प्रतिवेदन
संगोष्ठी
बदलते आर्कटिक के साथ भारत का जुड़ाव
04 मार्च 2020, सप्रू हाउस
उद्घाटन सत्र
डॉ. टी.सी.ए. राघवन, महानिदेशक, विश्व मामलों की भारतीय परिषद (आईसीडब्ल्यूए) ने अतिथियों का स्वागत करते हुए आईसीडब्ल्यूए के इतिहास और देश में विदेश नीति विवादों के विस्तार पर इसके जनादेश के बारे में बताया। संगोष्ठी के विषय पर व्याख्या देते हुए, उन्होंने कहा कि समकालीन परिध्रुवीय आर्कटिक को तीन सक्रिय विषयों: भूसामरिक, भू-अर्थव्यवस्था और जलवायु परिवर्तन के चौराहे पर स्थानांतरित किया जा रहा है। इस क्षेत्र के साथ भारत का जुड़ाव बहुत महत्व रखता है क्योंकि यह आर्कटिक परिषद में एक प्रेक्षक राज्य है। उन्होंने कहा, ये संगोष्ठी इस क्षेत्र की गंभीर और स्थायी रूचि की खोज करने में सुविधा प्रदान करेगा।
श्री सुरेश रेड्डी, अपर सचिव (यूरोप), विदेश मंत्रालय (एमईए), भारत सरकार (जीओआई) ने अपनी टिप्पणी में कहा कि आर्कटिक के साथ भारत का जुड़ाव 100 साल पुराना है। उन्होंने कहा कि आर्कटिक के इर्दगिर्द के विचार-विमर्श मुख्य रूप से इन पांच मुद्दों पर केंद्रित हैं: आर्थिक और वाणिज्यिक, वैज्ञानिक अनुसंधान, भू-रणनीतिक, व्यापार, जलवायु परिवर्तन और कानूनी प्रशासन। उन्होंने आर्कटिक में होने वाले मूलभूत परिवर्तनों के बारे में भी बताया जो भारत के लिए प्रत्यक्ष रूप से प्रासंगिकता रखता है। उन्होंने यह भी कहा कि आर्कटिक में संप्रभु अधिकारों और क्षेत्राधिकार के संबंध में आर्कटिक राज्यों के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा भारत के लिए रुचि का विषय है। उन्होंने निष्कर्ष निकालते हुए कहा कि भारत केवल इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकता है कि आर्कटिक अवसरों की भूमि बन गई है जिसमें संसाधन शोषण और संचार के नए समुद्री मार्गों का बढ़ता सामरिक महत्व शामिल है।
डॉ. विजय कुमार, वैज्ञानिक जी और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सलाहकार, भारत सरकार ने उन अध्ययनों पर विस्तार से बताया जो आर्कटिक के बदलावों और भारत के मानसून पैटर्न के बीच के संबंध को सुचित्रित ढंग से उजागर करता है। उन्होंने कहा कि आर्कटिक की चुनौतियां किसी एक देश की चिंताओं से परे हैं और सामूहिक प्रयासों को आमंत्रित किया। उन्होंने आर्कटिक को लेकर एक परिप्रेक्ष्य विकसित करने की आवश्यकता पर जोर दिया जिसमें आर्कटिक सर्कल से परे देशों के विचार शामिल हैं, क्योंकि आर्कटिक एक जटिल प्रणाली है जिसकी निगरानी करना कठिन है। भारत परिध्रुवीय आर्कटिक के साथ गंभीर वैज्ञानिक जुड़ाव के लिए प्रयोगशाला स्थापित करने हेतु प्रतिबद्ध है।
महामहिम श्रीमान ओलाफुर रगनार ग्रिम्सन ने 33 वां सप्रू हाउस व्याख्यान दिया।
उन्होंने कहा कि आर्कटिक के साथ भारत का जुड़ाव सैकड़ों साल पुराना है जब भारत ने फरवरी 1920 में स्वालबार्ड संधि पर हस्ताक्षर किया था। भारत का भविष्य काफी हद तक आर्कटिक में होने वाले घटनाक्रमों से तय होगा। इसलिए, एक-दूसरे की चिंताओं को गहराई से समझने की आवश्यकता है। शीत युद्ध ने यह सुनिश्चित किया था कि यह क्षेत्र दुनिया के लिए बंद हो जाए और केवल पिछले 20 वर्षों में ही ग्रह का यह बड़ा हिस्सा बहुआयामी राजनयिक, वैज्ञानिक, राजनीतिक और आर्थिक सहयोग के लिए खुला है।
उन्होंने बताया कि सात साल पहले आर्कटिक परिषद ने भारत, चीन और अन्य देशों को इसके प्रेक्षक राज्यों के रूप में स्वीकार किया था। उन्होंने इन देशों को “क्रिया राज्य” कहा, न कि केवल प्रेक्षक राज्य। आर्कटिक क्षेत्र ऊर्जा संसाधनों जैसे कि तेल, गैस, जलविद्युत, समुद्री संसाधनों, खनिजों और धातुओं से समृद्ध है। जी20 के अधिकांश देश यहाँ के सक्रिय खिलाड़ी हैं और इस क्षेत्र में बड़ी भू-राजनीतिक और आर्थिक रूचि रखते हैं।
आर्कटिक क्षेत्र के बढ़ते भूराजनीतिक और भूरणनीतिक महत्व पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि ऊर्जा की अनिवार्यता ने चीन और रूस को ‘सर्बिया की शक्ति’, 8500 किलोमीटर लंबी गैस पाइपलाइन का विकास करने के लिए प्रेरित किया है। भारत और रूस भी आर्कटिक ऊर्जा संसाधनों में व्यापार और निवेश को गहराने के लिए तैयार हैं। आर्कटिक में भविष्य की भारत-चीन-रूस त्रिकोणीय सहयोग की संभावनाओं की तलाश की जा सकती है। उन्होंने कहा कि आर्कटिक महासागर वह स्थान है जहाँ अनेकों चुनौतियों के बावजूद उत्तरी समुद्री मार्ग, उत्तर-पश्चिम पैसेज और सेंट्रल आर्कटिक जैसे नए समुद्री लेन/ मार्ग विकसित होंगे। इस मार्ग से माल यूरोप से एशिया तक शीघ्र पहुँच सकेगा, इसमें लगभग दस दिनों का कम समय लगेगा।
उन्होंने जोर देकर कहा कि आर्कटिक केवल संसाधनों और आर्थिक अवसरों के बारे में नहीं है, बल्कि जलवायु परिवर्तन और मौसमी स्वरूपों के बारे में भी है। यहां तक कि समुद्र-स्तर में 2-मीटर की वृद्धि विश्व भर में, विशेष रूप से भारत और अन्य दक्षिण एशियाई राज्यों, जहाँ की तटरेखाओं में घनी आबादी बसती है, के लिए गंभीर परिणाम उत्पन्न कर सकता है।
उन्होंने तृतीय ध्रुव-हिमालयी क्षेत्र के महत्व पर जोर दिया क्योंकि लगभग 1.65 बिलियन लोगों अपने भोजन और आर्थिक सुरक्षा के लिए इसकी नदी प्रणालियों पर निर्भर करते हैं। एशिया के लोगों पर तृतीय ध्रुव पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की गहरी समझ होना एक मूलभूत आवश्यकता है। आर्कटिक मॉडल एक संरचना प्रदान करता है जिसे अपनाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि यह एक ऐसा मॉडल था जिसने विज्ञान, अनुसंधान और प्रौद्योगिकी के साथ-साथ वार्ताओं के प्रजातंत्रीकरण को भी संयोजित किया है।
