1. वैश्विक मामलों की भारतीय परिषद् ने दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के साथ मिलकर ‘नारी एवं शक्ति: अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और कूटनीति में जेंडर’ विषय पर दो दिवसीय वेबिनार का आयोजन किया। सम्मेलन में भारत और विदेश से कुल 22 वक्ता थे। वक्ताओं ने शिक्षाविदों, नीति निर्माताओं, राजनयिकों और विशेषज्ञों के एक बहु-अनुशासनात्मक समूह का गठन किया।
2. वेबिनार के पांच सत्रों और एक पैनल चर्चा के दौरान विमर्श के प्रमुख विषयों में शामिल हैं:
3. वेबिनार की शुरुआत आईसीडब्ल्यूए के महानिदेशक, डॉ. टीसीए राघवन की परिचयात्मक टिप्पणियों के साथ हुई। उन्होंने कहा कि आईआर के भीतर आईसीडब्ल्यूए के जनादेश के हिस्से के रूप में जेंडर और कूटनीति के विचार पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। यह आज भारत में महिलाएं और विकास, महिलाएं और राजनीति तथा भारत में महिलाओं के लिए उपलब्ध स्थान के बारे में चर्चा के एक अनिवार्य परिणाम के रूप में सामने आया है। वेबिनार का उद्देश्य इस बात पर चर्चा करना है कि जेंडर के विचार को अंतर्राष्ट्रीय संबंधों द्वारा किस तरह आकार दिया जाता है, तथा भारतीय विदेश नीति के संबंध में कूटनीतिक एजेंडे में जेंडर कहाँ बैठता है। लैंगिक समानता का विचार नारीवादी विदेशी नीतियों के दिल में निहित है, जिसे नेतृत्व के पदों पर महिलाओं के बढ़ते प्रतिनिधित्व तथा जेंडर के प्रति संवेदनशील विदेश नीति के द्वारा जब्त कर लिया गया है और जो लैंगिक असमानता को कम करने में योगदान देता है। विकास साझेदारी या सहायता बजट का जेंडर संवेदनशील उपयोग नारीवादी विदेश नीति का केवल एक उदाहरण है जो वर्तमान में काम कर रहा है। उनकी टिप्पणी के बाद सामाजिक विज्ञान संकाय, अंतर्राष्ट्रीय संबंध विभाग, दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एवं डीन, प्रो. संजय चतुर्वेदी ने परिचयात्मक टिप्पणियाँ कीं। वैश्विक परिवर्तन के लंबे इतिहास में निरंतरताओं के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा कि व्यापक पितृसत्तात्मक समाजों, संरचनाओं और अर्थव्यवस्था के भीतर जेंडर लगातार एक एक ऐसी ही निरंतरता बना हुआ है। सम्मेलन के विषय और उपविषय अंतर्राष्ट्रीय संबंध विभाग, एसएयू के लिए शिक्षण और शोध दोनों की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और ये विश्वविद्यालय के सीमाओं के बिना ज्ञान के सम्पूर्ण मिशन को पूरा करते हैं।
4. अपने शुरूआती बयान में पूर्व सहायक महासचिव, यूएन तथा उप कार्यकारी निदेशक, यूएन वीमेन, राजदूत लक्ष्मी पुरी ने कहा कि, संयुक्त राष्ट्र@75 की सबसे बड़ी उपलब्धि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में लैंगिक समानता मानदंडों और लैंगिक बहस के तौर पर है। इसे तार्किक निष्कर्ष पर ले जाने का श्रेय "व्यक्तिगत राजनीतिक है" की नारीवादी उक्ति को दिया जा सकता है। यह लैंगिक समानता और महिला सशक्तीकरण (जीईडब्ल्यूई GEWE) पर वैश्विक मानदंडों को शामिल करने तथा राष्ट्रीय नीतियों में महिलाओं के मानवाधिकारों पर तो सबसे अधिक प्रभावशाली रहा ही है, साथ ही सदस्य राज्यों की कूटनीति और विदेश नीति में भी इसका प्रभाव रहा है। 2010 में इसके निर्माण के बाद से ही, यूएन वीमेन नए अंतर्राष्ट्रीय नारीवादी क्रम का आधार बन गया है। इसने शक्ति के पुंज- यूएन वीमेन केंद्रित लैंगिक समानता वैश्विक शासन और संस्थागत वास्तुकला- के निर्माण को आगे बढ़ाने की मांग की है। यह इतिहास में किसी भी अन्य की तुलना में जीईडब्ल्यूई को बढ़ावा देने के लिए कहीं अधिक एकीकृत, मजबूत, बहु-क्षेत्रीय और सुसज्जित है। यह महिला मामलों के मंत्रालयों के बीच सशक्तिकरण और संवाद के लिए एक धुरी है और विदेशी मंत्रालयों सहित सार्वजनिक और निजी सभी प्रमुख संस्थानों को शामिल करने के लिए एक उत्प्रेरक है। उन्होंने भारतीय विदेश नीति में लैंगिक समानता के एजेंडे को आगे बढ़ाने तथा आईआर और संयुक्त राष्ट्र के संचालन के लिए उत्कृष्टता के 6 गुणों को रेखांकित किया- शक्ति, बल, वीर्यम, ऐश्वर्य, सर्वज्ञान, तेजस।
