‘हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की भू-राजनीति: एशियाई परिप्रेक्ष्य में’
विषय पर
चौथा (IV) एशियाई संबंध सम्मेलन
पर इवेंट रिपोर्ट
सप्रू हाउस, नई दिल्ली
21-22 मार्च, 2013
प्रस्तावना
अंतर्राष्ट्रीय मामलों की भारतीय परिषद (आई.सी.डब्ल्यू.ए.) एवं एशियाई विद्वान संध (ए.ए.एस.) द्वारा 21से 22 मार्च, 2013 को सप्रू हाउस, नई दिल्ली में चौथे एशियाई सम्मेलन (ए.आर.सी.IV) का आयोजन किया गया। सम्मेलन का विषय ‘हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की भू-राजनीति: एशियाई परिप्रेक्ष्य में’ था। सम्मेलन में भारत सहित 12 देशों के 24 प्रतिभागियों ने भाग लिया।
प्रथम दिवस:
उद्घाटन सत्र
एशियाई विद्वान संध (ए.ए.एस.) के अध्यक्ष प्रोफेसर स्वर्ण सिंह द्वारा स्वागत उद्बोधन किया गया। उन्होंने समुद्री सुरक्षा के बढ़ते महत्व एवं हिंद महासागर में भारत के बढ़ते वर्चस्व के बारे में विस्तार से बताया। प्रोफेसर सिंह ने विभिन्न देशों के बीच संबंधों को सुदृढ़ करने में भू-राजनीति के महत्व पर चर्चा की।
राजदूत श्री के. भाटिया, महानिदेशक, आई.सी.डब्ल्यू.ए. ने संबोधन भाषण दिया। राजदूत श्री भाटिया जी ने पूर्व में एशियाई देशों के एक साथ मिलकर आगे बढ़ने के इतिहास पर प्रकाश डाला तथा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री एवं एशियाई संबंध सम्मेलन के वास्तुकार पंडित जवाहरलाल नेहरू के हवाले से एशियाई देशों की परिवर्तन की प्रवृत्ति के संबंध में अपने विचार व्यक्त किये तथा एशिया की शक्ति को बढ़ाने, सम्मेलन को स्मरण रखने एवं सम्मेलन का जश्न मनाने की तीव्र इच्छाजताने वाले सम्मेलन के विषय के चयन को उपयुक्त बताया। उन्होंने अवलोकन किया कि हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में भू-रणनीतिक संबंधों की प्रवृत्ति के समग्र मुल्यांकन के लिए वह समय उपयुक्त था।
उन्होने एशियाई देशों के मध्य सांस्कृतिक एवं सभ्यतागत संबंधों पर जोर देते हुए ‘हिन्द-प्रशांत’ शब्द के ऐतिहासिक एवं वैचारिक दृष्टिकोण को व्यक्त किया। यद्यपि ‘हिन्द-प्रशांत’ शब्द सामरिक समुदाय के लोगों के बीच पहले से ही स्वीकार किया जा रहा था। कुछ लोग ‘हिन्द-प्रशांत’ के प्रयोग का समर्थन करते हैं, जबकि कुछ इसे पूर्ण समाधान के रूप में नहीं देखते। राजदूत भाटिया जी के अनुसार ‘हिन्द-प्रशांत’ शब्द का अभिप्राय है कि “बहुपक्षीय वैश्वीकरण यह सुनिश्चित करे कि स्वेज नहर से जापान तक तथा हिन्द महासागर के अफ्रीकी तटों से लेकर पश्चिमी प्रशांत तक विकास को सुनिश्चित करने के लिए एक-दूसरे के साथ जुड़े थे एवं परस्पर निर्भर थे।” इसलिए, 21 वीं सदी की भू-राजनीति को समझने के लिए नई स्थानिक अवधारणा ‘हिन्द-प्रशांत’ एक उपयोगी साधन सिद्ध हो सकती है।
सम्मेलन ने इस क्षेत्र के आंतरिक महत्व को निम्नलिखित बिन्दुओं पर प्रकाश डालकर समझाया:अंतर-राज्य संबंधों के समुद्री आयाम;राजनीतिक प्राथमिकताएं निर्धारित करने के लिए एक मंच; आर्थिक हित और सुरक्षा संबंधी दृष्टिकोण। इस संदर्भ में, पश्चिम से पूर्व की ओर शक्ति का हस्तांतरण, एशिया की ओर अमेरिका का केन्द्रीयकरण, नीतिगत दृष्टिकोण एवं सामरिक प्रतिक्रियाओं का पुनर्संतुलन या एक नये संस्करण के लिए भी आसियान, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अन्य के साथ मूल्यांकन किया जाएगा।इसके अतिरिक्त, यह हमें हिन्द और प्रशांत महासागर के पुराने मानचित्र की सोच से उभारेगा एवं दो ‘महासागरों के संगम’ के लिए उनके मध्य की दूरी को कम करने का कार्य करेगा।महासागरों के मध्य स्थापित संबंध सदियों से भारत के विकास में सहयोगी रहे हैं, भारत के पूर्व, दक्षिण एवं पश्चिम क्षेत्रों की वाणिज्यिक, सांस्कृतिक एवं सभ्यता के विकसित होने में समुद्री मार्गों से आदान प्रदान का प्रमुख योगदान रहा है। इसके अतिरिक्त आईओआर (IOR) – एआरसी की प्रतिबद्धता भी और मजबूत हुई है एवं तीसरे दशक में 'एक्ट ईस्ट' नीति ने संबंधो को पर्याप्त समृद्धि और गति प्रदान की है।निश्चित रूप से आसियान के केन्द्रीयकरण पर ध्यान दिया गयाऔर वर्ष 2050 तक आसियान समुदाय को सुदृढ़ बनाने की ओर रुख किया गया। राजदूत भाटिया ने प्रतिनिधियों को याद दिलाया कि भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा हिन्द-आसियान और हिन्द-प्रशांत के गठबंधन पर जोर दिया थाजो समय के साथ और मजबूत हुआ है। उन्होंने आशा व्यक्त कि दो दिनों के दौरान हुआ बौद्धिक सम्मेलन क्षेत्रों के मध्य एक सार्थक संवाद कायम करेगा और क्षेत्रों के बीच तालमेल को सुदृढ़ करेगा।
प्रथम सत्र: हिन्द-प्रशांत क्षेत्र एक स्थानिक अवधारणा के रूप में
राजदूत सुधीर टी.देवरे ने पहले सत्र की अध्यक्षता की और हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के भाषण के विभिन्न दृष्टिकोणों को साझा किया। राजदूत देवरे ने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में सुदृढ़ एवं तेजी से बढ़ते संबंधों के बारे में बात की। राजदूत के.वी. भागीरथ, महासचिव, हिंद महासागर तटीय क्षेत्रीय सहयोग संघ, ने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और आईओआर-एआरसी के बीच बढ़ते संबंधों पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के आकर्षण का केन्द्र हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की ओर बढ़ रहा थाजो एशिया, ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीका के तीन महाद्वीपों को एक साथ लाकर खड़ा करता है। हालांकि, उन्होंने आगाह किया कि इस क्षेत्र में आशाजनक अवसरों के बावजूद कठिन चुनौतियां भी थीं।