उसके बाद चर्चा हुई जिसमें आर्कटिक परिषद के कार्यों और परिध्रुवीय आर्कटिक सहयोग में स्वदेशी लोगों के महत्व पर गहन चर्चा की गई। श्री ग्रिम्सन ने इंगित किया कि आर्कटिक के विकास के लिए राज्यों द्वारा योजनाओं को लागू करना आरम्भ करते हुए इस क्षेत्र के लोगों से परामर्श करने की आवश्यकता है। उन्होंने चीन की बढ़ती भूमिका के बारे में भी बताया और कहा कि चीन की तरह भारत को भी भविष्य के बारे में सोचने और आर्कटिक में अपनी गतिविधियों की योजना बनाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि भारत को आर्कटिक परिषद और आर्कटिक से संबंधित अन्य बहुपक्षीय मंचों में सक्रिय रुचि लेने और इसकी सभी गतिविधियों में भाग लेने की आवश्यकता है। उन्होंने आगे कहा कि भारत को एक आर्कटिक नीति विकसित करने की आवश्यकता है क्योंकि निकट भविष्य में आर्कटिक देश आर्कटिक एजेंडे को भारत के साथ अपनी द्विपक्षीय साझेदारी का एक हिस्सा बना सकते हैं।
सत्र एक: आर्कटिक वैज्ञानिक सरहदें: क्षेत्रीय एवं वैश्विक महत्व
सम्मेलन का पहला सत्र आर्कटिक के वैज्ञानिक सरहदों और उनके वैश्विक तथा क्षेत्रीय महत्व पर केन्द्रित था। सत्र के अध्यक्ष के रूप में अपनी क्षमता में, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज (एनआईएएस) के डॉ. शैलेश नायक ने अपना उद्घाटन भाषण दिया। उन्होंने कहा कि कैसे आर्कटिक दुनिया के मौसमी स्वरूपों के साथ गहराई से जुड़ा है और भारत के लिए आर्कटिक के महत्व पर बल दिया।
अगली प्रस्तुति डॉ. कृष्णन के.पी. ने दी जिन्होंने आर्कटिक में भारत के वैज्ञानिक प्रयासों पर व्याख्यान दिया। उनकी प्रस्तुति ने आर्कटिक के साथ भारत के जुड़ाव का अवलोकन प्रदान किया। उन्होंने कहा कि भारत ने 2007 में आर्कटिक के साथ अपने जुड़ाव की शुरुआत की थी। भारत ने 2008 में इंटरनेशनल आर्कटिक रिसर्च बेस, न्यालेसैंड, स्वालबार्ड, नॉर्वे में अपना पहला शोध केंद्र हिमाद्री खोला था। तब से आर्कटिक में भारत की दिलचस्पी लगातार बढ़ी है। अब तक लगभग 400 वैज्ञानिक आर्कटिक का दौरा कर चुके हैं और हिमाद्री के शोध से लगभग 100 शोध प्रकाशन निकल चुके हैं। भारत सक्रिय रूप से आर्कटिक परिषद के कार्य समूहों में भाग लेता रहा है। आर्कटिक अनुसंधान के क्षेत्र में भारत की प्राथमिकताएं हैं: समुद्री जैविक अनुसंधान, जलवायु परिवर्तन अध्ययन के लिए दीर्घकालिक अनुविक्षा और वैश्विक जलीय चक्र पर आर्कटिक का प्रभाव आदि। डॉ. कृष्णन ने कहा कि भारत के शैक्षणिक संस्थानों और राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं महासागर अनुसंधान संस्थान के बीच सहयोग आर्कटिक पर अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए उपयोगी होगा।
डॉ. कृष्णन की प्रस्तुति के बाद, प्रो ए.ए. मोहम्मद हत्था, जो समुद्री जीव विज्ञान, सूक्ष्मजैविकी, जैव रसायन, कोचीन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कोचीन से हैं, ‘तेजी से गर्म होता आर्कटिक और फ्योर्ड और टुन्ड्रा क्षेत्र पर इसका प्रभाव’ पर प्रस्तुति दी। उनकी प्रस्तुति विशेष रूप से सूक्ष्मजीव समुदायों पर केंद्रित थी। प्रो. हत्था के अनुसार, आर्कटिक में समुद्री बर्फ की हानि प्रजातियों के एकत्रीकरण और परस्पर-क्रियाओं को प्रभावित करता है। यह समुद्री स्तनधारी जीवों की आवाजाही को भी प्रभावित करता है। इसलिए, ध्रुवीय भालू और पिनिपेड के लिए, जीवित रहने संघर्ष काफी बढ़ गया है। जलवायु परिवर्तन के एक फलक के रूप में सूक्ष्मजीवों की गतिविधियों पर अनुसंधान, फ्योर्ड क्षेत्र को बेहतर ढंग से समझने में योगदान करता है। यह क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के दीर्घकालिक प्रभाव की अनुविक्षा में भी मदद करता है। उन्होंने यह भी कहा कि विशेष रूप से अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के साथ सहयोगात्मक शोध, आर्कटिक के बेहतर समझ और क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को समझने के लिए उपयोगी साबित होगा।
प्रो. हत्था की प्रस्तुति के बाद, डॉ. डेविड मोल्डन, जो कि काठमांडू स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) के महानिदेशक हैं, ने हिंदू कुश हिमालय (एचकेएच) क्षेत्र के बारे में बताया और समझाया कि कैसे आर्कटिक से प्राप्त सीख को इस क्षेत्र के लिए भी अपनाया जा सकता है। एचकेएच क्षेत्र भोजन, पानी और ऊर्जा के लिए एक वैश्विक संपत्ति रहा है। इसमें एशिया की 10 प्रमुख नदी प्रणाली शामिल हैं और इस क्षेत्र में लगभग 240 मिलियन लोग रहते हैं। यह क्षेत्र सांस्कृतिक, भाषाई और जैविक विविधता के मामले में समृद्ध है। हालांकि, क्षेत्र नाजुक है और जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों से ग्रस्त है। यह क्षेत्र खाद्य असुरक्षा, ऊर्जा दरिद्रता और बाह्य-प्रवासन की उच्च दर जैसी चुनौतियों से ग्रस्त है। आर्कटिक की तरह, एचकेएच क्षेत्र भी जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है और पहले से ही ग्रह के अन्य हिस्सों की तुलना में तेजी से जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव का सामना कर रहा है। डॉ. मोल्डन ने क्षेत्र से संबंधित ज्ञान और डेटा को अधिक से अधिक साझा करने का बहस की। उन्होंने यह भी कहा कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.50 सेल्सियस तक सीमित करने का प्रयास किया जाना चाहिए।
प्रश्न और उत्तर (क्यू एंड ए) सत्र के दौरान की गई चर्चा विशेष रूप से हिमालय क्षेत्र का अध्ययन करने की आवश्यकता पर केन्द्रित थी क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमनदियां पिघल रही हैं। चर्चा में भारत द्वारा जलवायु परिवर्तन और बदलते मौसमी स्वरूपों, भारतीय मानसून और हिमालय के बीच संबंधों का और अधिक अध्ययन करने की आवश्यकता पर भी ध्यान दिया गया।
सत्र II: आर्कटिक का भू-सामरिक महत्व
