदस्यों के बिल को मंजूर किया।7 तब धार्मिक मामलों पर राष्ट्रीय सभा की स्थायी समिति की एक उप-समिति को मौजूदा आयोग के बारे में सूचित किया गया था।8
एक मानवाधिकार कार्यकर्ता और सेंटर फॉर सोशल जस्टिस के कार्यकारी निदेशक पीटर जैकब ने बताया है कि उन्हें 1995 में संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिवेदक अब्दुल फतह अमोर के तथ्य खोज यात्रा के दौरान अल्पसंख्यकों पर एक अस्तित्वहिन राष्ट्रीय आयोग के अस्तित्व के बारे में पता चला था।9 इसका मतलब है कि अगर कभी कोई आयोग था, तो वह केवल नाम मात्र का था।
जून 2014 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के तुरंत बाद, संघीय सरकार हरकत में आ गई और नवंबर 2014 में जारी की गई एक अधिसूचना के माध्यम से धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए एक राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की घोषणा कर दी, जिसे मौजूदा कानूनों की समीक्षा करने और एक अंतर-धर्म सद्भाव नीति तैयार करने का काम सौंपा गया।10 कथित रूप से तत्कालीन धार्मिक मामलों एवं अंतर-धर्म सद्भाव मंत्री सरदार मुहम्मद यूसुफ़ आयोग के अध्यक्ष थे।11 दिसंबर 2014 में सर्वोच्च न्यायालय में सरकार के वकीलों ने इसकी गवाही दी थी। हालांकि, फरवरी 2016 में एक और मोड़ आया, जब सरकार ने मानव अधिकारों के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना शुरू की और दिसंबर 2016 तक अल्पसंख्यकों पर एक वैधानिक राष्ट्रीय आयोग की स्थापना का एक बिल प्रस्तुत करने का वादा किया।12 इससे यह स्पष्ट हो गया कि देश में कानून द्वारा समर्थित कोई मौजूदा या कार्यशील एनसीएम नहीं था। 2018 में, सीनेट उपसमिति ने तीन निजी सदस्यों के बिलों, जो लंबित थे, को एक आधिकारिक बिल के साथ जोड़ने का फैसला लिया और इसका नाम बदलकर ‘गैर-मुस्लिम पाकिस्तानियों के अधिकारों के लिए राष्ट्रीय आयोग’ रख दिया। हालाँकि, यह आखिर में मुकम्मल नहीं हो सका।13 चीजें तेजी से तब बदलने लगीं जब 2018 के चुनावों की होड़ में विपक्षी राजनीतिक दलों, विशेषकर पीटीआई, ने खुले तौर पर ईश निंदा कानूनों का बचाव किया और अहमदी समुदाय के खिलाफ अपमानजनक अभियान चलाया।14 एक बार सत्ता में आने के बाद, पीटीआई ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।
नया एनसीएम (2020)
जब तक पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग (एचआरसीपी), सामाजिक न्याय केंद्र (सीएसजे) और सेसिल और आइरिस चौधरी फाउंडेशन (सीआईसीएफ) ने जनवरी 2018 में शीर्ष न्यायालय में 2014 के अपने फैसले के कार्यान्वयन के लिए एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर नहीं कर दी, तब तक कोई ठोस विकास नहीं हुआ था। इसके परिणामस्वरूप सर्वोच्च न्यायालय ने एक अनुपालन रिपोर्ट पेश करने के लिए जनवरी 2019 में एक-सदस्यीय आयोग बनाया।15 जून 2014 के फैसले के क्रियान्वयन के प्रयासों की देखरेख करने वाले आयोग की अध्यक्षता एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी डॉ. शोएब सुदाल कर रहे थे। आयोग ने एक प्रारंभिक प्रारूप तैयार किया जिसे धार्मिक मामलों एवं अंतर-धर्म सद्भाव मंत्रालय और नागरिक समाज संगठनों सहित कई हितधारकों के साथ साझा किया गया। डॉ. शोएब सुदाल के साथ आगे की कार्यवाही करने के बजाय, संघीय मंत्रिमंडल ने मई 2020 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (एनसीएम) की स्थापना कर दी।