राजदूत भागीरथ ने जोर देकर कहा कि हिंद महासागर क्षेत्र का बहुत अधिक भू-सामरिक महत्व है, एवं बहुतायत संसाधन, खनिज, तेल, प्राकृतिक गैस, इत्यादि इसकी विशेषताएं है, जबकि आर्थिक भागीदारी मज़बूत हुई हैऔरभू-राजनीति भी क्रियाशील रही है। हिंद महासागर का क्षेत्र प्रशांत महासागर के क्षेत्र की तुलना में अधिक संतुलित था। उन्होंने पाया कि क्षेत्रवाद ने अतीत के स्वरूप को पुन: बहाल कर दिया है। आईओआर-एआरसी, मॉरीशस के मुख्यालय में 1990 के दशक में इसका अनुठा गठन देखने को मिला जिसके अन्तर्गत, पश्चिम में दक्षिण अफ्रीका और पूर्व में ऑस्ट्रेलिया को समाविष्ट किया गया। 2011 में भारत एवं 2013 में ऑस्ट्रेलिया की अध्यक्षता में भारत के साथ क्षेत्रीय साझेदारी के लिए एक सामान धरातल थाऔर इसका अगला उपाध्यक्ष इंडोनेशिया होगा। इस प्रकार, आईओआर-एआरसी का प्रमुख केन्द्रबिन्दु एशियाई क्षेत्र की ओर स्थानांतरित हो जाएगा। इस विशाल क्षेत्र में प्राथमिकता आईओआर-एआरसी को एक क्षेत्रीय समुदाय बनाने के साथ-साथ स्थिरता कायम करना थी। राजदूत भागीरथ ने जैसी कल्पना की जा रही थी उसी के अनुसार एक बड़ी आर्थिक एवं सामरिक प्रणाली की संभावना व्यक्त की। यह विशेष रूप से हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के लिए प्रासंगिक था, जोकि कुल समुद्री क्षेत्र का दो-तिहाई हिस्सा है।
प्रो. मिचिमीमुरनुशी, यूनिवर्सिटी ऑफ गाकुशिन, टोक्यो ने एक दिलचस्प पद्धति का प्रयोग करते हुए 'रीजन विद नेटवर्क्स' की बात कीऔर कहा कि 'क्षेत्रों' को केवल भौगोलिक विभाजन के रूप में नहीं बल्कि राष्ट्रों के बदलते तंत्र के रूप में देखा जाना चाहिए। उन्होंने पिछले एक दशक भारत, चीन, रूस, अमेरिका और जापान सहित बीस देशों के नेटवर्क का इस्तेमाल किया और बताया कि कैसे विभिन्न नेटवर्क ने एक दूसरे को ढ़क लिया। उन्होंने अमेरिका द्वारा प्रकाशित ‘वर्ल्ड न्यूज कनेक्शन’ के आंकड़ों का उपयोग करके बीस राज्यों के बीच संबंधों के स्तर की तुलना एवं विश्लेषण किया।
इस पद्धति के आधार परप्रो. मुरनुशी ने पाया कि चीन ने पिछले दो दशकों में लगभग सभी देशों के साथ बेहतर संबंध स्थापित किए हैं। उन्होंने द्विपक्षीय, बहुपक्षीय संबंधों में केंद्रीय भूमिका निभाने वाले राज्यों की पहचान करने के लिए व्यापार, निवेश, पर्यटन, प्रवासन, प्रतिनिधिमंडल, संचार, विवाद जैसे कुछ क्षेत्रों को आधार बनाया।उन्होंने समय के साथ संबंधों के यथाक्रम बदलाव की व्याख्या की और भविष्य में नेटवर्क के रुझानों हेतु सुझाव दिये।उन्होंने चीन और भारत को अधिक प्रभावशाली राज्य के तौर पर प्रस्तुत किया और उनके विकास पर जोर देते हुए अपने अभिभाषण को समाप्त किया और कहा कि इन राज्यों के संबंध में नेटवर्क की अवधारणा उनकी भौगोलिक संरचना से अधिक महत्वपूर्ण थी। प्रो. मुरनुशी आशावान थे कि भविष्य में अन्य राज्यों के लिए उनके कार्यों में सहयोग और समन्वय के लिए अधिक अवसर उपलब्ध होंगे।
मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज के सह-आचार्य, डॉक्टर लॉरेंस प्रभाकरने चेन्नई 'द इमर्जिंग विस्टा ऑफ द इंडो पैसिफिक' विषय पर अपने व्याख्यान में हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की अवधारणा पर एक सैद्धांतिक अभिविन्यास प्रस्तुत किया एवं भारत के लिए कुछ नीति विकल्पों पर प्रकाश डाला। उन्होंने हिन्द-प्रशांत के विचार में सात व्यापक दृष्टिकोणों की ओर ध्यान आकर्षित किया जो इस प्रकार हैं: रचनात्मकता, शक्ति का संतुलन, शक्ति का स्थानांतरण, रणनीतिक स्वायत्तता के विकल्प, लोकतांत्रिक देशों के बीच सामंजस्य, हिन्द प्रशांत क्षेत्रवाद एवं हिन्द-प्रशांत की जनता। डॉ. लॉरेंस ने कहा कि महाशक्तियोंविशेष रूप से अमेरिकाने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में दो रणनीतियों का प्रयोग किया एक 'हब एंड स्पोक्स' दूसरी 'क्षेत्रीय धुरी'।जवाब में, इस क्षेत्र में चीन की काउंटर स्ट्रेटजी में सॉफ्ट बैलेन्सिंग, आंतरिक संतुलन, एसिमेट्रिक मिलिट्री स्ट्रैटेजी और नॉर्थ कोरिया जैसे अस्थिर कर्ता को प्रोत्साहित करना शामिल था। भारत के नजरिये से विभिन्न द्विपक्षीय संधियों एवं प्रबंधन में भारत की आर्थिक एवं सुरक्षा संबंधी भागीदारी स्पष्ट थी कि भारत दक्षिण पूर्व एशिया, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ मिलकर आगे बढ़ेगा। भारत की प्रशांत शक्तियों जैसे जापान और दक्षिण कोरिया के साथ जटिल नौसेना के अभ्यास में भाग लेने वाले युद्धपोतों के बढ़ते आकार एवं संख्या ने भारत को एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभारा है।
द्वितीय सत्र : हिन्द-प्रशांत क्षेत्र: हिंद महासागर के परिप्रेक्ष्य में