सत्र के अध्यक्ष, श्री आर. आर. रश्मि ने आर्कटिक महासागर में परिवर्तन के भू-सामरिक निहितार्थों पर चर्चा करके सत्र का उद्घाटन किया और सभी का ध्यान जलवायु परिवर्तन पर अंतर-शासकीय पैनल (आईपीसीसी) की रिपोर्ट की ओर आकर्षित किया, जिसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मुद्दे पर चर्चा की गई थी। उन्होंने उल्लेख किया कि आर्कटिक में परिवर्तन का दर निकट भविष्य में कम नहीं होने वाली है; वास्तव में, यह 21 वीं सदी के उत्तरार्ध में तेजी पकड़ने वाली है। इसके निहितार्थ अत्यंत महत्वपूर्ण और बहुत दूरगामी हैं। उनके अनुसार, तीन बिन्दुएँ हैं: पर्यावरण, अर्थव्यवस्था और रणनीति जो आर्कटिक क्षेत्र में परिवर्तनों के भू-सामरिक निहितार्थों को दर्शाते हैं। जहां तक पर्यावरणीय दृष्टिकोण का संबंध है, यह स्पष्ट है कि ये परिवर्तन अपरिवर्तनीय हैं और मानव जाति पर इसके प्रभाव को न केवल आर्कटिक में बल्कि दुनिया भर में महसूस किया जाएगा। इन परिवर्तनों और पृथ्वी प्रणालियों और मानव प्रणाली पर उनके प्रभाव को देखते हुए, यह सवाल कि अंतर्राष्ट्रीय संगठन क्या कर सकते हैं, महत्वपूर्ण बन जाता है। आर्कटिक राज्यों ने जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में इन प्रभावों को संबोधित करने और उन्हें कम करने के लिए आर्कटिक परिषद का गठन किया है, लेकिन अभी बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है। दूसरा मुद्दा उन प्रभावों से संबंधित है जो आर्थिक गतिविधियों पर होगा। उन्होंने आगे बताया कि हाल के दिनों में आर्कटिक सर्कल में जो परिवर्तन हुए हैं, उन्हें देखते हुए आर्थिक गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता बढ़ रही है। आर्थिक प्रगति और पारिस्थितिक संरक्षण को साथ-साथ आगे बढ़ाया जा सकता है। इन परिवर्तनों के साथ कई आर्थिक अवसर हमारे समक्ष प्रकट हो सकते हैं, जैसे कि खनन में वृद्धि, तेल की खोज की वृद्धि और नए पोत मार्गों का खुलना आदि। लेकिन इसके साथ ही नई चुनौतियाँ भी सामने आएंगी। आर्कटिक क्षेत्र ऊर्जा भंडार का एक बहुत बड़ा स्रोत बनकर उभर रहा है, और भारत को इन क्षेत्रों और संबंधित संसाधन शासन व्यवस्था में निवेश शुरू करना चाहिए। उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि आर्कटिक में जलविद्युत की संभावना भी अधिक है, जिसके क्षेत्र के लिए सामरिक निहितार्थ हैं। अंत में, सामरिक आयाम के तहत, उन्होंने उल्लेख किया कि नई साझेदारी विकसित होने की संभावना है, जिससे सैन्यकरण हो सकता है।
कैप्टन सरबजीत परमार ने आर्कटिक में संघर्ष और सहयोग दोनों की संभावनाओं पर चर्चा करते हुए शुरुआत की। उन्होंने कहा कि संघर्ष का मतलब बल प्रयोग से नहीं है। विभिन्न प्रकार के संघर्ष हैं। आर्थिक संग्राम एक ऐसी चीज है जो आज महत्वपूर्ण हो गया है। एक और शब्द जिसे प्रमुखता मिली है, वह है ‘लॉफेयर’ जो कानून और संग्राम का मिश्रण है; और यह मुद्दा आने वाले समय में आर्कटिक के एजेंडे को हड़प सकता है। उनके अनुसार, वैश्विक चिंताओं वाले रूचि के क्षेत्र हैं: वैज्ञानिक अनुसंधान, संसाधनों की दौड़, पर्यटन, समुद्री दावे, समुद्री मार्ग, अंतर्राष्ट्रीय कानून, बहुपक्षवाद और राष्ट्रीय नीतियां। आर्कटिक क्षेत्र के साथ भारत के जुड़ाव को मजबूत करने के लिए, ऐसी नीति को अपनाने की आवश्यकता है जो विभिन्न आर्कटिक राज्यों के साथ द्विपक्षीय संबंधों/ समझौतों को व्यापक और गहरा बनाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत यहां पर सामरिक संबंध विकसित करने में पीछे नहीं रहना चाहता है। ये संबंध आर्कटिक से परे जाते हैं और वे हमारे किनारों तक आते हैं। उन्होंने आगे उल्लेख किया कि वैज्ञानिक अनुसंधान के माध्यम से, हम आर्कटिक परिषद में एक प्रेक्षक राज्य के रूप में अपने ओहदे को सुदृढ़ बना सकते हैं। सक्रिय रुचि लेना और अन्य देशों के साथ काम करना शुरू करना महत्वपूर्ण है। त्रिपक्षीय साझेदारी के तहत अन्य राष्ट्रों के साथ काम करना भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। आर्कटिक में मछली पकड़ने से कई उपयोगी सबक सीखे जा सकते हैं क्योंकि चीन के बाद भारत दुनिया में मछली का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। किसी भी राष्ट्र के पार्श्वीकरण और अमेरिका-समर्थक/ रूस-समर्थक जाल में फंसने से बचना होगा। अंत में, उन्होंने कहा कि पर्यटन सॉफ्ट पॉवर के पदचिह्न का विस्तार करेगा, जो आर्कटिक में हमारी उपस्थिति और उद्देश्यों के बारे में जनता को शिक्षित करने में मदद कर सकता है। इस प्रकार, पूरे देश को इसमें शामिल करने की आवश्यकता है।
सत्र के अंतिम वक्ता श्री एच.पी. राजन थे, जिन्होंने आर्कटिक महासागर में संप्रभु अधिकारों को निरूपित करने के बारे में कहा। उन्होंने दो विशिष्ट मुद्दों को उठाया: पहला, जलवायु परिवर्तन के मुद्दे से अलग आर्कटिक का पिघलना अनिवार्य रूप से नए समुद्री मार्गों को सामने लाता है। इसलिए, भारी आर्थिक लाभ और संसाधनों की संभावना है। आर्कटिक के पिघलने को एक आर्थिक वरदान भी माना जा सकता है, जो संसाधनों से संबंधित संप्रभुता के मुद्दों को उठाता है, और अनिवार्य रूप से क्षेत्र पर संघर्ष से संबंधित मुद्दों को नहीं उठाता है। दूसरे, उन्होंने विज्ञान पर ध्यान केंद्रित किया क्योंकि वैज्ञानिक सहयोग के बारे में बहुत बातें की जा रही हैं। उन्होंने कानूनी दृष्टिकोण से आर्कटिक महासागर का विश्लेषण किया और कहा कि यह क्षेत्र किसी अन्य महासागर की ही तरह है और 1982 का यूनाइटेड नेशन कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ सी (यूएनसीएलओएस III) आर्कटिक महासागर पर भी लागू होता है। अनुच्छेद 234 में केवल एक प्रावधान है जो सुरक्षा खतरों और समुद्री प्रदूषण के कारण विशेष रूप से नौवहन के सन्दर्भ में बर्फ से ढके क्षेत्रों से जुड़ा है। इसके अलावा, उन्होंने उल्लेख किया कि सभी तटीय राज्य अनन्य आर्थिक क्षेत्र के 200 समुद्री मील तक के संप्रभु अधिकारों का आनंद लेते हैं और वे संबंधित प्रावधानों के अनुसार पनडुब्बी क्षेत्रों पर भी संप्रभु अधिकारों का आनंद लेते हैं।
सत्र तीन: बदलते आर्कटिक के साथ भारत का जुड़ाव