उसके बाद, 11 मई, 2020 को धार्मिक मामलों एवं अंतर-धर्म सद्भाव मंत्रालय ने आयोग के लिए संदर्भ की शर्तों सहित एक विस्तृत अधिसूचना जारी की। सिंध के पीटीआई नेता और पाकिस्तान हिंदू काउंसिल (पीएचसी) के पूर्व अध्यक्ष चेला राम केवलानी को तीन साल के कार्यकाल के साथ अध्यक्ष बनाया गया है।16 अधिसूचना के अनुसार, आयोग में अध्यक्ष सहित कुल 18 सदस्य होंगे। इन 18 सदस्यों में से, छह आधिकारिक और 12 गैर-आधिकारिक सदस्य होंगे। आंतरिक मंत्रालय, कानून और न्याय मंत्रालय, मानव अधिकार मंत्रालय, संघीय शिक्षा एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण मंत्रालय से एक-एक आधिकारिक सदस्य शामिल होंगे। अन्य दो आधिकारिक सदस्य इस्लामी विचारधारा परिषद (सीआईआई) के अध्यक्ष और धार्मिक मामलों के मंत्रालय के सचिव हैं। जहां तक अनौपचारिक सदस्यों का संबंध है, तीन हिंदू, तीन ईसाई, दो सिख, दो मुस्लिम और एक पारसी और एक कलश शामिल होंगे।
चेयरमैन जयपाल छाबरिया के अलावा, एक सामाजिक कार्यकर्ता और विश्नो राजा क़वी, एक सेवानिवृत्त नौकरशाह, हिंदू समुदाय से दो अन्य सदस्य हैं। ईसाईयों का प्रतिनिधित्व खैबर पख्तूनख्वा की पूर्व मंत्री प्रो. साराह सफदा, लाहौर के कैथोलिक चर्च के आर्कबिशप सेबेस्टियन फ्रांसिस शॉ, और पाकिस्तान यूनाइटेड क्रिश्चियन मूवमेंट के चेयरमैन अल्बर्ट डेविड कर रहे हैं। सिख सदस्यों में केपी सरकार के एक अधिकारी सरूप सिंह, और किंग एडवर्ड मेडिकल यूनिवर्सिटी, लाहौर के मिंपल सिंह शामिल हैं। पूर्व सीनेटर रोशन खुर्शीदबरुचा पारसी समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, जबकि सामाजिक कार्यकर्ता दाऊद शाह कलश समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
कादियानी सवाल पर विवाद
मई 2020 में एनसीएम की स्थापना विशेष रूप से दो कारणों से विवादास्पद बन गई है; पहला, यह उत्पीड़ित अहमदी समुदाय के प्रतिनिधियों को शामिल करने में विफल रहा; दूसरा, यह जून 2014 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुरूप नहीं है। 15 अप्रैल, 2020 को संघीय कैबिनेट ने धार्मिक मामलों एवं अंतर-धर्म सद्भाव प्रभाग द्वारा प्रस्तुत “अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रीय आयोग का पुनर्गठन” नामक प्रस्ताव को मंजूरी दी और सैद्धांतिक रूप से आयोग का गठन करने की सहमति दी। कैबिनेट ने धार्मिक मामलों एवं अंतर-धर्म सद्भाव प्रभाग को अनुमोदन हेतु एक औपचारिक नोट संचारित करने का निर्देश दिया। निदेशक ने, अन्य बातों के साथ-साथ, कहा कि चेयरमैन सहित अधिकतर सदस्य अल्पसंख्यक समुदायों से होंगे।17 इसमें अहमदी समुदाय के प्रतिनिधियों को शामिल करने का भी उल्लेख था, क्योंकि वे संविधान के अनुसार अल्पसंख्यक का हिस्सा थे।18
जब प्रस्तावित अल्पसंख्यक आयोग में अहमदी समुदाय को शामिल किए जाने की खबरें सामने आईं, कुछ वर्गों से कड़ी प्रतिक्रिया मिली और उसके बाद सोशल मीडिया पर अहमदियों के खिलाफ नफरत का अभियान चलाया गया जिसमें अहमदियों (कादियानियों) को देशद्रोही और काफिर करार दिया। संसदीय मामलों के राज्य मंत्री अली मुहम्मद खान ने इसे इस्लाम के खिलाफ एक साजिश करार दिया और ट्वीट किया कि “पैगंबर मोहम्मद का मजाक उड़ाने वालों के लिए केवल एक सजा है, सिर कलम करना”। पाकिस्तान मुस्लिम लीग-कुवैद (पीएमएल-क्यू), जो सत्तारूढ़ पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) के गठबंधन सहयोगी हैं, के नेता चौधरी शुजात हुसैन ने भी सरकार की आलोचना में उनका साथ दिया। उन्होंने कहा कि सरकार एनसीएम में अहमदियों को शामिल करके पंडोरा का पिटारा खोल रही है क्योंकि कादियानी खुद को मुस्लिम मानते हैं।19
