सरदार के एम पाणिकर का जीवन तथा उनकी कृतियां एक आकर्षक रिवायत बनाती हैं जिसमें भूमिकाओं, पदों तथा हितों की व्यापक विविधता शामिल है। विभिन्न क्षमताओं में उनका योगदान: एक राजनयिक, इतिहासकार, राजनेता, शिक्षाविद् तथा एक पत्रकार के रूप में आधुनिक भारत के राजनयिक तथा बौद्धिक इतिहास की किसी भी स्पष्ट समझ के लिए बारीकी से अध्ययन करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण तथा गुणकारी हैं। यह संगोष्ठी दुर्भाग्य से वर्चुअल प्रारूप में है उस दिशा में एक छोटा सा कदम है। हित की घोषणा के माध्यम से मुझे यह भी कहना चाहिए कि के एम पाणिकर 1940 के दशक के अंत तथा 1950 के दशक के शुरू में भारतीय विश्व मामलों की परिषद (आईसीडब्ल्यूए) के साथ भी घनिष्ठ रूप से जुड़े थे।
पाणिकर हिंद महासागर के साथ भारत के संबंधों के इतिहास के प्रारंभिक लेखकों में से एक थे। उनकी मौलिक ऐतिहासिक तथा साहित्यिक कृतियों ने समकालीन विचारों तथा धारणाओं को प्रभावित किया है तथा स्वतंत्र भारत की नौवहन चेतना को उन्मुख करने में एक प्रारंभिक भूमिका निभाई है ।
पाणिकर के प्रमुख कार्यों ने स्वतंत्र भारत की नौवहन रणनीति पर छाप छोड़ी, वे हैं: एशिया एंड वेस्टर्न डोमिनान्स:ए सर्वे ऑफ़ द वास्को द गामा एपोक ऑफ़ एसीअन हिस्ट्री,1498-1945 (1953), इंडिया एंड द इंडियन ओसन: एन एस्से ऑन द इन्फ्लुएंस ऑफ़ सी पावर ऑन इंडियन हिस्ट्री (1945) तथा द स्ट्रेटेजिक प्रोब्लेम्स ऑफ़ द इंडियन ओसन(1944)। उनका कार्य हिंद महासागर के प्रभाव का पता लगाने पर केंद्रित है, जिसे वह भारतीय इतिहास को आकार देने तथा भारत के भविष्य पर महासागरीय नियंत्रण के महत्वपूर्ण महत्व पर चर्चा करने पर ' महासागरीय गतिविधि का पहला केंद्र' मानते हैं। पाणिकर ने दलील दी कि "भारत का प्रायद्वीपीय चरित्र तथा नौवहन यातायात पर उसके व्यापार के लिए निर्भरता समुद्र को उसके भाग्य पर एक बड़ा प्रभाव रखती है"। वह उत्तर-पश्चिम सीमाओं पर विशेष ध्यान देने के साथ भारत की सुरक्षा के एक तरफा दृष्टिकोण की आलोचना करते हैं, बावजूद इसके कि महासागरों का भारतीय सोच में महत्वपूर्ण स्थान है तथा महासागरीय नौवहन कई सदियों से प्रायद्वीपीय भारत के तटीय निवासियों के लिए समान है।
उनका तर्क है कि 14 9 8 में कालीकट में वास्को डी गामा के आगमन से 450 वर्ष की अवधि में उनके पारम्परिक काल में "एशिया और पश्चिमी प्रभुत्व" में 'वास्को डी गामा युग' शामिल है। यह एक मौलिक पहलू है जिसमे एशिया के भूभाग पर यूरोपीय नौवहन शक्ति का प्रभुत्व था, जिसमे विलक्षण एकता द्वारा चिह्नित किया गया था। इस क्षेत्र में इतिहास की धारा को बदलने तथा हिंद महासागर पर अटलांटिक प्रभुत्व के युग की शुरुआत करने में दीव की लड़ाई तथा कोचीन की लड़ाई महत्वपूर्ण थी। पाणिकर दीव तथा कोचीन की लड़ाई को बक्सर तथा प्लासी की लड़ाई से ज्यादा महत्वपूर्ण मानते थे। उनका मालाबार तथा पुर्तगाली विशेष रूप से इस क्षेत्र में पुर्तगाली बातचीत तथा उनके सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक प्रभावों के इतिहास पर केंद्रित है। यूरोपीय शक्ति संतुलन के विभिन्न चरणों तथा भौगोलिक क्षेत्रों-पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी तथा ब्रिटिश की गहरी रुचि थी बाद में एशियाई भूराजनीति पर इसके प्रभाव को देखते हुए पाणिकर की इसमें गहरी रूची थी तथा आज तक यह रुची बना हुआ है।