राष्ट्रीय समुद्री फाउंडेशन के कमोडोर (सेवानिवृत्त) सी उदयभास्करने दूसरे सत्र की अध्यक्षता की। आर्थिक एवं सामाजिक अनुसंधान प्रतिष्ठान, तंजानिया के कार्यकारी निदेशक डॉ. होसेना बी. लूनोगेलो ने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में तकनीकी सहयोग के लिए अफ्रीकी एवं हिंद महासागर की संभावनाओं की ओर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने अफ्रीका को भारत के साथ जोड़ने के लिए विशेष रूप से हिंद महासागर के महत्व पर जोर दिया। डॉ. लूनोगेलो ने कृषि, प्राकृतिक संसाधन, प्रवासन, निवेश, समुद्री डकैती, सुरक्षा आदि के क्षेत्र में हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के आसपास के देशों के बीच अधिक मेल-जोल की आवश्यकता को दोहराया।उन्होंने कहा कि "अफ्रीका कई प्राकृतिक एवं स्थायी संसाधनों से समृद्ध देशों में से एक था। हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के एक भाग के रूप मेंइसके पास बहुत कुछ था। हालांकि, राष्ट्र के राज्यों के बीच सहयोग के बिनावांछित सफलता प्राप्त करना असंभव था "। उन्होंने कहा कि हिंद महासागर क्षेत्र में अफ्रीकी भू-राजनीति को चार कारकों द्वारा संचालित किया गया था: अफ्रीका के एशिया के साथ ऐतिहासिक संबंध,कानूनविहीन समाज का उदय,पलायन करने वाली जनसंख्या में वृद्धिऔर तटवर्ती एवं तट से दूर के इलाकों में गैर-नवीकरणीय स्रोतों के विशाल भण्डारों की खोज।
सेशेल्स के पूर्व राजदूत नोसेली अलेक्जेंडर ने आइसलैंड के देशों के लिए हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका को दोहराया। यद्यपि सेशेल्स भौगोलिक आकार में अन्य देशों की तरह बड़ा देश नहीं हैलेकिन उसने अन्य देशों को उन गतिविधियों में उनके साथ भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जो विकास के लिए पारस्परिक रूप से लाभकारी होंगी। उन्होंने कहा कि "सेशेल्स में समुद्र के संसाधनों से जुड़ी चोरी की कई समस्याएं हैंजिन पर ध्यान देने की जरूरत है। इसके लिए कोई देश अकेले संघर्ष नहीं कर सकता इसके लिए बाहरी स्रोतों से मदद की जरूरत है।" राजदूत अलेक्जेंडर ने हिन्द-प्रशांत क्षेत्रों के एकीकरण पर ध्यान केंद्रित कियाजिससे आर्थिक विकास के साथ-साथ सभी संबंधित पक्षों के लिए सतत विकास की स्थिति बन सकती है।
सेंटर फॉर एयर पावर स्टडीज के वरिष्ठ सदस्य कमोडोर (सेवानिवृत्त) एम. आर. खानने गल्फ कार्पोरेशन काउंसिल और हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के बीच संबंधों के इतिहास को प्रस्तुत किया। कमोडोर खान ने प्राचीन साम्राज्यों के समय से खाड़ी क्षेत्र के महत्व को बताया जब समुद्री परिवहन ही परिवहन का एकमात्र साधन था। इस क्षेत्र में तेल और प्राकृतिक गैस के भंडार के कारण दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाएं यहीं थींऔर इसके परिणामस्वरूपहिन्द-प्रशांत देशों के साथ खाड़ी क्षेत्र के आसपास के देशों के बीच साझेदारी में काफी समृद्धि हुई थी। उन्होंने 17 वीं शताब्दी के बाद से वर्तमान समय तक खाड़ी क्षेत्र का एक ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया।
तृतीय सत्र : हिन्द-प्रशांत क्षेत्र : दक्षिण पूर्व एवं पूर्वी एशिया के परिप्रेक्ष्य में
तीसरे सत्र की अध्यक्षता दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व एशियाई अध्ययन विभाग के प्रोफेसर मधुभल्ला ने की, जिसमें उन्होंने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र पर दक्षिण-पूर्व एवं पूर्वी एशियाई परिप्रेक्ष्य पर विचार-विमर्श किया। प्रो. भल्ला ने अवधारणा की उपयोगिता की बात की।
ऑस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स, डीकिन, ऑस्ट्रेलिया की निदेशक सुश्री मेलिसा एच. कॉनले टायलरने बताया कि ऑस्ट्रेलियाई सुरक्षा और विदेश नीति के विकल्पों में एक रणनीतिक अवधारणा के रूप में हिन्द-प्रशांत क्षेत्र का पुनरुत्थान हुआ है। उन्होंने कहा कि आंतरिक एवं बाहरी कारकों की एक श्रृंखला है जो हिन्द-प्रशांत संकल्पना के पुनरुत्थान को प्रेरित करती है। सबसे महत्वपूर्ण आंतरिक कारक पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की विकसित होती कोयला चालित अर्थव्यवस्था थी। जबकि बाहरी कारकभारत एवं चीन का विकास, दो महासागरों के बीच व्यापार में वृद्धि एवं पूरे एशिया में सामरिक एकीकरण की समृद्धि थी। हिन्द-प्रशांत मेंऑस्ट्रेलिया में सतर्कता, प्रतिष्ठानों का निर्माण, व्यावहारिक कदम उठाने और गठबंधन करने का दबाव था।
मैरीटाइम इंस्टीट्यूट ऑफ मलेशिया, कुआलालंपुर, मलेशिया की वरिष्ठ शोधकर्ता सुश्री सुमति परमालने मलेशिया जैसे छोटे राज्यों के लिए हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की प्रासंगिकता का विश्लेषण किया। उन्होंने हिंद-प्रशांत को हिंद महासागर और पश्चिमी प्रशांत के बीच समुद्री स्थान के रूप में परिभाषित किया जो एशिया-प्रशांत से भी आगे निकल जाता है। सुश्री सुमति परमालने इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के बढ़ते सामारिक, आर्थिक और सैन्य महत्व पर प्रकाश डाला। हालाँकि, एक छोटे राज्य के रूप में मलेशिया को हिन्द-प्रशांत की अवधारणा का पूरी तरह से पालन करना बाकी था। हिन्द महासागर में मलेशिया की रुचि मुख्य रूप से मलक्का जलडमरूमध्य पर अंतरराष्ट्रीय शिपिंग के लिए नेविगेशन की स्वतंत्रता हेतु थी। एक अवधारणा के रूप में हिन्द-प्रशांत के नयेपन की रूपरेखा तैयार करने के बादसुश्री पर्मल ने भू-राजनीतिक गतिशीलता को तीव्र करने में भारत और चीन जैसी बढ़ती शक्तियों अमेरिका जैसी समुद्री शक्तियोंऔरफ्रांस जैसे बड़े सैन्य राष्ट्रकी भूमिका को स्वीकारा।