सरकार गंभीर दबाव में आ गई और कुछ ही घंटों में धार्मिक मामलों के मंत्री नूरुलहक कादरी ने इस बात से इनकार कर दिया और कहा कि अहमदियों को आयोग के दायरे में शामिल नहीं किया जा रहा है क्योंकि वे (अहमदी) खुद को मुस्लिम मानते हैं। इस प्रकार, एनसीएम में अहमदियों (कादियानियों) को शामिल करने का निर्णय वापस ले लिया गया।20 मोटे तौर पर 4 मिलियन अहमदी पाकिस्तान में रहते हैं और पाकिस्तान में सबसे अधिक उत्पीड़ित समुदायों में से एक हैं। उनके बहिष्कार को किसी भी आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि पाकिस्तान के वर्तमान कानून के अनुसार वे मुस्लिम नहीं हैं। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि 1974 में संविधान के दूसरे संशोधन से पहले कानूनी तौर पर अहमदियों को इस्लाम के भीतर एक संप्रदाय माना गया था, जिसमें उन्हें गैर-मुस्लिम घोषित किया गया था। अहमदी चाहे खुद को कुछ भी मानें, संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार वे एक धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय हैं। संक्षेप में इस विवाद ने दिखाया कि अन्य दलों की तरह, पीटीआई भी धार्मिक अधिकार के दबाव को नहीं संभाल सकता है।
एक दंतहीन निकाय?
अहमदी के सवाल के अलावा, एनसीएम एक दंतहीन निकाय होने के कारण गंभीर आलोचना के घेरे में आया क्योंकि यह न तो संसदीय अधिनियम द्वारा समर्थित है और न ही सरकार ने स्पष्ट रूप से इसकी शक्तियों और वित्त को परिभाषित किया है। यह धार्मिक मामलों एवं अंतर-धर्म सद्भाव मंत्रालय के अंतर्गत आता है, जिसका अर्थ है कि यह निकाय एक स्वतंत्र निकाय नहीं है। छह पूर्व-अधिकारियों और दो मुस्लिम सदस्यों वाला यह आयोग व्यवहार्य नहीं है और अपने एक-मात्र उद्देश्य को पराजित करता है। इसी कारण से विभिन्न अल्पसंख्यक अधिकार समूहों ने एनसीएम को अस्वीकार कर दिया है क्योंकि यह राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था के लिए संयुक्त राष्ट्र के मानक को पूरा करने में विफल रहा है। पेरिस के नियमों में उल्लेख है कि किसी भी राजनीतिक पद का पदाधिकारी राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था का सदस्य नहीं बन सकता है।21 इस मामले में, संघीय कैबिनेट ने डॉ साराह सफदा और रोशन खुर्शीद भरूचा जैसे राजनीतिक नेताओं को आयोग का सदस्य मनोनीत किया है, जो नहीं होना चाहिए था।22
इस बारे में भी सवाल उठाए जा रहे हैं कि यह आयोग सर्वोच्च न्यायालय के आशय के अनुरूप नहीं है। एक सदस्यीय एससी आयोग के अध्यक्ष डॉ. शोएब सुदाल ने सरकार के फैसले को शीर्ष न्यायालय में चुनौती दी है और एनसीएम की स्थापना में उनकी सलाह नहीं लेने का आरोप लगाया है।23 वास्तव में, उन्होंने एक मसौदा विधेयक तैयार किया था और धार्मिक मामले एवं अंतर-धर्म सद्भाव मंत्रालय सहित विभिन्न हितधारकों को भेजा था।24 उन्होंने शीर्ष न्यायालय को सूचित किया कि हाल ही में गठित एनसीएम 2014 में इसके ऐतिहासिक फैसले में शीर्ष न्यायालय द्वारा परिकल्पित निकाय के अनुरूप नहीं है और इस तरह न्यायालय के आदेश का उल्लंघन है।25
निष्कर्ष
पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का एक दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास है। उत्तरोत्तर सरकारें न केवल इनके जीवन, संपत्ति, प्रतिष्ठा और पूजा स्थलों की रक्षा करने में विफल रहीं हैं बल्कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनके मानव अधिकारों के सकल उल्लंघन में सहायता की है और बहकाया है। विभिन्न सरकारों द्वारा उनकी परिस्थिति में सुधार करने के दावे बड़े पैमाने पर कागज पर ही रह गए। प्रधान मंत्री इमरान खान के नए पाकिस्तान के पास जून 2014 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लिए गए फैसले को अक्षरशः लागू करके इतिहास रचने का मौका था। लेकिन दक्षिणपंथी दबावों के आगे घुटने टेक दिए और एक गैर-स्वतंत्र और एक दंतहीन निकाय का निर्माण किया। यह कृत्रिम आंदोलन सामान्य रूप से सिविल समाज और विशेष रूप से अल्पसंख्यक समुदायों को शांत करने में विफल रहा।