सत्र की अध्यक्षता प्रोफेसर संजय चतुर्वेदी, डीन, सामाजिक विज्ञान संकाय, दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय, नई दिल्ली ने की। प्रो. चतुर्वेदी ने अपने शुरुआती संबोधन में कहा कि ‘बदलते आर्कटिक’ की कथा में इस तथ्य का तड़का लगाने की जरूरत है कि आर्कटिक मामलों में उल्लेखनीय निरंतरता रही है। आज, समकालीन आर्कटिक पर कोई एकल कथा नहीं है बल्कि जलवायु परिवर्तन और बढ़ते संसाधन आभाव के युग में कई भू-राजनीतिक, भू-आर्थिक और भू-सामरिक कथाएँ हैं, जो अधिक दृश्यता और ध्यान के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा में हैं। परिध्रुवीय आर्कटिक के साथ भारत के जुड़ाव की प्रमुख कथा के बारे में कहते हुए, यह अपेक्षाकृत हाल की घटना है और यह बड़े पैमाने पर बदलती उत्तरी यूरेशियन भूराजनीति और वैज्ञानिक अनुसंधान/ सहयोग की अनिवार्यता के निहितार्थों के इर्दगिर्द घूमता है। हालांकि, परिध्रुवीय आर्कटिक के साथ भारत के जुड़ाव को अंटार्कटिक के साथ इसके बड़े और पुराने जुड़ाव के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए। आर्कटिक में भारतीय जुड़ाव अपेक्षाकृत नया है और हम वैज्ञानिक ज्ञान, तार्किक अनुभव और नीतिगत अंतर्दृष्टि से बहुत लाभान्वित हो सकते हैं, जो भारत ने 1980 के दशक के प्रारंभ से दक्षिणी ध्रुवीय क्षेत्र के साथ अंटार्कटिक संधि प्रणाली (एटीएस) में सलाहकार सदस्य के रूप में अपने जुड़ाव से अर्जित किया है। इसके अलावा, चूंकि दोनों ध्रुवीय क्षेत्रों तेजी से बढ़ रहे मानव उपयोगों (जैसे कि पर्यटन) और दुरुपयोगों (जैसे कि अवैध असूचित अनियंत्रित रूप से मछली पकड़ना) को विनियमित करने की अनेकों मिलते-जुलते नीति चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, इसलिए एक क्षेत्र में प्राप्त विशेषज्ञताओं और सीखों को दूसरे क्षेत्र में चुनिन्दा तौर पर प्रयुक्त करने पर भी विशेष उपयोगी हो सकते हैं। आर्कटिक की असाधारणता के हानि के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा कि परिध्रुवीय आर्कटिक के 'सामान्यीकरण' की भारी कीमत चुकानी होगी क्योंकि इस क्षेत्र के पारिस्थितिक असाधारणता को अवमिश्रित करने से, अन्य दो ध्रुवों (अंटार्कटिका और हिमालय) की असाधारणता को हानि पहुँचने के साथ-साथ पूरी मानवता के लिए सतत भविष्य की संभावनाओं को काफी हद तक घटा देगा। आज आर्कटिक में प्रकट होने वाले अपरिवर्तनीय परिवर्तनों को देखते हुए, भारत को एक गंभीर और व्यवस्थित जुड़ाव के लिए बहुआयामी नीति तैयार करते हुए, इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि आने वाले समय में आर्कटिक में जो भी होगा उसका भारत और बाकी दुनिया पर सीधा और महत्वपूर्ण प्रभाव होगा।
प्रो. चतुर्वेदी ने आर्कटिक के बारे में पाँच मिथकों के बारे में भी बताया जिसपर 2014 में आर्कटिक पर ग्लोबल एजेंडा काउंसिल में प्रकाश डाला गया था। यदि आलोचना के बिना इसे स्वीकार किया जाता है, तो ये मिथक कई स्तरों पर नीति निर्माताओं द्वारा सामना किए जा रहे जोखिमों और अवसरों को बढ़ा सकते हैं। पहला मिथक, आर्कटिक को एक उजाड़, लावारिस ‘सरहद’ के रूप में चित्रित करके, जो किसी भी नियमन या शासन तंत्र से अछूता है, आर्कटिक होमलैंड्स और समुदायों की वास्तविकता से इनकार किया गया है। इस मिथक पर सवाल उठाते हुए उन्होंने इंगित किया कि मछली पकड़ने, पोत परिवहन, पर्यटन, संसाधन शोषण, वैज्ञानिक अनुसंधान आदि को विनियमित करने के उद्देश्य से चलाई गईं पहल की कोई कमी नहीं है। उदाहरण के लिए, आर्कटिक परिषद स्थानीय और स्वदेशी लोगों की चिंताओं और मांगों को संबोधित करने की दिशा में काम कर रहा है और साथ ही क्षेत्र के लिए सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। दूसरा मिथक यह है कि क्षेत्र की प्राकृतिक संसाधन संपदा विकास के लिए आसानी से उपलब्ध है। उन्होंने कहा कि आर्कटिक का संसाधन मानचित्र अत्यधिक विभेदित है। आर्कटिक संसाधन मानचित्र से किसे क्या, कहाँ, कब और कैसे मिलेगा? इस सवाल का जवाब देना कठिन है। ध्रुवीय वातावरण में संसाधन निकालना एक जटिल और जोखिम भरा उपक्रम है, और इस तरह की परियोजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता होती है, जिसमें विशेष प्रौद्योगिकियों का विकास और पर्यावरण-सामाजिक प्रभाव आंकलन सुनिश्चित करना शामिल है। तीसरा मिथक यह है कि लगातार पीछे हटते और पतले होते समुद्री बर्फ के कारण आर्कटिक नीला पड़ने के बाद यहाँ तक तुरंत पहुंचा जा सकेगा। हम यह आसानी से भूल जाते हैं कि केवल समुद्री बर्फ नौवहन और समुद्री संरचनाओं जैसे कि ड्रिलिंग प्लेटफार्मों के लिए बाधा नहीं है। अन्य चुनौतियों में लंबे समय तक ध्रुवीय अंधेरा, आर्कटिक में परिचालन जहाजों की उच्च लागत, जलमाप चित्रण संबंधी ज्ञान में बड़ी रिक्तियां और कम खोज-और-बचाव क्षमता और संबंधित अवसंरचना शामिल हैं। जो चीज इस मिथक को अधिक चुनौती देती है, वो पर्याप्त नौवहन नियंत्रण प्रणाली का अभाव और उच्च बीमा लागतें हैं। क्षेत्र के बारे में हमें जो जानकारी प्राप्त है वह पर्याप्त नहीं है। उत्तरी समुद्री मार्ग (एनएसआर) और उत्तर-पश्चिम पैसेज (एनडब्ल्यूपी) की अत्यधिक आशिकाना संभावनाओं के बावजूद, उदाहरण के तौर पर सुएज़ नहर की तुलना में बहुत ही छोटा पोत परिवहन मार्ग प्रदान करने में, आर्कटिक पोत परिवहन से जुड़े कुछ प्रमुख जोखिमों में मानवश्रम लागतों से संबंधित अनिश्चितता जिसके लिए अत्यधिक विशेषज्ञता-प्राप्त जहाज-रानी कौशल, रसद, विशेष रूप से आपातकालीन निकास और बचाव शामिल हैं। उन्होंने कहा कि आर्कटिक समुद्री नेविगेशन में आज प्रमुख हितधारकों में अंतर्राष्ट्रीय हाइड्रोग्राफिक संगठन (आईएचओ) जैसे कई अंतर्राष्ट्रीय समुद्री संगठन शामिल हैं, जिन्होंने आर्कटिक क्षेत्रीय हाइड्रोग्राफिक आयोग और विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की