नेपाल में चल रहे राजनीतिक उथल पुथल के बाद अंततः प्रधानमंत्री खड्गा प्रसाद शर्मा ओली ने अपना त्याग पत्र (२४ जुलाई) राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी को सौंप दिया है। इस बदलते समीकरण में एक नया राजनीतिक नेतृत्व साम्यवादी नेपाल दल (माओवादी) और नेपाली कांग्रेस के गठजोड़ से उभरकर सामने आया है। इस राजनीतिक मोड़ पर भावी सरकार के समक्ष विभिन्न प्रकार की चुनौतियाँ है और गौर करने वाली बात यह है कि नेपाली कांग्रेस और माओवादियों की साझेदारी कितनी सफल रहती है जो कि विगत समय में एक दूसरे के धुर विरोधी रहे है। भारत के लिए यह परिवर्तन काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि ओली सरकार बनने के बाद से नेपाल राजनितिक अस्थिरता से जूझ रहा था जिसमे एक तरफ मधेशी आन्दोलन था तो दूसरी तरफ माओवादी गठबंधन की अंतर्कलह जिसका सीधा असर भारत नेपाल संबधो पर नजर आ रहा था। यह उम्मीद करना तर्कसंगत होगा कि नए गठबंधन में शामिल नेपाली कांग्रेस पार्टी भारत से अच्छे संबंधों की पारंपरिक नीति को आगे बढ़ाएगी और प्रचंड के नेतृत्व वाला माओवादी दल नेपाली कांग्रेस के सहयोगी बनकर पहले से ज्यादा व्यवहारिक कूटनीति की तरफ चलेगी।
पृष्ठभूमि:
१२ जुलाई को प्रचंड द्वारा ओली सरकार से समर्थन लेने के बाद नेपाली कांग्रेस के साथ गठबंधन में सरकार बनाने तथा स्वयं को प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप देश के समक्ष पेश करने की मंशा जाहिर की। सात वर्षों के बाद प्रचंड द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी पेश करना कही न कही उनकी महत्वकांक्षा को प्रदर्शित करता रहा है। नेपाली कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने का निर्णय प्रचंड की राजनीतिक गठजोड़ का नमूना है। वर्ष १९९६ में जब माओवादी मुखिया प्रचंड आन्दोलन कर रहे थे (जब समूह की भूमिका एक लड़ाके की थी) और तत्कालीन सरकार के समक्ष ४० सूत्री मांग रख रहे थे; जिसमे राजतन्त्र की समाप्ति और गणतंत्र की स्थापना प्रमुख मांग थी, उस दौरान नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ही थे, जिन्होंने माओवादियों के विरुद्ध कड़ा रुख अपनाया था। लेकिन आज २० वर्ष बाद दोनों का आगामी सरकार में गठबंधन बनाना नेपाल की राजनीति में नए समीकरण सामने लाता है।
वही प्रचंड ने अपने इस कदम को लेकर ओली सरकार के प्रति अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि यह सरकार भूकंप के पश्चात् पुनर्निर्माण कार्य, मधेश क्षेत्र की मांगो और नये संविधान के लागूकरण की दिशा में कोई संतोषजनक कार्य नहीं कर पाई है। उन्होंने आगे कहा कि हम इस सरकार में एक प्रमुख साझेदार घटक के रूप में समर्थन दे रहे थे लेकिन इस सरकार ने सभी निर्णय एकपक्षीय ही लिए।1
इस घटनाक्रम में १३ जुलाई को नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा और साम्यवादी नेपाल दल (माओवादी) के मुखिया के मध्य सात सूत्री समझौता हुआ। जिसमे आगामी राजनीतिक प्रगति की संरचना का प्रारूप प्रस्तुत किया गया, जिसमे सात सूत्री समझौते के अतिरिक्त मंत्रालयों का बंटवारा और मौखिक रूप से (या यों कहे कि पुनः जेंटलमैन अग्रीमेंट के तहत, क्योंकि इस प्रकार का करार पहले ओली और प्रचंड के मध्य भी हुआ था) दोनों नेताओं के मध्य इस बात पर भी सहमति बनी कि नौ महीने प्रचंड प्रधानमंत्री रहेंगे और उसके बाद देउबा प्रधानमंत्री बनेंगे। यहाँ रोचक बात यह रही कि जब यह करार हो रहा था उसी दौरान ओली ने देउबा से समर्थन देने की पेशकश भी की लेकिन देउबा ने सात सूत्री समझौते के हवाला देते हुए इनकार कर दिया।2