5. वेबिनार के पहले सत्र का शीर्षक "जेंडर बहस, आईआर और कूटनीति" था जिसकी अध्यक्षता राजदूत लक्ष्मी पुरी ने की। इस सत्र में तीन वक्ता शामिल थे– डॉ. नबीला सादिक, सहायक प्रोफेसर, सरोजिनी नायडू सेंटर फॉर वुमेन स्टडीज़, जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली; डॉ. सीमा नारायण, एसोसिएट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, देशबंधु कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय; और डॉ. सौमिता बसु, सहायक प्रोफेसर, आईआर विभाग, दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय। सत्र में विभिन्न नारीवादी सिद्धांतों तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों की समझ पर उनके प्रभाव पर चर्चा की गई। इसने बताया कि नारीवादियों ने जेंडर को अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के केंद्र में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शीत युद्ध के बाद के सामाजिक, आर्थिक, विकासात्मक और पहचान के मुद्दों के प्रसार ने नारीवादी विद्वानों को यह सवाल उठाने के लिए प्रेरित किया, "महिलाएं कहां हैं?" इसने एक बहुपक्षीय निकाय के रूप में यूएनएससी के नारीवादी पठन के पहलू और पुरुष एवं महिला प्रतिनिधियों के अनुपात को भी देखा। यहां तक कि जब प्रतिनिधियों के रूप में महिलाओं का उच्च अनुपात रहा है, जैसे कि 2014 में छह महिलाओं का स्थायी प्रतिनिधि के रूप में होना, तो भी यह सवाल बना हुआ है कि क्या परिषद में महिलाओं की महत्वपूर्ण सामूहिकता के कारण विवेचना अलग-अलग तरह से हुई है।
6. ‘जेंडर तथा अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार विमर्श’ के दूसरे सत्र की अध्यक्षता जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल, सोनीपत में एसोसिएट प्रोफेसर, सौम्या उमा ने की। सत्र के अन्य दो वक्ताओं में प्रोफेसर आशा हंस, पूर्व प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान और महिला अध्ययन, उत्कल विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर; तथा डॉ. ओशिक सिरकार, एसोसिएट प्रोफेसर, जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल, सोनीपत, एसोसिएट सदस्य, अंतर्राष्ट्रीय कानून एवं मानविकी संस्थान, मेलबर्न लॉ स्कूल, ऑस्ट्रेलिया, शामिल थे। इस सत्र में भारत में जेंडर तथा मानवाधिकार विमर्श के पहलुओं पर चर्चा हुई; यह लोगों पर केंद्रित होने के बजाय संस्थाकेंद्रित क्यों है; साथ ही भारत में महिला मानवाधिकार विमर्श के सामने आने वाली चुनौतियाँ, तथा जमीनी स्तर पर मानवाधिकार मानकों के कार्यान्वयन में विभिन्न चुनौतियाँ।
7. ‘जेंडर, विकास तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों’ पर तीसरे सत्र की अध्यक्षता बिल एवं मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी, लैंगिक समानता, सुश्री सुभलक्ष्मी नंदी द्वारा की गई। वक्ताओं में कंबोडिया में भारत की राजदूत देवयानी खोबरागड़े; ‘इनिशिएटिव फॉर व्हाट वर्क्स टू एडवांस वुमन एंड गर्ल्स इन द इकॉनोमी (IWWAGE) की प्रिंसिपल इकोनॉमिस्ट डॉ. सोना मित्रा; प्रो. सबिहा हुसैन, निदेशक, सरोजिनी नायडू सेंटर फॉर वुमेन स्टडीज़, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, शामिल थीं, जिनका पत्र डॉ. दीपिका सारस्वत, रिसर्च फेलो, इंडियन काउंसिल ऑफ वर्ल्ड अफेयर्स द्वारा पढ़ा गया; साथ ही एडवांस्ड सेंटर फॉर वुमेन स्टडीज, स्कूल ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज, टीआईएसएस, मुंबई कैंपस की प्रो. विभूति एन. पटेल, प्रोफेसर (सेवानिवृत्त), भी इसमें मौजूद थीं। सत्र ने जेंडर और विकास के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला, जिसका 1995 के बीजिंग घोषणापत्र में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का एक विशेष इतिहास है। इसमें जेंडर को एक मुख्य धारा के मुद्दे के रूप में देखने के लिए स्वीकार किया गया था, जो कि सहायता, व्यापार या अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा में हो सकता है। पिछले 50 वर्षों की नारीवादी सक्रियता ने 5000 वर्षों के पितृसत्तात्मक आदेश को चुनौती दी है, व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के खिलाफ हिंसा और भेदभाव के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूपों को ढहाकर, औरतों के शोषण और उत्पीड़न, उनकी अधीनता तथा पराजयता पर प्रहार करके तथा परिवार, रिश्तेदारी, संगठित धर्म, मीडिया और राज्य के भीतर पुरुष वर्चस्व पर सवाल खड़े करके।