"अटलांटिक चरण" से पाणिकर ने हिंद महासागर के इतिहास में अपने समय में ' प्रशांत चरण' में बदलाव देखा। पाणिकर ने प्रशांत क्षेत्र अर्थात जापान तथा संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे दो शक्तिशाली नौसैनिक शक्तियों के विकास तथा हिंद महासागर में इसकी क्रांतिीकृत नौसैनिक क्षमता प्रतिस्पर्धा का वर्णन किया। विश्लेषणात्मक नजरिए से, अतिरिक्त क्षेत्रीय शक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धा का उनका वर्णन, हिंद महासागर के साथ-साथ व्यापक हिंद-प्रशांत क्षेत्र में गहन समकालीन भू-राजनीतिक मंथन का विश्लेषण करने के लिए एक पृष्ठभूमि भी प्रदान करता है। इसलिए आज उनके लेखन को फिर से पढ़ने की जरूरत है क्योंकि प्रशांत तथा हिंद महासागर की व्यापक भूराजनीति दो महासागरीय स्थानों के बीच तीव्रता से बढ़ती अंतर-संबद्धता तथा अंतर-निर्भरता के साथ बदल रही है।
विभिन्न विषयों पर पुस्तकों के साथ अपने साहित्यिक योगदान के साथ, बीकानेर, कश्मीर तथा पटियाला की रियासतों का प्रतिनिधित्व करने में एक अधिकारी के रूप में उनकी भूमिका, संविधान सभा में उनकी सक्रिय भागीदारी तथा चीन, मिस्र तथा फ्रांस में स्वतंत्रता के बाद भारत के राजदूत के रूप में, तथा बाद में 1956 में राज्यसभा तथा राज्य पुनर्गठन आयोग के मनोनीत सदस्य के रूप में एक राजनीतिक क्षमता में उनकी छोटी लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका ने महत्वपूर्ण विरासत छोड़ दी है जिसे पुनः याद करने की आवश्यकता हैं।
पाणिकर ने भारत की सुरक्षा के लिए प्रासंगिकता के तौर पर एक सुप्रामित तथा प्रभावी नौसैनिक नीति की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने लिखा "सोलहवीं शताब्दी के पहले दशक में समुद्र की कमान गंवाने तक भारत ने कभी अपनी स्वतंत्रता नहीं खोई। पाणिकर की उनकी विचार प्रक्रियाओं के हम ऋणी है। देश की सामरिक गणना में महाद्वीपीय मानसिकता के साथ पहले के पूर्व कब्जे से अब महाद्वीपीय तथा समुद्री के बीच देश के रणनीतिक हलकों में धीरे-धीरे संतुलन बढ़ रहा है क्योंकि हिंद महासागर भारत की विदेश नीति की प्राथमिकताओं में से एक है।
इस दो दिवसीय वर्चुअल सम्मेलन का उद्देश्य भारत के नौवहन अतीत की बेहतर समझ, भारत की नौवहन रणनीति के विकास तथा हिंद महासागर क्षेत्र में उभरते भू-राजनीतिक समीकरणों को व्यापक हिंद-प्रशांत क्षेत्र के विस्तारित नौवहन भूगोल तथा भारत के लिए इसके प्रभावों के संदर्भ में पाणिकर के कार्यों की प्रासंगिकता सहित अन्य मुद्दों पर विचार करने के लिए विदेशी तथा भारतीय विशेषज्ञों और विद्वानों को एक साथ लाना है।
इस सम्मेलन को तैयार करने में कई विद्वानों ने हमारी काफी मदद की- जेएनयू के पूर्व प्रो.तथा राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण के पूर्व अध्यक्ष हिमांशु प्रभा रे , जेएनयू के प्रो. पियस मल एकांथिल, कालीकट के डॉ के.एम सेथी, डॉ विजय सलूजा, आईसीडब्ल्यूए की कार्यक्रम समिति के अध्यक्ष डॉ संजय बारू, तथा एनयूएस सिंगापुर के प्रो ज्ञानेश कुडेसिया।
आईसीडब्ल्यूए में पाणिकर के स्थायी योगदानों में से एक विशिष्ट विषयों का अध्ययन करने के लिए अंतःविषय प्लेटफार्म बनाने का विचार था। प्राचीन तथा आधुनिक इतिहास के इतिहासकारों, नौसेना और भू-राजनीतिक विश्लेषकों तथा अन्य लोगों को एक साथ लाकर यह संगोष्ठी उस आवेग पर निर्माण करना चाहती है।
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