सात सूत्री समझौता
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नेपाली कांग्रेस और साम्यवादी नेपाल दल (माओवादी) के मध्य हुई बातचीत के आधार पर यह निर्णय हुआ कि प्रचंड ८ मंत्रालयों (जिसमे वित्त मंत्रालय प्रमुख है) सहित प्रधानमंत्री का पदभार सम्भालेंगे तथा नेपाली कांग्रेस के पास आगामी सरकार में संभावित रूप से १२ मंत्रालय रहेंगे, जिनमे (संभावित रूप से) गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय, संघीय मामलों और स्थानीय विकास का मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय, पर्यटन मंत्रालय, सामान्य प्रशासन का मंत्रालय, श्रम मंत्रालय, खेल मंत्रालय, उर्जा और सिंचाई मंत्रालय प्रमुख है। लेकिन नेपाली कांग्रेस के एक नेता ने इस बात की पुष्टि भी की है कि अभी हम संयुक्त लोकतान्त्रिक मधेशी मोर्चा से इस नई सरकार में शामिल होने के लिए बातचीत कर रहे है अतः वित्त और गृह मंत्रालय को छोड़कर अन्य मंत्रालयों के आवंटन पर अभी अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है।4 यहाँ उल्लेखनीय बात यह है कि नेपाली कांग्रेस के पास अधिक मंत्रालय और प्रधानमंत्री पद के लिए प्रचंड की दावेदारी को स्वीकार करने का निर्णय दोनों दलों ने आम सहमति से लिया है। यहाँ यह तथ्य महत्वपूर्ण कि इस समय संसद में साम्यवादी नेपाल दल (माओवादी) तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है और इस घटनाक्रम में प्रचंड भी सुद्रढ़ स्थिति में है अतः यदि नेपाली कांग्रेस को सत्ता में आना है तो ओली सरकार से प्रचंड द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद नेपाली कांग्रेस को उन्हें अभी प्रधानमंत्री स्वीकार करना होगा, जैसा कि दोनों दलों के मध्य मौखिक/जेंटलमैन समझौते के तहत निश्चित हुआ है।
यहाँ गौर करने वाला तथ्य एक यह भी है कि नेपाली कांग्रेस और माओवादी केंद्र के मध्य हुए सात सूत्री समझौते में प्रथम बिंदु मधेश की मांगों का निराकरण है, जो यह स्पष्ट करता है कि देउबा और प्रचंड का राजनीतिक गठजोड़ मधेश दलों को अपने पक्ष में लेकर राजनीतिक पटल पर अपनी स्थिति मजबूत करने में प्रयासरत है। यह विदित रहे कि पिछले काफी महीनों से ओली नेतृत्व की सरकार और संयुक्त लोकतान्त्रिक मधेशी मोर्चा के मध्य कई वार्ताओं के दौर हो चुके है लेकिन कोई वांछित परिणाम नहीं निकले अतः ये समूह ओली सरकार से पहले से ही नाराज चल रहे थे, ऐसे में प्रचंड-देउबा के गठजोड़ को इससे मजबूती मिलती है।
अविश्वास प्रस्ताव तथा राजनीतिक समीकरण:
नेपाली कांग्रेस एवं साम्यवादी नेपाल दल (माओवादी) केंद्र ने अन्य समर्थित छोटे दलों के साथ मिलकर १३ जुलाई को ओली सरकार के विरुद्ध विधायिका-संसद में अविश्वास प्रस्ताव पंजीकृत कर दिया था।5 यह प्रस्ताव सदन के पटल पर संविधान के अनुच्छेद २९८ (१३) और विधायिका संसद के नियम १६० के अनुसार प्रस्तुत किया गया था। संसद में २८४ सांसदों के हस्ताक्षर के बाद इस प्रस्ताव का पंजीयन हुआ है। यहाँ ओली सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करने के लिए २९८ मतों की आचश्यकता थी। संसद की स्पीकर ओंसारी घरती के अनुसार यह प्रस्ताव पर बहस २१ जुलाई को होनी थी।6
अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में(३५०) नेपाली कांग्रेस: २०७ माओवादी केंद्र: ८२ नेकपा संयुक्त: ३ संघीय फोरम: १५ राप्रपा: १२ तमलोपा: ११ सद्भावना: ६ तमसपा: ३ रामसपा: ३ थरुहट तराई पार्टी: २ थरुहट मंच: १ समाजवादी जनता पार्टी: १ नेपाल जनता दल: १ फोरम गणतांत्रिक: १ नेपा राष्ट्रीय पार्टी: १ नेपाल सद्भावना पार्टी: १ |
अविश्वास प्रस्ताव के विपक्ष में(२१९) एमाले: १८२ राप्रपा नेपाल: २५ माले: ५ नेमकिया: ४ राष्ट्रीय जनमोर्चा: ३
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अनिर्णित(२५) फोरम लोकतान्त्रिक: १४ नेपाल परिवार दल: २ जनमुक्ति (लो): २ बहुजन शक्ति पार्टी: १ खम्बुवान मोर्चा: १ अखंड नेपाल पार्टी: १ जनजागरण पार्टी नेपाल: १ मधेश समता पार्टी नेपाल: १ दलित जनजाति पार्टी नेपाल: १ स्वतंत्र चंद्रेश्वर झा: १ |
स्रोत: “यस्तो बन्दे छ संसद्को समीकरण”, नयाँ पत्रिका, 14 जुलाई २०१६,
http://www.enayapatrika.com/enayapatrika.com/ep/july-14/
प्रचंड राष्ट्रीय सहमति के आधार पर सरकार बनाने की मंशा से कई बार स्वयं के नेतृत्व में सरकार में सरकार बनाने का प्रस्ताव दे चुके थे। इसके बाद ओली सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद भी उनका यह कहना था कि अब अल्पमत में आने के बाद उन्हें स्वतः ही अपने पद से त्याग पत्र दे देना चाहिए। लेकिन इस घटनाक्रम में ओली ने एक अडिग रुख अपनाया और कहा कि वे इस प्रकार से त्याग पत्र नहीं देंगे, वे संविधान के अनुरूप चलेंगे तथा संसद में अविश्वास प्रस्ताव का सामना करेंगे। वही दूसरी ओर प्रधानमंत्री ओली संविधान के अनुच्छेद २९८ को आधार बना कर कहते है कि इस प्रावधान में बहुत पेचीदगी है, उन्हें प्रधानमंत्री पद से जनवरी २०१८ तक नहीं हटाया जा सकता, बेशक उनकी सरकार अल्पमत में काम चलाऊ (केयर टेकर) की स्थिति में ही क्यों न रहे। इस अनुच्छेद में नई सरकार के गठन का उल्लेख न होने के कारण संभवतया ओली ऐसा मान रहे थे। यद्यपि इस संदर्भ में प्रधानमंत्री ओली तथा प्रचंड ने विधि और संविधान विशेषज्ञों से सलाह मशवरा भी लिया। लेकिन अधिकतर विधिवेत्ताओं का मानना था कि नई सरकार बनाने में किसी प्रकार की संवैधानिक बाधा नहीं है। इस प्रकार संविधान का अनुच्छेद २९८7 इस पूरे परिद्रश्य में काफी महत्वपूर्ण रहा है।
ओली का इस्तीफा एवं चुनौतियाँ:
संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर तीन दिनों तक चली बहस के बाद अंततः प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली ने अपना त्याग पत्र दे दिया। नेपाल की राष्ट्रपति ने त्याग पत्र स्वीकार करते हुए कहा कि उनका इस्तीफा अनुच्छेद २९८ (८) के अनुसार स्वीकार किया गया है और अनुच्छेद २९८ (१०) के अनुसार अगले मंत्रिपरिषद के गठन तक वे केयर टेकर प्रधानमंत्री रहेंगे।8 चौतरफा दबाव के चलते ओली ने अपना पद अविश्वास प्रस्ताव के पारित होने से पहले ही छोड़ दिया। इस्तीफा देने के बाद उन्होंने संसद को संबोधित करते हुए नए गठबंधन के समक्ष कई प्रश्न रखे जिनमे ज्यादातर वर्तमान की परियोजनाओं को लेकर थे। उन्होंने काठमांडू-निजगाद फ़ास्ट ट्रेक रोड, केरुंग-काठमांडू-पोखरा-लुम्बिनी रेलवे तथा तराई-हुलाकी हाइवे जैस परियोजनाओं के भविष्य पर प्रश्न उठाये।9 साथ ही उन्होंने अपनी नौ महीने की सरकार की उपलब्धियाँ भी बताई। उन्होंने दुःख व्यक्त करते हुए कहा कि संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाना एक आम बात है लेकिन वर्तमान कदम सही नहीं है।10 रविवार को इस्तीफा स्वीकार करने के बाद अब राष्ट्रपति दलों से सात दिनों के अन्दर आम सहमति से सरकार बनानें के लिए कहेंगी।