स्थापना की है, जिनके पास समुद्री बर्फ, जलवायु प्रेक्षण और आदि से संबंधित प्रेक्षण प्रणाली और आर्कटिक नेटवर्क हैं। चौथा मिथक यह है कि आर्कटिक दुनिया के पृष्ठ का अगला चरम बिंदु है जहाँ कई द्विपक्षीय और बहुपक्षीय भू-राजनीतिक विवाद और संघर्ष चल रहे हैं। पर जो चीज छुप जाती है वो यह है कि आर्कटिक में शुरू होने वाले ‘नए बड़े खेल’ या ‘नई शीत युद्ध’ की सनसनीखेज कथा वास्तव में चलते अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के कारण है, जहाँ आर्कटिक देश मानक अंतर्राष्ट्रीय संधियों (जैसे कि यूएनसीएलओएस) का काफी हद तक अनुपालन कर रहे हैं, क्षेत्रीय मंचों (जैसे कि आर्कटिक परिषद) में सक्रियता के साथ भाग ले रहे हैं और अपने मतभेदों को सुलझाने के लिए नियमित राजनयिक माध्यमों का उपयोग कर रहे हैं। पांचवा मिथक गलत धारणा बनाता है कि आर्कटिक का जलवायु परिवर्तन केवल स्थानीय, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समस्या है। जबकि तथ्य यह है कि आर्कटिक में वैश्विक जलवायु परिवर्तन के परिणामों, जिसमें ग्रीनलैंड की बर्फ की चादरों के पिघलने के कारण समुद्र स्तर का बढ़ना और मौसम के स्वरूपों में बदलाव शामिल है, का वैश्विक पहुँच और निहितार्थ हैं। इसे देखते हुए, इस सवाल पर गंभीरता से चिंतन करने की आवश्यकता है कि ‘भारत के आर्कटिक जुड़ाव’ में क्या अपरिहार्य है या इसमें क्या-क्या आता है। क्या यह आर्कटिक के मुद्दों (पारिस्थितिक, भू-राजनीतिक, आर्थिक, सामरिक) या आर्कटिक परिधि राज्यों (द्विपक्षीय संबंधों सहित) के साथ जुड़ाव होगा या आर्कटिक परिषद और आर्कटिक सर्कल जैसे परिध्रुवीय सिविल सोसायटी और संगठनों के साथ जुड़ाव होगा? ये सवाल भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि परिध्रुवीय आर्कटिक मुद्दों और मूल्यों को कैसे परिभाषित किया जा सकता है और गैर-आर्कटिक मुद्दों और मूल्यों से कैसे विभेदित किया जाता है। अब भी यह देखना बाकी है कि आर्कटिक परिषद के कुछ चयनित प्रेक्षकों में से एक होने के नाते भारत, व्यक्तिगत और सामूहिक, दोनों तौर पर कौन-कौन से अतिरिक्त मूल्य लाएगा।
मिस सुलगना चट्टोपाध्याय, मुख्य संपादक, जियोग्राफी एंड यू, सत्र की पहली वक्ता थीं। उसने कहा कि आर्कटिक में भारत की दो पकड़ हैं - पहला वैज्ञानिक अनुसंधान है और दूसरा, तेल और गैस की खोज में इसकी रुचि है। भारत पिछले एक दशक से आर्कटिक में काम कर रहा है। भारत ने पिछले कुछ दशकों में समुद्र के अग्ररेखीय क्षेत्रों और ध्रुवीय विज्ञान में लगातार विशेषज्ञता हासिल की है, 2007 में स्वालबार्ड द्वीपसमूह में भारत का प्रथम और वर्तमान में एकमात्र शोध केंद्र हिमाद्री की स्थापना करके आर्कटिक के साथ इस जुड़ाव को बढ़ाया है। इस गहन वैज्ञानिक जुड़ाव ने 2013 में आर्कटिक परिषद में एक प्रेक्षक के रूप में भारत को जगह दिलाई है। दूसरा और सबसे नया शोध केंद्र कैम्ब्रिज बे, कनाडा में स्थित है। नाइऐलेसुन्द में इटली, भारत, नीदरलैंड, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस, दक्षिण कोरिया, जापान, जर्मनी और नॉर्वे जैसे देशों के कुल 16 अनुसंधान स्टेशन हैं। भारत के अनुसंधान लक्ष्यों में वायुमंडलीय अनुसंधान, एयरोसोल विकिरण, अंतरिक्ष, मौसम, खाद्य-जाल गतिकी, सूक्ष्मजीवी समानताएं, हिमनदियां, भूविज्ञान और प्रदूषण शामिल हैं। भारत के प्रमुख ध्रुवीय अनुसंधान केंद्र एनसीपीओआर का झुकाव जैव-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र की ओर है।
आर्कटिक में तेल और गैस के मामले में, भारत रूस के आर्कटिक से ऊर्जा संसाधनों को आयात करने के लिए समुद्री मार्गों की तलाश के लिए उत्सुक है, जैसा कि प्रधान मंत्री मोदी की हालिया रूस यात्रा के दौरान व्लादिवोस्तोक से चेन्नई के विचार द्वारा दिखाया गया है। भारत वैंकोर क्षेत्र में पहचाने गए तीन क्षेत्रों में रूस के साथ मिलकर काम कर रहा है और साथ ही तैमिर प्रायद्वीप के तट पर 600 km की पाइपलाइन पर भी काम कर रहा है। भारत रूस की वोस्तोक कोयला परियोजना का हिस्सा बनने के लिए भी उत्सुक है। वैश्विक मैट्रिक्स में, तेल और गैस के क्षेत्र में रूस के साथ अपने सहयोग के मामले में भारत की एक मजबूत पकड़ है, और नॉर्वे में हिमाद्री के साथ-साथ कनाडा में नव स्थापित अनुसंधान केंद्र के साथ अपनी संलिप्तता के साथ अनुसंधान क्षेत्र में भी इसकी मजबूत पकड़ है। वैश्विक मैट्रिक्स के चार स्तंभ हैं - संसाधन और अर्थशास्त्र, पृथ्वी प्रणाली, शासन और संस्थान और, लोग और संस्कृति। चीन का सन्दर्भ देते हुए, चट्टोपाध्याय ने कहा कि इस देश में दो बर्फ तोड़ने वाली मशीनें हैं और इसने वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए आर्कटिक में कम से कम आधा दर्जन बार यात्राएं की हैं। चीन ने पिछले दो दशकों में आर्कटिक में अभूतपूर्व विकास किया है और खुद को 'आर्कटिक' के निकट का देश घोषित किया है जहां वह एक सॉफ्ट पॉवर के रूप में पहचान पाना चाहता है। चीन ने खुद को एक विश्वसनीय खिलाड़ी के रूप में पेश करने के लिए संस्था निर्माण, मानदंडों और मूल्यों में निवेश करना शुरू कर दिया है और ऐसा करते हुए इस धारणा को टालना चाहता है कि आर्कटिक में इसकी उपस्थिति केवल इसके संसाधनों से प्रेरित है। चीन के पास आर्कटिक तक की पहुँच के लिए ‘चीन के लिए ध्रुवीय अनुसंधान संस्थान’ नामक एक सुसंरचित संस्थागत व्यवस्था है, जो एक नोडल संस्थान है और चीनी आर्कटिक और अंटार्कटिक प्रशासन नीति-निर्माण की एक संस्थान है। ये संस्थाएँ राज्य महासागरीय प्रशासन को रिपोर्ट करती हैं जो इसके बाद भूमि और संसाधन मंत्रालय को रिपोर्ट करती हैं। आइसलैंड-चीन साझेदारी के बारे में बात करते हुए, उन्होंने कहा कि यह साझेदारी स्वास्थ्य सेवा और भू-तापीय क्षेत्र में चीनी निवेश के साथ शुरू हुई, हालांकि, 2011 के बाद, निवेश के दायरे में काफी विस्तार हुआ है और इसमें अवसंरचनाएं, ऊर्जा, संसाधनों और दूरसंचार शामिल हुए हैं। नॉर्वे के मामले में, साझेदारी 1954 में शुरू हुई थी। हालांकि, संबंधों में कई बाधाओं (दलाई लामा और लियू शियाबो) के कारण द्विपक्षीय संबंध थम गए। इसके बावजूद वैज्ञानिक सहयोग जारी रहा। चीन के लिए एनएसआर के महत्व के बारे में बात करते हुए, उन्होंने कहा कि चीन का 90 प्रतिशत व्यापार समुद्र से होता है और इसलिए इस दृष्टिकोण से एनएसआर के महत्व को देखा जा सकता है। मलक्का दुविधा से बचना और चीन की ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करना ऐसे लक्ष्य हैं जिन्हें चीन एनएसआर के माध्यम से संबोधित करना चाहता है। इसलिए, चीन एनएसआर का सबसे बड़ा लाभार्थी प्रतीत होता है।