राजारत्नम स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज (आरएसआईएस), नानयांग टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी, सिंगापुर की रिसर्च फेलोसुश्री चैन गिट यिनने समुद्री क्षेत्र की ओर झुकाव को कम करते हुए आसियान और हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के बीच संबंधों के महत्व पर जोर दिया। हिंद-प्रशांत का नया भौगोलिक निर्माण मूल रूप से हिंद महासागर को शामिल करने के लिए एशिया प्रशांत की संकल्पना का विस्तार कर रहा था। उन्होंने एशिया-प्रशांत क्षेत्र में हिन्द-प्रशांत शब्द को प्राथमिकता देने के चार कारण बताए। ये थे आर्थिक संपर्क, समुद्री संपर्क, तेल आपूर्ति एवं व्यापार संपर्क। हालांकि, इसे एशिया-प्रशांत क्षेत्र से समस्याएं और चुनौतियां भी विरासत के रूप में प्राप्त हुईं जैसे सीमा संबंधी मुद्दे, अपराधिक गतिविधियां, समुद्री अतिक्रमण संबंधी विवाद आदि। हिंद महासागर क्षेत्र की पृष्ठभूमि ने रणनीतिक और राजनीतिक तौर पर भी ध्यानाकर्षण किया। सुश्री चान के अनुसार, हिंद महासागर क्षेत्र को भी आसियान की तरह मजबूत करना चाहिए और आसियान के साथ जोड़ा जाना चाहिएजिसका भारत के साथ मजबूत संबंध थाऔर इस क्षेत्र की प्रमुख रणनीतिक और क्षेत्रीय शक्ति भी था।
विशेष सत्र:
भारत के माननीय विदेश मंत्री श्री सलमान खुर्शीद ने अपने भाषण में, एशियाई संबंध सम्मेलन के इतिहास को विस्तार से बताया, जिसे 1947 में पंडित नेहरू ने शुरू किया थाउस कालखण्ड ने महाद्वीप के बौद्धिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पुनरुत्थान की शुरुआत को बल दिया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि छह दशकों में वैश्विक अर्थव्यवस्था और राजनीति के आकर्षण का केंद्र एशिया में स्थानांतरित हो गया थाऔर आधुनिक युग में चीजों की व्यवहारिकता पर फिर से विचार करने की आवश्यकता स्वाभाविक थी। भारत के ‘एक्ट ईस्ट’ नीति के तार्किक विस्तार के रूप मेंश्री खुर्शीद ने हिन्द-प्रशांत की संकल्पना के बारे में बात की। आसियान देशों द्वारा निभाई गई भूमिका के महत्व को रेखांकित करते हुए, उन्होंने अनिवार्य रूप से ‘पूर्व की ओर देखो’नीति के व्यापक विस्तार के बारे में बात कीजिससे अपने पड़ोसियों के साथ भारत के संबंधों को बेहतर बनाने में मदद मिले। हालाँकि, उन्होंने भारतीय विदेश नीति के संघीयकरण के खतरे की ओर भी ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने पंडित नेहरू के संगठित एशिया, गुटनिरपेक्ष आंदोलन और पंचशील के सिद्धांत के प्रति अपने विश्वास को दोहराया।
उन्होंने सम्मेलन के विषय की प्रासंगिकता पर जोर देते हुए विभिन्न क्षेत्रों जैसे समुद्री सुरक्षा, व्यापार और आर्थिक विकास, आपदा प्रबंधन, पर्यटन को बढ़ावा देने की बात कही। उन्होंने विदेश नीति के सबसे शक्तिशाली हथियार के रूप में कूटनीति में अपने विश्वास की पुन: पुष्टि की। श्री खुर्शीद ने कहा कि हिन्द-प्रशांत क्षेत्र को एक स्थानिक अवधारणा के रूप में भी देखा जा सकता हैजिसमें हिंद महासागर और प्रशांत महासागर की वर्चस्व और एक-दूसरे के प्रति पूरकता मुख्य भूमिका में थी। महासागर न तो किसी विशेष बिंदु पर शुरू होते हैं और न ही समाप्त होते हैंवे कई नई संभावनाओं के निर्माण और नए रास्ते खोलने के लिए एक-दूसरे के साथ जुड़ते हैं और परस्पर एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं। दुनिया एक रोमांचक युग से गुजर रही हैजहां हिन्द और प्रशांत महासागरों का मिलन होता है और इसके किनारे पर बसे देशों और लोगों ने शांति, समृद्धि और स्थिरता की एक नई मिसाल पेश की है। उन्होंने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र मेंहिंद महासागर विश्वविद्यालय स्थापित करने के एक नए सुझाव का प्रस्ताव रखाजहां समुद्री सुरक्षा से संबंधित पाठ्यक्रमों पर अधिक ध्यान दिया जाए।
विदेश मंत्री ने 'हिन्द-प्रशांत’ क्षेत्रमें भारत की भूमिका के बारे में संक्षेप में बात की। वैचारिक रूप से, भारत के दृष्टिकोण से 'हिन्द-प्रशांत की अवधारणा को ‘पूर्व की ओर देखो’नीति के आधुनिक संस्करण के रूप में देखा जा सकता हैजिसने दक्षिण-पूर्व और पूर्वी एशिया के साथ भारत के पारंपरिक संबंधों का विस्तार करने और उन्हें मजबूत बनाने में योगदान दिया है और मलक्का जलडमरूमध्य से आगे तक देश की उपस्थिति एवं लाभ को पहुँचाया है। चीन के साथ भारत के संबंधों ने कई गुना विस्तार किया हैजिससे चीन व्यापारिक गतिविधियों में भारत का सबसे बड़ा व्यावसायिक भागीदार बन गया है। व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते (CEPA) के साथ जापान और कोरिया गणराज्य के साथ गहरे संबंध स्थापित किए गए हैं। भारत निश्चित तौर पर जापानी आधिकारिक विकास सहायता से सबसे अधिक सहायता प्राप्त करने वाला देश थाऔर जापान भारत में महत्वपूर्ण निवेश कर रहा था। इन आर्थिक संबंधों ने सामरिक साझेदारी की स्थापना के साथ एक गहरा संबंध स्थापित कर लिया है।