नए परिद्रश्य में भावी सरकार के लिए काफी चुनौतियाँ है जिनका निदान दलगत राजनीति से ऊपर उठकर करना होगा। सबसे पहले तो प्रचंड नेतृत्व वाली सरकार की स्थिरता ही अहम् प्रश्न है, यद्यपि देउबा और प्रचंड में नौ नौ महीने सरकार चलाने का जेंटलमैन अग्रीमेंट हुआ है पर ऐसा समझौता तो पहले ओली और प्रचंड में भी हुआ था जिसे बाद में नहीं माना गया। वही प्रचंड युद्धकाल में पीड़ित अपने कामरेडों को न्याय दिलवाने में भी पुरजोर कोशिश कर रहे है (जिसके लिए सरकार ने सत्य और मेल मिलाप आयोग बनाया था), इस कार्य में प्रधानमंत्री ओली ने उल्लेखनीय प्रगति नहीं थी इसलिए भी प्रचंड ओली नेतृत्व सरकार से नाराज थे। अतः दो अलग विचारधाराओं के दलों का एकसाथ आम सहमति से राष्ट्र निर्माण में कार्य करना और आपसी समझौतों को इमानदारी से पूरा करना दूर की कौड़ी लगता है। इसके लिए दलगत स्वार्थों से ऊपर उठकर पहली और सबसे बड़ी चुनौती संविधान में संशोधन कर असंतुष्ट मधेशी समुदाय (इसे सात सूत्री समझौते में सर्वप्रथम रखा गया है) की मांगों को पूरा करना रहेगा। नए संविधान की घोषणा के बाद से तराई में हिंसक आन्दोलन पांच महीने चला जो कि ओली सरकार के गिरने में एक महत्वपूर्ण कारक था। इस मुद्दे पर भारत से बिगड़े रिश्तों को मद्देनजर रखते हुए यह संभावना है कि आगामी सरकार इस मसले पर गंभीर रहेगी। भूकंप त्रासदी के बाद पुनर्निर्माण के कार्य को तीव्र गति से बढ़ाना भी एक और चुनौती है जिसके कारण प्रधानमंत्री ओली की काफी आलोचना हुई थी। आने वाले समय में स्थानीय, प्रांतीय और संसदीय चुनाव करवाना भी अब इस सरकार की जिम्मेदारी होगी। संवैधानिक सभा के चुनाव के बाद नेपाल में प्रतिनिधि चुनाव नहीं हुए है, यह एक लोकतंत्र के लिए विचारणीय प्रश्न है। वर्ष १९९९ में संसदीय चुनाव के बाद जनता ने कभी प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रधानमंत्री को नहीं चुना, किसी हद तक प्रधानमंत्री का पद म्यूजिकल चेयर जैसा हो गया है, अतः जनता द्वारा प्रतिनिधि चुनने के लिए आम निर्वाचन करवाना भी इस सरकार के लिए महत्वपूर्ण रहेगा।
भारत और चीन के साथ सही तालमेल बैठाना भी इस भावी सरकार के सम्मुख चुनौती होगी। यह देखा गया है कि ओली सरकार के कार्यकाल में नेपाल के रिश्ते चीन के साथ अधिक मधुर हुए और दोनों के मध्य कई अहम् समझौते भी हुए। वही दूसरी तरफ नेपाल और भारत के रिश्तों में खटास आई, जिसमे नाकेबंदी और मधेश का मुद्दा रिश्तों पर हावी रहा। नेपाली कांग्रेस के गठबंधन में आने से यह उम्मीद है कि आने वाले समय में नेपाल के साथ भारत के सम्बन्ध और मधुर हो सकते है। परन्तु गठबंधन की सरकार में राजनीतिक नेतृत्व के निर्णय सदैव संशय के घेरे में रहते है।
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* लेखक, शोध अध्येता, विश्व मामलों की भारतीय परिषद्, सप्रू हाउस, नई दिल्ली
व्यक्त विचार शोधकर्ता के हैं, परिषद के नहीं.