भारत के रोड मैप के बारे में बात करते हुए, उन्होंने कहा कि बदलते आर्कटिक में भारत को अपने राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने के लिए साझेदारों की तलाश करने की आवश्यकता है। उन्होंने आर्कटिक परिषद में एक प्रेक्षक के रूप में भारत की भूमिका के लिए तीन सीमाओं की पहचान की: भारत केवल कार्य समूहों में संलग्न हो सकता है; यह किसी भी प्रस्ताव को स्वयं आरम्भ नहीं कर सकता है लेकिन प्रस्ताव आरंभ करने के लिए आर्कटिक परिषद की स्थायी सदस्यता प्राप्त करनी होगी; और तीसरा, वित्तीय योगदान किसी भी आर्कटिक राज्य द्वारा वित्तपोषण से अधिक नहीं हो सकता है। भारत को इस क्षेत्र में अधिक शोध की आवश्यकता है, और अधिक जनशक्ति की आवश्यकता है क्योंकि एनसीपीओआर के पास इस क्षेत्र के लिए केवल दो समर्पित शोधकर्ता हैं। भारत के अनुसंधान को बढ़ाने और चलाने के लिए समर्पित बजट आवंटित करने की भी आवश्यकता है। भारत को मौजूदा स्टेशनों और मौजूदा क्षेत्र में अध्ययन के वर्तमान स्थानों से परे अनुसंधान क्षमता में विविधता लाने की आवश्यकता है। आर्कटिक परिषद में एक सुदृढ़ भूमिका प्राप्त करने के लिए, भारत को वैज्ञानिक वित्तपोषण बढ़ाने और निजी निवेश और दांव को संवर्धित करने के लिए एक नोडल निकाय बनाने की आवश्यकता है। भारत को बहु-स्तरीय और बहु-देश मोड में भी सहयोग करने और बेहतर रुख और दृश्यता के लिए उच्च-स्तरीय प्रतिनिधिमंडल आयोजित करने की भी आवश्यकता है। इसे भारत और विदेशों में ध्रुवीय अनुसंधान से जुड़े छात्रों के भंडार का निर्माण करके अपनी क्षमता को बढ़ाना होगा।
डॉ सुबा चंद्रन, प्रोफेसर और डीन, स्कूल ऑफ कंफ्लिक्ट एंड सिक्योरिटी स्टडीज, एनआईएएस, बेंगलुरु ने अपने ‘आर्कटिक इज़ नॉट फ़ॉर: टुवर्ड्स ए इंडो-आर्कटिक’ शीर्षक वाले प्रस्तुति में कहा कि उनके अध्ययन में तीन परिकल्पनाएँ थीं। पहला, आर्कटिक भौगोलिक रूप से बहुत दूर है, लेकिन यह आर्थिक, पर्यावरण, ऊर्जा, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी और सामरिक मुद्दों के मामले में भारत के करीब आ चुका है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कई वैज्ञानिक अध्ययन हुए हैं जो भारत के बदलते मानसून पैटर्न को आर्कटिक क्षेत्र में हुए परिवर्तनों से जोड़ते हैं। यह हिमालयी क्षेत्र के लिए भी सही है, जो आर्कटिक के परिवर्तनों से गंभीरतापूर्वक प्रभावित है। समुद्री मुद्दों के संदर्भ में, उन्होंने कहा कि समुद्र के बढ़ते स्तर को देखते हुए, न केवल भारत के लिए, बल्कि मालदीव, बांग्लादेश आदि जैसे इसके पड़ोसियों के लिए भी तटीय सुरक्षा पर बल देना आवश्यक है। इसी तरह, अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम को आगे बढ़ाने में, वैज्ञानिक समुदाय के मध्य एक ठोस विश्वास है कि आर्कटिक में स्टेशनों की स्थापना से भारत को डेटा को बेहतर ढंग से संश्लेषित करने में मदद मिलेगी। आर्कटिक में हो रहे बदलाव भारत को कई तरह से प्रभावित करते रहेंगे।
दूसरा, यदि भारत एक आर्कटिक शक्ति के रूप में पहचान प्राप्त करना चाहता है, तो इसे एक ऐसे देश के रूप में मान्यता प्राप्त करनी होगी, जो आर्कटिक में मौजूद है, और न कि बस आर्कटिक को ‘देख’ रहा है। चंद्रन जी ने कहा कि भारत-आर्कटिक' का विचार भारत को आर्कटिक से जोड़ने वाली एक भौगोलिक रचना है। क्षेत्र का एक सक्रिय खिलाड़ी बनने के लिए, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया और जापान जैसे एशियाई देशों के साथ सहयोग करना भारत के लिए फायदेमंद होगा, जिन्होंने खुद को इस क्षेत्र में प्रमुख हितधारकों के रूप में स्थापित किया है और आर्कटिक के प्रति व्यापक नीतियों का गठन किया हैं। एक और तरीका जिससे भारत इस क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ सकता है, वह भारत-आर्कटिक मूल्यों का समर्थन है। यह वो क्षेत्र है जहाँ भारत अपनी ताकत का इस्तेमाल इस क्षेत्र में अपने कदमों के निशान आगे बढ़ा सकता है। उन्होंने कहा कि इन मूल्यों, जो अनिवार्य रूप से कोई विशिष्ट मूल नहीं हैं, को ग्लोबल कॉमन्स जैसे सिद्धांत और विविधता के प्रति सम्मान के साथ जोड़ा जा सकता है, जिसमें भारत को बहुत अनुभव है। भारत के आर्कटिक जुड़ाव का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू इस क्षेत्र के बड़े देशों से परे देखते हुए छोटे देशों, जैसे कि डेनमार्क, आइसलैंड और नॉर्वे पर ध्यान केंद्रित करना हो सकता है। इस तरह से आपसी हित के मुद्दों पर आगे सहयोग के लिए आम सहमति पर पहुंचना आसान होगा। तीसरा, अगर भारत को आर्कटिक में जाना है, तो उसे आर्कटिक को भारत लाना होगा। उन्होंने कहा कि आर्कटिक परिषद के विभिन्न मंचों को भारत लाकर ऐसा किया जा सकता है, जिससे क्षमता निर्माण में भी वृद्धि होगी। भारत विभिन्न विषयों में लक्षित अनुसंधान के लिए आर्कटिक अध्यक्ष भी बना सकता है। उन्होंने ये भी कहा कि इस क्षेत्र में अपने भविष्य की कार्रवाई को निरूपित करने के लिए भारत आर्कटिक पर वार्षिक संवाद आयोजित कर सकता है, जिसमें शिक्षा, विज्ञान और सामरिक हलकों से उचित हितधारकों को शामिल किया जा सकता है।