8. ‘जेंडर, सुरक्षा एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंधों’ के चौथे सत्र की अध्यक्षता सरदार वल्लभ भाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी की पूर्व निदेशक सुश्री अरुणा बहुगुणा ने की। वक्ताओं में डॉ. स्वाति पाराशर, निदेशक, गोथेनबर्ग सेंटर फॉर ग्लोबलाइजेशन एंड डेवलपमेंट, एसोसिएट प्रोफेसर, शांति एवं विकास, स्कूल ऑफ ग्लोबल स्टडीज, यूनिवर्सिटी ऑफ गोथेनबर्ग, स्वीडन; डॉ. स्वर्णा राजगोपालन, संस्थापक और प्रबंध न्यासी, प्रज्ञा ट्रस्ट, चेन्नई; डॉ. श्वेता सिंह, वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर, आईआर विभाग, दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय; और डॉ. शालिनी चावला, प्रतिष्ठित फेलो, सेंटर फॉर एयर पावर स्टडीज, नई दिल्ली शामिल थे। चर्चा यूएनएससी के प्रस्ताव 1325 पर केंद्रित रही जो सबसे अधिक शोधपरक और तर्कपूर्ण है। इसे लेकर वैश्विक तौर पर उत्साह है। आईआर में जेंडर मुद्दे को संबोधित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा कई अन्य प्रयास किए गए हैं। सत्र में इस बात पर चर्चा की गई कि लैंगिक समानता और लैंगिक न्याय कैसे अलग हैं; तथा कैसे ग्लोबल साउथ को खुद को ग्लोबल डब्ल्यूपीएस एजेंडा में मजबूत करने की जरूरत है।
9. ‘जेंडर, संस्कृति एवं हलकी शक्तियां’ पर आधारित पांचवें सत्र की अध्यक्षता पूर्व प्रमुख, महिला अध्ययन केंद्र, पूर्व प्रमुख, इतिहास विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय की प्रोफेसर रेखा पांडे ने की। वक्ताओं में प्रो. पुष्पेश कुमार, प्रोफेसर, समाजशास्त्र विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय; श्री अजीत कुलश्रेष्ठ, अतिरिक्त महानिदेशक (सेवानिवृत्त), केंद्रीय रिजर्व पुलिस; पूर्व महानिरीक्षक, रैपिड एक्शन फोर्स (RAF); तथा अपर्णा रायपरोल, प्रोफेसर, समाजशास्त्र विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, शामिल थे। सत्र में चर्चा की गई कि संस्कृति कैसे एक विशिष्ट सामग्री, आध्यात्मिक, बौद्धिक, तथा भावनात्मक विशेषता है जो एक सामाजिक समूह को चिह्नित करती है। यह लोगों के आपसी संवाद का एक उत्पाद भी है। यह दमनकारी हो सकता है लेकिन स्वाधीन भी हो सकता है। यह सशक्त कर सकता है और नि:शक्त भी। शिक्षा हमें अनुकूलन के लिए सुसज्जित करती है, क्योंकि संस्कृति लचीलेपन और अपने अनुकूल स्वभाव के कारण जीवित रह सकती है। नारीवाद की परंपरा- शक्ति- भारतीय मूल्यों और आदर्शों में अंतर्भूत है।
10. अंतिम सत्र ‘पारंपरिक भूमिकाएं एवं अवरोध पर पैनल चर्चा’ पर आधारित था। इसकी अध्यक्षता भारत की पूर्व विदेश सचिव निरुपमा मेनन राव ने की। पैनल में डॉ. ज्ञानेश कुदैसिया, एसोसिएट प्रोफेसर, दक्षिण एशियाई अध्ययन कार्यक्रम, नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर; सुश्री निरुपमा सुब्रमण्यन, संपादक, इंडियन एक्सप्रेस; सुश्री रूही नेग, निदेशक, शांति एवं संघर्ष अध्ययन संस्थान, नई दिल्ली; तथा डॉ. राजेश्वरी राजगोपालन, प्रतिष्ठित फेलो तथा न्यूक्लियर एंड स्पेस पॉलिसी इनिशिएटिव की प्रमुख, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली, शामिल थीं। पैनलिस्टों ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों, मीडिया, कूटनीति और अनुसंधान के अभ्यास जैसे विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के योगदान के महत्व को दोहराया। इसने रेखांकित किया कि संगठन स्तर पर विशेषाधिकार और पहुंच अधिक प्रासंगिक हो जाती है जो अभी अत्यधिक बहिष्कृत और अभिजात्यवादी है। जिसके कारण, महिलाओं के लिए बौद्धिक विच्छेदन की संभावना उच्च है।