Endnotes:
1 “Dahal to bring Madheshi parties on board”, The Himalayan Times, 15 July 2016,
http://epaper.thehimalayantimes.com/Details.aspx?id=10571&boxid=6440419&dat=7/16/2016
2 Ram Prasad Dahal, “NC formally endorses agreement”, The Rising Nepal, 13 July 2016,
http://therisingnepal.org.np/epaper/showimage?img=uploads/epaper/2016-07-14/009a194065cf68004f86c0b735fc6cae.jpg
3 “Seven point pact in nutshell”, The Himalayan Times, 12 July 2016,
http://epaper.thehimalayantimes.com/Details.aspx?id=10511&boxid=23722842&dat=7/13/2016
4 “NC, maoists discuss sharing ministries”, My Republica, 20 July 2016,
http://www.myrepublica.com/news/2060
5 “CPN (MC), NC, CPN-U register no trust motion against PM”, The Rising Nepal, 13 July 2016,
http://therisingnepal.org.np/epaper/showimage?img=uploads/epaper/2016-07-14/e20d4e10ea07c8c7bafc406b99b931a2.jpg
6 Prakash Acharya, “No trust motion tabled against oli”, The Himalayan Times, 13 July 2016,
http://epaper.thehimalayantimes.com/Details.aspx?id=10531&boxid=33828637&dat=07/14/2016
7 नेपाली सविधान (२०१५) के भाग ३३- संक्रमणकालीन प्रावधान के तहत अनुच्छेद २९८ कुल १५ उपधाराओं पर आधारित है जिसमें प्रधानमंत्री को हटाने और उसके मंत्रिमंडल के चयन से सम्बंधित नियमों की व्याख्या की गई है। अविश्वास प्रस्ताव का प्रावधान अनुच्छेद २९८ ८ (ब) में वर्णित है जिसके अनुसार उपधारा 14 के तहत वर्णित अविश्वास प्रस्ताव की प्रक्रिया में यदि प्रधानमंत्री पास नहीं होते है तो उन्हें पद से त्याग पत्र देना होगा। इसके अलावा अनुच्छेद २९८ ८ (अ) के अनुसार प्रधानमंत्री सीधे तौर पर अपना त्याग पत्र राष्ट्रपति को दे सकते है। विगत पखवाड़े में चले गतिरोध के दौरान प्रचंड और उनकी पार्टी द्वारा इसी अनुच्छेद के मुताबिक प्रधानमंत्री ओली से त्यागपत्र की मांग की गई थी। लेकिन प्रधानमंत्री ओली ने अविश्वास प्रस्ताव पारित होने से पूर्व ही इस्तीफा दे दिया, अतः इस मुद्दे में कोई भ्रान्ति नहीं रही।
8 Prakash Acharya, “Oli resigns before no trust vote”, The Himalayan Times, 24 July 2016,
http://epaper.thehimalayantimes.com/Details.aspx?id=10741&boxid=21126428&dat=7/25/2016
9 Ashok Dahal, “Oli calls in to question fate of major national projects”, My Republica, 25 July 2016,
http://www.myrepublica.com/news/2640
10 Ritu raj subedi, “Prime Minister Oli resigns”, The Rising Nepal, 24 July 2016,
http://therisingnepal.org.np/epaper/showimage?img=uploads/epaper/2016-07-25/e8ba4a16487926e6c5c67633505e09b0.jpg