इसके बाद हुई चर्चा में, यह बताया गया कि आर्कटिक में भारत का जुड़ाव स्वालबार्ड संधि से पुरानी है; बल्कि यह बाल गंगाधर तिलक के ‘द आर्कटिक होम इन ड वेदास’ शीर्षक वाले लेख जितनी पुरानी है। यह इस बात की गवाही देता है कि आर्कटिक भारत की कल्पना में बहुत लंबे समय से है। भारत ज्ञान-शक्ति-इंटरफ़ेस और परस्पर क्रिया दोनों के मामले में अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में न केवल बहु-ध्रुवीय दुनिया को लेकर बल्कि बहु-ध्रुवीय ध्रुवीय जगत को भी लेकर उत्सुक रहा है। सरकारी संगठनों के अलावा आर्कटिक से संबंधित वकालत समूहों से संबंधित एक और टिप्पणी हुई। यह बताया गया कि ग्रीन पीस आदि जैसे समूह आर्कटिक में पर्यावरणीय गिरावट और प्रदूषण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को सामने लाने के लिए जिम्मेदार हैं और इस पर एक अच्छा काम कर रहे हैं, और कुल मिलाकर यह एक अन्य मुद्दा है, चाहे देश इसे पसंद करें या न करें। चर्चा के दौरान आर्कटिक परिषद और आर्कटिक सर्कल के बीच का अंतर भी बताया गया। यह स्पष्ट किया गया था कि आर्कटिक परिषद एक अंतर-शासकीय निकाय है - जिसमें आर्कटिक के तटीय राज्य इसके स्थायी सदस्य हैं, स्वदेशी समूह और कई प्रेक्षक राज्य हैं – जो अपने शासनादेश में सीमित है और इसकी अध्यक्षता बारी-बारी से इसके स्थायी सदस्यों को मिलती है, जो परिषद की दिशा निर्धारित करता है। इसके विपरीत, आर्कटिक सर्कल एक गैर-शासकीय और एक खुला मंच है जो इस क्षेत्र से संबंधित मुद्दों में किसी को भी सक्रिय रूप से भाग लेने की अनुमति देता है।
यह भी बताया गया कि स्वदेशी लोगों से संबंधित मुद्दों पर सहयोग और बातचीत बढ़ाने पर जोर दिया गया है। परिध्रुवीय आर्कटिक के स्वदेशी लोगों और दुनिया के अन्य क्षेत्रों के स्वदेशी लोगों के बीच एक आर्कटिक स्वदेशी संवाद भी है। हिमालयी क्षेत्र में पर्याप्त स्वदेशी आबादी मौजूद है, लेकिन चीन के साथ समस्या यह है कि वह अपने स्वदेशी समुदायों को अन्य स्वदेशी लोगों के साथ जुड़ने की अनुमति आसानी से नहीं देता है। भारत आर्कटिक स्वदेशी संवाद के इस रूपरेखा में तेजी से आगे बढ़ सकता है और इस तरह विभिन्न अनुभवों को इस संवाद में शामिल कर सकता है। विभिन्न अनुभवों से सीखना एक दिलचस्प अभ्यास होगा। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिसे तलाशने की जरूरत है। आर्कटिक के लिए भारतीय प्रतिबद्धता को व्यक्त करने के लिए भारत-आर्कटिक शब्द को ट्रेडमार्क बनाने की आवश्यकता है। यह हिमालयी-आर्कटिक भी हो सकता है जो इस क्षेत्र में भारत द्वारा किए गए कार्यों को उजागर कर सकता है। यह भी बताया गया कि यूरोपीय संघ को आर्कटिक परिषद के हिस्से के रूप में शामिल करना भ्रामक होगा क्योंकि रूस कभी भी यूरोपीय संघ को परिषद का हिस्सा नहीं बनने देगा। यूरोपीय संघ अपनी ओर से वैज्ञानिक अनुसंधान और परियोजनाओं का वित्तपोषण कर सकता है, लेकिन यह एक प्रमुख आर्कटिक खिलाड़ी नहीं बन सकता है। इसी तरह, नाटो भी कभी भी एक प्रमुख आर्कटिक खिलाड़ी नहीं बन सकता है क्योंकि यह तब शीत युद्ध के उद्भव का कारण बन सकता है। क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों की तुलना में राष्ट्र-राज्य अभी भी आर्कटिक में बड़े खिलाड़ी बने हुए हैं।
समापन सत्र
डॉ. टी. सी. ए. राघवन, महानिदेशक, आईसीडब्ल्यूए ने अपनी समापन टिप्पणियों में, महामहिम ओलाफुर रगनार ग्रिम्सन और प्रतिभागियों को धन्यवाद देने के बाद, कहा कि आर्कटिक अत्यंत महत्वपूर्ण है और इसे केवल वैज्ञानिकों के भरोसे ही नहीं छोड़ा जा सकता है।
शुरुआत में, अपनी विशेष टिप्पणी में, विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन के निदेशक, डॉ. अरविंद गुप्ता ने कहा कि भारत को पूरी तरह से आर्कटिक के साथ जुड़ना चाहिए और यह देश के लिए भी महत्वपूर्ण है जैसा कि पूरे सेमिनार में ओलाफुर रगनार ग्रिम्सन ने बताया है। गुप्ता जी ने कहा कि भारत को ग्रिम्सन के सुझाव पर ध्यान देना चाहिए और इस दिशा में काम करना चाहिए। दुनिया में भारत के महत्वपूर्ण योगदान और दुनिया को एक-साथ लाने में इसकी अतिरिक्त जिम्मेदारियों पर प्रकाश डालते हुए, उन्होंने "वासुदेव कुटुम्बकम" की अवधारणा के बारे में बात की, जहाँ उन्होंने बताया कि महाउपनिषद काल से ही दुनिया को एक परिवार माना जाता है। भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी "वासुदेव कुटुम्बकम" के इस पहलू पर जोर दे रहे हैं, जो समकालीन समय में पर्यावरणीय गिरावट और वैश्विक जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों के कारण बहुत प्रासंगिक है। ये चुनौतियाँ आंतरिक रूप से परस्पर जुड़ी हुई हैं और मानव जीवन और जैव-विविधता दोनों को प्रभावित करती हैं।
2019 में ‘संघर्ष से बचने और पर्यावरण की अभिज्ञता के लिए वैश्विक हिन्दू-बौद्ध संवाद’ के दौरान, दुनिया भर के धार्मिक नेताओं ने मानव जाति के समक्ष खड़े दो बड़े मुद्दों, नामतः, संघर्ष परिहार और पर्यावरणीय गिरावट को संबोधित करने के लिए शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, अंतर-धार्मिक समझ और अन्योन्याश्रित स्थिरता पर चर्चा की। आर्कटिक में परस्पर संबंध को इस दृष्टिकोण से देखा जा सकता है, और भारत को इसका एक हिस्सा बनना चाहिए क्योंकि भारत हमेशा से शब्द "वासुदेव कुटुम्बकम" में संदर्भित संपर्कता का प्रचारक रहा है। गुप्ता जी ने बाल गंगाधर तिलक की पुस्तक “द आर्कटिक होम इन द वेदास” का उल्लेख करते हुए प्राचीन समय से ही भारत के लिए आर्कटिक के महत्व पर प्रकाश डाला। उन्होंने वैदिक युग से ही और न केवल 1920 की स्वालबार्ड संधि या आर्कटिक परिषद में 2013 से भारत की प्रेक्षक स्थिति के बाद से आर्कटिक के साथ भारत के संबंध के प्रक्षेपवक्र को इंगित किया।