दूसरा दिन
चौथा सत्र – हिन्द-प्रशांत क्षेत्र : अमेरिका, रूस और यूरोपीय संघ के परिप्रेक्ष्य में
राजदूत शीलकांत शर्मा, भूतपूर्व महासचिव, सार्कने चौथे सत्र की अध्यक्षता कीऔर तीन वैश्विक शक्तियोंअमेरिका, रूस और यूरोपीय संघ से ‘हिन्द-प्रशांत’ की अवधारणा की तुलना की।
एशिया-पैसिफिक सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक स्टडीज, हवाईके निदेशक, लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त), डैनियल लीफ ने तर्क दियाकि यह मानना भ्रमथी कि अमेरिका चीन की परमाणु गतिविधियों को नियंत्रित कर रहा था। जबकि अंतर-राज्य संबंधों और क्षेत्र की सामान्य राजनीति के प्रबंधन में यह चिंता का विषय हो सकता हैलेकिन चीन की सैन्य शक्ति के आकार और ताकत के कारण उस पर नियंत्रण रखने का इरादा रखना 'हास्यास्पद' था। उन्होंने स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया कि इनके बीच कोई नया शीत युद्ध चल रहा था क्योंकि दोनों देशों के बीच कोई बड़े वैचारिक मतभेद नहीं थे। अमेरिका ने इस क्षेत्र में शांति, स्थिरता और समृद्धि को बढ़ावा देने के रास्ते तलाशे, हालांकि सैन्य विस्तार महत्वपूर्ण थाअमेरिका द्वारा संवाद और भागीदारी विशेष रूप से आर्थिक, समुद्री व्यापार और सुरक्षा संबंधित मुद्दों को इस क्षेत्र में वरीरता दी गई थी। अमेरिका ने अपने मित्र देंशों और हिस्सेदारों की क्षमता बढ़ाने पर जोर दिया और हिन्द-प्रशांत मामलों के प्रबंधन में सहकारी संबंधों पर भरोसा किया। हिन्द एवं प्रशांतमहासागर चौतरफा व्यापार, निवेश एवं ऊर्जा आपूर्ति के सामरिक धुरी के रूप में उभरे हैं जो भविष्य में प्रतिस्पर्धा एवं सहयोग की क्षमता रखते हैं। अमेरिका का मानना था कि जो राष्ट्रहिन्द–प्रशांत की स्थिरता का लाभ उठाते हैं उनका कर्त्तव्य है कि वह हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की व्यवस्था को बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करें जिससे की वे लाभान्वित होते आए हैं।
मॉस्को स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स के लीड रिसर्चर डॉ. येवगेनी अलेक्जेंड्रोविच कनेव ने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के आर्थिक एवं सामरिक असंतुलन के मुख्य पहलूओं पर प्रकाश डाला। डॉ. कनेव ने क्षेत्र में शांति, सद्भाव एवं निष्पक्षता का माहौल स्थापित करने में चीन एवं अमेरिकी नेतृत्व की विफलताओं को रेखांकित किया।जबकि बहुपक्षीय गतिविधियां बढ़ी हैं, मुद्दे जटिल हुए हैं, संवाद का दृष्टिकोण एवं सार प्रवाहहीन और रूढ़िवादी हो गया है। उन्होंने लक्ष्यों, तंत्रों, संस्थानों विशेष रूप से विकास के क्षेत्र में संतुलन बनाने में भारत के प्रयासों की सराहना की।
रूस की हिन्द-प्रशांत के क्षेत्र में भारत की नीतियों के साथ अधिक एकमतता थी जैसे ऊर्जा की सुरक्षा, कानूनी एवं राजनीतिक तरीकों के माध्यम से विवादों का समाधानक्षेत्र का ध्रुवीकरण करना आदि और इन चीजों ने क्षेत्र में निरंतरएवं संयुक्त विकास को बनाए रखने के लिए प्रयास किया। डॉ. कनेव ने तर्क दिया कि हिन्द-प्रशांत के विकास के लक्ष्य, प्रक्रिया एवं संस्थानों में बढ़ रहे असंतुलनको दूर करने में हिन्द-प्रशांत के क्षेत्र में भारत की सक्रिय भागीदारी दुनिया के कई हिस्सों में आर्थिक विकास के उच्च स्तर को बनाए रखने में मदद करेगीजिसमें रूसी संघ भी शामिल है। फलस्वरूप हिन्द-प्रशांत क्षेत्र पर संवाद और उस पर विचार-विमर्श करना स्वागत योग्य था।
अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों के अध्यक्ष प्रोफेसर जोआचिम क्रूस, एस्पेन इंस्टीट्यूट, यूनिवर्सिटी ऑफ किएल, बर्लिनने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में विशेष रूप से जर्मनी और सामान्य रूप में यूरोपीय संघ के परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत किया। प्रो. क्रूस ने यूरोपीय संघ की हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में समुद्री व्यापार,ऊर्जा की सुरक्षा, कच्चे माल और उपभोक्ता बाजारों तक पहुंच के लिए प्रमुख भूमिका पर जोर दिया। एशिया-प्रशांत देशों का 60 प्रतिशत से अधिक व्यापार यूरोपीय संघ से जुड़ा हुआ थाऔर इस कारण समुद्री रास्ते के माध्यम से आवागमन की सुरक्षा यूरोपीय संघ के लिए उच्च प्राथमिकता बन गई। इसलिए, होर्मुज जलडमरूमध्य, स्वेज नहर, अफ्रीका के खाड़ी के प्रक्षिप्त भाग और दक्षिण चीन सागर जैसे अशांत क्षेत्रों का महत्व बड़ातब यूरोपीय संघ ने निर्बाध व्यापार को सक्षम बनाने, मतभेदों को हल करने के लिए एक बहुपक्षीय बातचीत का प्रस्ताव रखा। एक समान नियम, सिद्धांत और मानदंड विवादों को बेहतर ढंग से सुलझाने में मदद करेंगेऔर यूरोपीय संघ का अनुभव अनुकरण के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करेगा। प्रो. क्रूस ने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में संस्थागत सहयोग की अयोग्याताओं को इंगित कियाऔर सुरक्षा समस्याओं के लिए सांझा सुरक्षा समाधानों का तर्क दिया। हिन्द-प्रशांत शब्द अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में यूरोपीय लोगों के लिए अधिक उपयुक्तता हांसिल कर रहा थाऔर यूरोप ने लंबे समय तक स्वयं को एक लाभार्थी के रूप में देखा। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यूरोपीय सुरक्षा के लिएहिन्द-प्रशांत राज्यों में स्थिरता अत्यधिक महत्व रखती थीऔर यूरोप सुरक्षा संबंधी समस्याओं के लिए क्षेत्रीय सहयोग से समाधान निकालने में एशियाई राज्यों की सहायता करने का इच्छुक था।