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*डॉ आशीष शुक्ला, शोधकर्ता, विश्व मामलों की भारतीय परिषद।
अस्वीकरण: व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं
डिस्क्लेमर: इस अनुवादित लेख में यदि किसी प्रकार की त्रुटी पाई जाती है तो पाठक अंग्रेजी में लिखे मूल लेख को ही मान्य माने ।
अंत टिप्पण /संदर्भ
1Jinnah Institute (2015), State of Religious Freedom in Pakistan, Islamabad: Jinnah Institute, p. 5.
2HRCP (2013), When it rains: Religious Minorities & New Challenges, Islamabad: Humn Rights Commission of Pakistan, p.15.
3Vankwani, Ramesh Kumar (2020), “Minorities under attack?,” The News, January 3, 2020.
4Supreme Court (2014), Judgement in SMC No. 1/2014 etc, June 19, 2014, Islamabad: Supreme Court of Pakistan, pp. 30-32.
5Ibid.
6Ibid.
7Ali, Kalbe (2018), “Status of commission for minorities still unclear, NA panel told,” The Dawn, April 3, 2018.
8Ibid.
9Jacob, Peter (2016), “The myth of minorities’ commission,” The Express Tribune, May 25, 2016.
10Jinnah Institute (2015), State of Religious Freedom in Pakistan, Islamabad: Jinnah Institute, p. 54.
11Aqeel, Asif (2015), “Minority matters,” The Friday Times, June 19, 2015, retrieved from https://www.thefridaytimes.com/minority-matters/
12Jacob, Peter (2016), “The myth of minorities’ commission,” The Express Tribune, May 25, 2016.
13Mustafa, Zubeida (2020), “Time to act,” The Dawn, January 17, 2020.
14USCIRF (2019), Annual Report 2019, United States Commission on International Religious Freedom, retrieved from https://www.uscirf.gov/sites/default/files/Tier1_PAKISTAN_2019.pdf
15Rehman, I. A. (2019), “SC and minority rights,” The Dawn, April 11, 2019.
16Ali, Kalbe (2020), “Govt notifies reconstituted commission for minorities,” The Dawn, May 12, 2020.
17Abbasi, Ansar (2020), “Undoing decision to include Qadiani in NCM: Religious ministry seeks cabinet’s approval,” The News, May 2, 2020.
18Ibid.
19Inayat, Naila (2020), “In Imran Khan’s Naya Pakistan, a minority commission without minority,” The Print, May 7, 2020, retrieved from https://theprint.in/opinion/letter-from-pakistan/in-imran-khans-naya-pakistan-a-minority-commission-without-minority/415976/
20Daily Times (2020), “Federal Cabinet withdraws inclusion of Qadianis in NCM,” Daily Times, May 6, 2020.
21HRW (2020), “Pakistan: Ahmadis Kept Off Minorities Commission, New Rights Body Should be Inclusive, Independent, Empowered,” Human Rights Watch, May 8, 2020, retrieved from https://www.hrw.org/news/2020/05/08/pakistan-ahmadis-kept-minorities-commission
22Dr Sarah Safda earlier served as a minister in Khyber Pakhtunkhwa, whereas Roshan Khurshed Bharucha is an ex-senator who also served in the caretaker set-ups in Balochistan and federal cabinets.
23Saeed, Nasir (2020), “The challenge of forming a minority rights commission in Pakistan,” Daily Times, May 20, 2020.
24Malik, Hasnaat (2020), “Minority body approved by cabinet ‘violates’ SC order,” The Express Tribune, May 8, 2020.
25Ibid.