उन्होंने बताया कि आर्कटिक के साथ जुड़ने की भारत की अनिवार्यता अब भी नीति निर्माताओं के एजेंडे पर आना बाकी है या लोगों के ध्यान में आना बाकी है। शोधकर्ताओं को आर्कटिक में अपनी दिलचस्पी दिखाने के लिए विदेश नीति और सुरक्षा प्रतिष्ठान में एक प्रभावी मामला बनाने की आवश्यकता है, जैसा कि चीन ने किया है। चीन आर्कटिक में विस्तारित उपस्थिति प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है। रूसी गवर्नर आर्कटिक में चीनी निवेश में रुचि रखते हैं। उन्होंने आर्कटिक समुद्री बर्फ के पिघलने के साथ ऊपर उत्तर में प्रमुख भू-राजनीतिक परिवर्तनों की अनिवार्यता के बारे में बात की। रूस और अमेरिका दोनों इस क्षेत्र में चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। नॉर्वे के अधिकार क्षेत्र में आने वाले आर्कटिक के दूरदराज के द्वीपों पर मास्को की गतिविधियों पर ओस्लो द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के कारण रूस-नॉर्वे संबंधों को भी समस्या हो रही है। रूस, आर्कटिक के उत्तरी भाग, पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। चीन खुद को ‘आर्कटिक के करीब’ का राज्य बता रहा है और उसने अपना ‘पोलर सिल्क रूट’ पहल शुरू कर दिया है। रूस और चीन आर्कटिक में एक साथ आ रहे हैं, जो कि एक मौजूदा वास्तविकता है। रूसी गवर्नर चीनी निवेश में रुचि रखते हैं। इन सभी घटनाक्रमों और पूर्व और पश्चिम के बीच तनावों के कारण, आर्कटिक भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का एक केंद्र बन सकता है, भले ही आर्कटिक परिषद इसे बाहर रखना चाहता हो।
जलवायु परिवर्तन के कारण पिघलते बर्फ और मानसून पैटर्न के बीच संबंध के कारण आर्कटिक में भारत का वैज्ञानिक अनुसंधान महत्वपूर्ण है। इस पहलू पर ग्लोबल कॉमन्स का सामूहिक अध्ययन महत्वपूर्ण होगा। भारत में इसकी योग्यता और ऐसी मजबूरी है। हालाँकि, भारतीय गतिविधियों को बढ़ाया नहीं गया है और भारत के 90 प्रतिशत आधिकारिक बयान आर्कटिक के वैज्ञानिक पहलुओं से संबंधित हैं। आर्कटिक के साथ भारत के जुड़ाव को व्यापक और गहरा करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि भारत को इस संकीर्ण क्षेत्र से बाहर निकलने और आर्कटिक के राजनीतिक, भू-सामरिक, भू-आर्थिक, शैक्षणिक आदि पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। भारत को एक समेकित नीति की आवश्यकता है। डॉ. गुप्ता ने निम्नलिखित सिफारिशें कीं:
समापन संबोधन में, आर्कटिक सर्कल के सीईओ, श्री डेगफिनुर स्वेनहॉर्सन ने हिमालय के तीसरे ध्रुव के महत्व के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि इस विषय को आर्कटिक सर्कल की एक बैठक में चर्चा की गई थी और इसे 'व्हाइट स्पॉट' के नाम से जाना जाता है। उन्होंने हिंदुकुश हिमालय क्षेत्र के बारे में बात की, जिसे भारत सहित अन्य देशों से बहुत कम ध्यान मिला था। उन्होंने कहा कि भारत को इस पर ध्यान देना चाहिए।
2010 में, चीन ने तिब्बती पठार पर कुछ शोध के बारे में बात की थी लेकिन बहुत ही कम जानकारी दी गई थी। भारत में, इस विषय में कुछ ग्लेशियोलॉजिस्ट हैं और यह इस विषय पर किए जा रहे शोधों में बाधा खड़ी करता है। इस अवधि के दौरान, तीसरे ध्रुव पर अनुसंधान का प्रमुख बल विज्ञान रहा है। हालांकि, हाल ही में, आर्कटिक सर्कल द्वारा आयोजित तीसरे ध्रुव पर चर्चा का विस्तार किया गया है, और इसमें अन्य मुद्दों को भी शामिल किया गया है जैसे कि बर्फ का पिघलना, वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव आदि। स्वेनहॉर्सन ने कहा कि यह महत्वपूर्ण है कि तीसरे ध्रुव की जानकारी के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के परिणाम आम जनता तक पहुंचें। आर्कटिक सर्कल ने भारत, चीन, म्यांमार, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश जैसे तीसरे ध्रुव देशों के साथ बैठकों की एक श्रृंखला शुरू की। इसमें वैज्ञानिक क्षेत्रों के अलावा भी कई अन्य क्षेत्रों पर चर्चा की गईं। एक अधिक गतिशील सहयोग के लिए एक रूपरेखा तैयार करने के व्यवस्थित प्रयासों पर ध्यान केंद्रित किया गया है, जहां सूचना और प्रथाओं के गतिशील और खुले विनिमय को बनाना संभव होगा। 2019 हिंदू कुश हिमालय आंकलन रिपोर्ट में इन देशों के सामने आने वाले विभिन्न प्रासंगिक मामलों और एक बड़े प्रकरण में उनके समग्र प्रभाव पर चर्चा की गई है। हालांकि आर्कटिक और हिमालय की तुलना नहीं की जा सकती है, लेकिन आर्कटिक की अनुविक्षा से जो डेटा प्राप्त किए गए हैं, वह ये देखने के लिए महत्वपूर्ण होगा कि जलवायु परिवर्तन कैसे हिंदू कुश हिमालय को प्रभावित कर रहे हैं और इन्हें संबोधित किया जाना चाहिए। तीन बड़ी चुनौतियों जिन्हें संबोधित करने की आवश्यकता है, वे निम्नलिखित हैं:
तृतीय ध्रुव हिमालयी देशों के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करने के लिए आर्कटिक सर्कल जैसे बहुस्तरीय संस्थागत ढांचे को बनाने की आवश्यकता है। पांच प्रमुख मुद्दे-क्षेत्र जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है:
श्री स्वेनहॉर्सन ने सुझाव दिया कि तृतीय ध्रुव हिमालयी देश इन चुनौतियों पर चर्चा करने और इनसे निपटने के लिए एक उपयोगी मंच के रूप में आर्कटिक सर्कल को इसके लचीले रूपरेखा के साथ अपना सकते हैं, एक उपयोगी मंच के रूप में। साथ ही, पर्यावरणीय चुनौतियां तृतीय ध्रुव क्षेत्र के सभी देशों को एक-साथ आने और सहयोग करने के लिए सामूहिक अवसर प्रस्तुत करती हैं।
संगोष्ठी के प्रतिवेदकों की सहायता से रिपोर्ट तैयार किया गया: डॉ. समथा मल्लेम्पति, डॉ. संकल्प गुर्जर, डॉ. नेहा सिन्हा, डॉ. अंकिता दत्ता और डॉ. इंद्राणी तालुकदार, शोधकर्ता, विश्व मामलों की भारतीय परिषद, नई दिल्ली।
डॉ. संजय चतुर्वेदी, प्रोफेसर और डीन, सामाजिक विज्ञान संकाय, दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय, नई दिल्ली द्वारा विशेष जानकारी।
*****