अधिवेशन को आगे बढ़ाते हुएअध्यक्ष, राजदूत श्री शील कांत शर्मा ने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र को परिवर्तन के शीर्ष पर बतायाजहां भविष्य में जगह बनाने के लिए बहुत अधिक आर्थिक एवं सामरिक गतिशीलता का अनुमान लगाया गया था। इस क्षेत्र को अपने प्रभाव और पहचान के लिए सभी शक्तियाँ दिखानी होंगी और फिर भी यह आशा व्यक्त की जाएगी कि टकराव और प्रभुत्व पर बातचीत और सहयोग बना रहे।
सत्र V: भारत और हिन्द-प्रशांत क्षेत्र
ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के अध्यक्षडॉ. सी. राजा मोहन, ने पांचवें सत्र की अध्यक्षता कीयह सत्र हिन्द-प्रशांत क्षेत्रमें भारत की भूमिका की संभावनाओं पर तीखी बहस का साक्षी बना, भारत को इस क्षेत्र में कई चुनौतियों और बाधाओं का सामना करना पड़ाऔर इस क्षेत्र में अपने हितों को बरकरार रखने के लिए अपनी कोशिशों को जारी रखना पड़ा।
राजदूत हेमंतकृष्ण सिंह ने तर्क दिया कि चीन ने भारत के लिए एक बड़ी चुनौती पेश कीजिसने स्वयं को महाद्वीपीय और समुद्री शक्ति के रूप में पुन: स्थापित किया। एक आत्मविश्वासी शक्ति के रूप में चीन बहुपक्षीय कार्यवाई पर एकतरफा कार्य कर रहा था और एक पदानुक्रमित प्रणाली को बढ़ावा दे रहा थाजहां उसने शीर्ष स्थान हांसिल कर लिया था। भारत को आसियान, ईएएस और यूएस-जापान धुरी के साथ अपने बहुपक्षीय संबंधों को मजबूत करके चीन को जवाब देना चाहिएऔर चीन को सभी क्षेत्रीय शक्तियों के हितों के लिए अधिक सहायक बनने के लिए मजबूर करना चाहिए। राजदूत सिंह ने जोर देकर कहा कि हाल के दिनों में जो मूलभूत परिवर्तन देखा गया थावह उभरते एशिया पर क्षेत्रीय संवाद में भारत का हस्तक्षेप थाजो 2005 में पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन के प्रारम्भ से भारत की भागीदारी के साथ शुरू हुआ था। उन्होंने सुझाव दिया कि भारत को सार्वजनिक सामान के आदान-प्रदान में सक्रिय होना चाहिएजिसमें सुरक्षा संबंधी मामला भी शामिल हैऔर अपनी 'पूर्व की ओर देखो' नीति को सुदृढ़ करके अपनी अप्रयुक्त आर्थिक क्षमता का एहसास कराना चाहिए,क्षेत्र में आधाभूत संबंधों की स्थापना करनी चाहिए और सभी हितधारकों के साथ सामरिक भागीदारी को बढ़ावा देना चाहिए। राजदूत सिंह ने यह कहते हुए निष्कर्ष निकाला कि भारत को एक महाद्वीपीय और समुद्री शक्ति के रूप में स्वयं को पुन: स्थापित करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहना होगा और भारत की भौगोलिक स्थिति इसे आर्थिक प्रगति और सुरक्षा को आकार प्रदान करने के लिए एक अद्वितीय स्थान प्रदान करती है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे.एन.यू.), नई दिल्ली, भारत के प्रोफेसर स्वर्ण सिंह ने तर्क दिया कि चीन-भारतीय प्रतिद्वंद्विता को अधिक प्रचारित किया गया थाजबकि चीन का प्रतिद्वन्द्व मुख्य रूप से ताइवान, वियतनाम, अमेरिका और रूस के साथ था। अमेरिका भारत को उकसा रहा थाऔर भारत चीन के खिलाफ अमेरिका को लाभ पहुँचा रहा थाजैसा कि उनकी हालिया सामरिक साझेदारी में देखा गया हैजिस कारण चीन को भारत के इरादों पर संदेह हुआ। हालांकि, भारत और चीन दोनों के एक साथ विकास करने की पर्याप्त गुंजाइश थी। इसके अतिरिक्तदोनों देशों के बीच मौजूद विषम संबंधों को देखते हुए चीन का साथ देना भारत की प्राथमिकता नहीं थी।
आईसीडब्ल्यूए के निदेशक (अनुसंधान), डॉ. विजय सखुजाने हिन्द-प्रशांत की अवधारणा के पुनर्निर्माण का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि स्थानिक अवधारणा के रूप में हिन्द-प्रशांत अभी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में था इसने अपनीआधिकारिक लेक्सिकॉन में प्रवेश नहीं किया हैऔर नीति विश्लेषण के लिए एक उपयोगी वर्गीकरण करने से पहले समीक्षात्मक परीक्षण की आवश्यकता है। जबकि बृहत आर्थिक क्षमताविशेष रूप से समुद्री व्यापार के संबंध में स्पष्ट थी, यह अनिश्चित था कि व्यापार को सुविधाजनक बनाने के लिए विवादों से लेकर समुद्री डकैती तक सभी मुद्दों को हल करने के लिए एक व्यापक हिन्द-प्रशांत की संरचना संभव होगी। डॉ. सखूजा ने कहा कि निकट अवधि में कर्ताओं एवं संगठनों के बीच उप-क्षेत्रीयता एक बड़े एकाकी संघटित संस्थान के स्थान पर एक बेहतर विकल्प के रूप में कार्य करेगी।
नेशनल मैरीटाइम फाउंडेशन (एनएमएफ) के शोधकर्ता,कमांडर राघवेंद्र मिश्रा,ने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की भू-अर्थशास्त्र और भू-रणनीतियों के विभिन्न आयामों की रूपरेखा को भारत के नजरिये से प्रस्तुत किया। उन्होंने तर्क दिया कि भारतीय सामरिक सोच में बदलाव ने समुद्री क्षेत्र को पारंपरिक सीमाओं और बाधाओं से विस्थापित कर क्रियाशील आर्थिक मेलजोल को सक्षम करने वाले माध्यम के रूप में प्रस्तुत किया है। हालांकि, सैन्य मोर्चे पर क्षमताओं में वृद्धि करते हुएभारत बंदरगाहों के बुनियादी ढांचे के निर्माण के संबंध में कमजोर बना रहा। कमांडर मिश्रा ने सुझाव दिया कि भूमंडलीकरण, समाज और राज्यों के बीच परस्पर निर्भरता और संबंधों के द्वारा खुले अवसरों का उपयोग करने के लिए नीति को अधिक कार्यात्मक एवं भागीदारी उन्मुख नीति के रूपा में बदलना पड़ा।
डॉ. सी. राजा मोहन ने इस अवलोकन के साथ सत्र का समापन किया कि भौगोलिक स्थिति अस्तित्वहीन इकाइयाँ थींपरन्तु सक्रिय अवधारणाएँ थींजो उभरते राजनीतिक परिदृश्यों को अनुकूल परिस्थितियां प्रदान कर रहीं थीं। उन्होंने समर्थन दिया कि भाषा के 'शब्दों और व्याकरण’ से ओत-प्रोत न होंबल्कि व्यापक संदर्भों और विकसित होते परिदृश्यों को समझें। नई संरचना में कार्य करने वाले नए कार्यकर्ता समय बीतने के साथ-साथ परिपक्व होते हैं और उन्हें समय से पूर्व आंकने के बजाय उन्हें अपनी नीतियों के साथ प्रयोग करने के लिए पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए।
सत्र VI: आर्थिक एकीकरण की संभावनाएँ
राजदूत अमर नाथ राम ने अंतिम सत्र की अध्यक्षता की, जिसमें हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में आर्थिक एकीकरण की संभावनाओं पर चर्चा की गई।
लक्ष्मण कादिरगमर इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस एंड स्ट्रैटेजिक स्टडीज (LKIIRS) के कार्यकारी निदेशक, श्री असंगा अब्यगुनसेकरा ने तर्क दिया कि पश्चिम में वित्तीय संकट गहराने के बाद हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के माध्यम से वित्तीय संकट उत्तर से दक्षिण में स्थानांतरित होकर पुन: प्रभावशाली हो गया था। हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में आर्थिक समेकन स्थिरता प्रदान करेगा और परस्पर-निर्भरता बढ़ाएगा। हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में भारत, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका प्रमुख देश थे। आर्थिक सहयोग एशिया में भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के लिए एक व्यवहारात्मक समाधान पेश कर सकता है। इसके अलावा, भारत-श्रीलंका मुक्त व्यापार समझौते के माध्यम से भारत के साथ श्रीलंका के गहरे होते रिश्तों से भारत के निर्यातकों को मदद मिलेगी। श्रीलंका में निर्यात बाजार के विस्तार से शिक्षा, प्रौद्योगिकी, अनुसंधान, सूचना, संचार, और निवेश में बढ़ोतरी से हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की पहुँच विदेशी बाजारों तक बन सकती है।
रीजनल इंस्टीट्यूट फॉर इंडियन ओशन इकोनॉमिक्स, युन्नान यूनिवर्सिटी, कुनमिंग, चीन के उप-निदेशक,डॉ. झू क्यूइपिंगने बताया कि क्षेत्रीय एकीकरण के लिए आर्थिक एकीकरण पहली और सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता थी। डॉ. क्यूइपिंग ने देखा कि वैश्वीकरण दुनिया को (म्यूचुअल एश्योर्ड डिस्ट्रक्शन) से मेड (म्यूचुअल इकनॉमिक डिपेंडेंस) में बदल सकता है। उन्होंने दोनों महासागरों को एकीकृत करने में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार किया। लेकिनमुख्य हितधारकों, विशेष रूप से चीन और भारत के संबंध हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के एकीकरण के लिए महत्वपूर्ण थे। एक अवधारणा के रूप मेंहिन्द-प्रशांत क्षेत्रक्षेत्रीय संबंधों को संरचित कर रहा है, क्षेत्रीय असुरक्षा को कम कर रहा है और आर्थिक सहयोग को बढ़ा रहा है जिससे विकास की स्थिति बन सकती है।
सुश्री मेलिसा कोनले टायलर ने दो दिवसीय सम्मेलन का अवलोकन करते हुए सम्मेलन की समीक्षा की और समापन किया। उन्होंने कहा कि क्षेत्र परिवर्तन के दौर में था और हिन्द-प्रशांत क्षेत्र मेंआर्थिक एकीकरण से लेकर संघर्ष तकअस्तित्व से लेकर विकास तक प्रत्येक देश की विभिन्न आवश्यकताएं थीं। इस क्षेत्र के तीन बड़े मुद्दे थे: चीन-अमेरिका, भारत-चीन और उनका शक्ति पर्दशन। हालाँकि, इस संदर्भ मेंयह पूछना उचित था कि क्या ‘हिन्द-प्रशांत’ की यह अवधारणा इन बड़े मुद्दों में से किसी का समाधान करने में मदद करेगी। सुश्री टायलर ने कहा कि यह दो महासागरों तक पहुंचने का प्रयास था, और यह एशिया के साथ-साथ पूरी दुनिया में बहुत महत्व का विषय था।
अध्यक्ष,राजदूत अमर नाथ राम ने कहा कि इसकी वृहत क्षमता, समृद्धि, गतिशीलता के साथ-साथ हिन्द-प्रशांत देशों को आंतरिक रूप से मजबूत करने के लिए एक-दूसरे के साथ सहयोग कर मिलजुल कर रहने की आवश्यकता है। हिन्द-प्रशांत के आर्थिक एकीकरण के साथ-साथ क्षेत्रीय प्राथमिकताओं का भी सम्मान होना चाहिए।
समापन सत्र :
राजदूत राजीव के. भाटिया ने अपने समापन भाषण में कहा कि विशेषज्ञ दल की भूमिका केवल अतीत और वर्तमान के बारे में अध्ययन करने के लिए नहीं थीबल्कि नीति निर्माताओं को सहयोग प्रदान करके भविष्य के बारे में सोचने की भी थी। हिन्द-प्रशांत एक उभरती हुई अवधारणा थीऔर उभरती हुई अंतरराष्ट्रीय संरचना को समझने में मदद करने के लिए एक उपकरण मात्र। उन्होंने टिप्पणी की कि प्रतिष्ठित दल के सदस्य हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के विभिन्न पहलुओं पर आगे बढ़ने वाले सोचे-समझे विचारों को सामने लाते हैं। राजदूत भाटिया ने इस विषय पर भविष्य में अकादमिक और नीतिगत दोनों क्षेत्रों में बहुत कुछ कहा। उन्होंने जोर दिया कि मुख्य मुद्दा अभी भी एशिया में जरूरी एकीकरण का बना हुआ हैऔर यच सच है कि दुनिया को एक एकीकृत एशिया की जरूरत है। जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी जैसे दिग्गजों के शब्दों को याद करते हुएउन्होंने अपना भाषण इस बात के साथ संपन्न किया कि इस सम्मेलन का संदेश 'एकता और सच्चाई' था।
भूतपूर्व सचिव, विदेश मंत्रालय, भारत सरकारश्री संजय सिंहने अपने समापन संबोधन में कहा कि इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप ‘हिन्द-प्रशांत’ की अवधारणा में अधिक स्पष्टता आई हैजो एशिया में क्षेत्रीय सुरक्षा और स्थिरता में प्रासंगिकता हासिल कर रही है। पिछले कुछ वर्षों में ‘हिन्द-प्रशांत’ शब्द का प्रयोग नीति निर्माताओं, रणनीतिक विचारकों और विशेषज्ञ दल के बीच चर्चा के दौरान तेजी से किया जा रहा था। सम्मेलन ने इसे स्थानिक रूप से परिभाषित करनेएवंहिंद महासागर, दक्षिण पूर्व एशिया, अमेरिका, रूस और यूरोपीय संघ से संबंधित दृष्टिकोण प्राप्त करने का प्रयास किया था। इसने इस क्षेत्र के साथ भारत के जुड़ाव और इसके आर्थिक एकीकरण की संभावनाओं पर चर्चा की थी।
हिन्द-प्रशांत के एशियाई परिप्रेक्ष्य में हिन्द-प्रशांत क्षेत्र पर हुए तर्क-वितर्क भारत की 'पूर्व की ओर देखो' नीति में हो रही महत्वपूर्ण प्रगति के समय हुएजो भारत के दृष्टिकोण से लाभदायक है। दूसरी ओर, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के एशियाई परिप्रेक्ष्य के लिए एक और आश्रय बदलती भू-राजनीति है जिसका प्रभावक्षेत्रहितधारकों और उनकी रणनीतिक प्राथमिकताओं पर पड़ेगा। एशिया के भीतर आम चुनौतियों से निपटने, विकास, समृद्धि, शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने के लिए राजनीतिकसुरक्षा एवं संरचना बनाने की अत्यंत आवश्यकता थी।
श्री सिंह ने कहा कि इन वर्षों मेंहिन्द-प्रशांत क्षेत्र ने आपदा प्रबंधन, जोखिम में कमी, पर्यटन को बढ़ावा, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, मत्स्य प्रबंधन, व्यापार और आर्थिक सुविधा में नई चुनौतियां के सहयोग के माध्यम से सामना करने की बात की। इसके अतिरिक्त क्षेत्र के सापेक्षिक महत्व में वृद्धि होने जा रही थी इसमें आसियान की केंद्रीय भूमिका होगी। आसियान-भारत योजना ने राजनीति, सुरक्षा, आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक स्तंभों में सहयोग से संबंधित परियोजना के पहलुओं को समझने में दिशा प्रदान की। इसने आर्थिक विकास, साझा समृद्धि, शांति और स्थिरता, क्षमता निर्माण पर बढ़ती निर्भरता, भौगोलिक गलियारों, भूमि, समुद्र और हवा के ऊपर, संस्थानों, लोगों से लोगों के बीच संपर्क और अब डिजिटल स्पेस के माध्यम से आम दृष्टिकोण को रेखांकित किया। संपूर्ण क्षेत्र की नई परिभाषा के निर्माण का उद्देश्य काफी हद तक एक अद्वितीय साझेदारी को बनाए रखने का कार्य करता है। यूरो क्षेत्र में पर्यटन, समुद्री डकैती के गहराये संकट और पर्यावरणीय चुनौतियों ने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की तरफ ध्यान परिवर्तित किया।
हिन्द-प्रशांत का व्यापक क्षेत्र लगभग 3 बिलियन लोगों का घर थाऔर लगभग 20 ट्रिलियन डॉलर का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) था। इसमें दुनिया की चार सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से तीन थी यानी चीन, भारत और जापानऔर दुनिया के समुद्री व्यापार, खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा के लिए सबसे अधिक उपयुक्त एवं महत्वपूर्ण क्षेत्र था। वैश्वीकरण और भौगोलिक स्थानों के दबाव के परिणामस्वरूप समकालीन वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करने के लिए हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की अगुवाई कर रहा था। श्री सिंह ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हवाले से निष्कर्ष निकाला कि "हम आसियान के साथ हमारी साझेदारी को केवल पड़ोसी देशों के साथ संबंधों की पुन: पुष्टि या आर्थिक विकास के साधन के रूप में ही नहींबल्कि हमारे दृष्टिकोण के अनुरूप एक स्थिर, सुरक्षित और समृद्ध एशिया और आसपास के हिंद महासागर और प्रशांत क्षेत्र को एक अभिन्न अंग के रूप में भी देखते हैं।हमारा भविष्य आपस में एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है और एक स्थिरसुरक्षित और समृद्ध हिन्द-प्रशांत क्षेत्र हैजो हमारी अपनी प्रगति और समृद्धि के लिए महत्वपूर्ण है।
एसोसिएशन ऑफ एशिया स्कॉलर्स की महासचिव डॉ. रीना मारवाह ने धन्यवाद प्रस्ताव प्रस्तुत किया। उन्होंने न केवल 'हिन्द-प्रशांत' की अवधारणा पर विचार-विमर्श और चर्चा के उच्च स्तर का उल्लेख किया बल्कि इसके संबंध में कई सदस्यों और दर्शकों की सकारात्मक प्रतिक्रिया भी व्यक्त की।
भविष्य की योजना:
रिपोर्ट के संपादक: डॉ. रीना मारवाह,महासचिव, ए.ए.एस., डॉ. डी. गनगुरुन्थन, अध्येता, अध्येता विश्व मामलों की भारतीय परिषद, नई दिल्ली।