‘‘दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग महासंघ में गत्यात्मक बदलाव: क्षेत्र में चुनौतियां और अवसर’’
विषय पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन पर रिपोर्ट
राजनैतिक विज्ञान विभाग, राष्ट्रीय शिक्षा समाज, रतनाम कला, विज्ञान तथा वाणिज्य महाविद्यालय, भान्डुप, मुम्बई द्वारा
भारतीय विदेश मामले परिषद्, नई दिल्ली
के सहयोग से
मुम्बई
8-9 दिसम्बर, 2017
दो दिवसीय सम्मेलन में पूरे भारतवर्ष से 61 प्रतिनिधिमण्डलों ने भाग लिया। इन्होंने जवाहरलाल विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, गुजरात के केंद्रीय विश्वविद्यालय, पांडीचेरी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मुम्बई विश्वविद्यालय,का प्रतिनिधित्व किया ये थोड़े से नाम दिए हैं, स्वतंत्र शोधार्थियों तथा कार्यकत्ताओं ने भी सम्मेलन में भाग लिया।
कुछ प्रतिष्ठित गणमान्य व्यक्तियों में शामिल हैं:
श्री अजनीश कुमार,आईएफएस, उपमहानिदेशक, आईसीडब्ल्यूए, जो मुख्य वक्ता थे, ने आज के संदर्भ में सार्क की प्रासंगिकता तथा इसके सामने आई चुनौतियों पर भाषण दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध:सक्रिय विदेश नीति ने सार्क के एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय सहयोग के रूप में बने रहने में मदद की है। श्री अजनीश कुमार ने बताया कि भारत सरकार की ‘‘पड़ौसीप्रथम’’ जैसी नीतियों ने सार्क के विकास तथा इसके उद्देश्य की प्राप्ति में मदद की है।
‘‘प्रवास/विस्थापन/मानव तस्करी तथा जबरन प्रवास’’ पर प्रथम सत्र अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रवाद की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि के साथ शुरू हुआ। इस सत्रमें प्रस्तुतियां का फोकस क्षेत्र में ‘‘लिंग तथा पर्यावरणीय अपकर्ष तथा निर्धनता’’ के बीच जटिल संबंध जैसे मसलों पर था। प्रस्तुतियों में दक्षिण एशिया में भारत के ‘साफ्ट पावर की पहुंच’ शामिल थी।
द्वितीय सत्रराष्ट्र निर्माण, राष्ट्रवाद, आतंकवाद तथा राजद्रोह आन्दोलनों पर उपक्षेत्रवाद तथा उपक्षेत्रवाद पूरक है या क्षेत्रवाद के साथ प्रतियोगी इस पर वाद-विवाद की प्रस्तुति के साथ प्रारंभ हुआ। उग्रवाद का मुद्दा तथा इसने सार्क को कैसे कमजोर किया इस पर सत्र में अन्य प्रस्तुतकर्त्ताओं ने बड़े आवेश के साथ विचार-विमर्श किया। डॉ. अम्बरीन आगा, अनुसंधान अधिष्ठात्रि भारतीय विश्व मामलों की परिषद्, नई दिल्ली ने भारत-पाकिस्तान युद्धस्थिति लक्षणों को सार्क के आर्थिक अखंड़ता की प्रक्रिया के वितरण तथा विस्तार के प्राथमिक उद्देश्य को सबसे बड़ी चुनौती के रूप में माना। इसके गैर-निष्पादन के मद्देनजर उसके सार्क के विकल्पों का सवाल उठाया तथा ऐसे बदलाव के क्षेत्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक निहितार्थों पर प्रकाश डाला। कश्मीर में शांति के लिए भावनात्मक दलीलें थीं तो प्रतिनिधिमण्डलों ने हितधारकों को संलिप्त करने की जरूरत अर्थात् लोगों में आपसी बातचीत का उल्लेख किया।
तीसरे सत्र में, जो सीमाओं, जल तथा ऊर्जा विवादों, जलवायु परिवर्तन तथा आपदा तैयारी पर था, प्रस्तुतकर्त्ताओं ने खेद जताया कि क्षेत्र कम निष्ठावान तथा बिना क्षेत्रवाद का क्षेत्र है। खेद व्यक्त किया गया कि सार्कजिस अधिक संलिप्तता के लिए आर्थिक ब्लॉक के रूप में अभिकल्पित किया गया था स्वतंत्र व्यापार के अपने वादे पूरे करने में ही विफल नहीं रहा बल्कि भारत और पाकिस्तान के बीच तनावपूर्ण संबंधों का बंधक ही बन गया। क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए सार्क देशों द्वारा समन्वित कूटनीति अपनाने का सुझाव भी था।
सहस्राब्दीय (मिलेनियम) विकास लक्ष्यों/गरीबी उन्मूलन/ स्वास्थ्य, शिक्षा तथा लिंग असमानता पर चौथे सत्र में हिंसक अतिवाद के लिए महिलाओं की भर्ती के प्राय: उपेक्षित मुद्दे पर विस्तार से चर्चा हुई। यह सुझाव दिया गया कि हिसंक अतिवाद की रोकथाम के लिए महिलाओं को महत्वपूर्ण भूमिका सौपी जानी चाहिए।
5वें सत्र में व्यापार बाजारों तथा दक्षिण एशिया की राजनीतिक अर्थव्यवस्थाओं, दक्षिण एशियाई देशों के बीच कमजोर होते व्यापार सम्पर्कों पर शोक प्रकट किया गया। यह तर्क दिया गया कि सार्क जैसे क्षेत्रीय संगठन वैश्विकरण से लाभ लेने के लिए विकासशील देशों की क्षमता बढ़ा सकते हैं।
विश्वास की कमी तथा सीमा पार उग्रवाद को सार्क के लिए सबसे बड़ी चुनौतियां माना गया। वक्ता दर वक्ता ने इस पर चर्चा की। सभी में यह आम सहमति रही कि इस क्षेत्र में सार्क ही एक मुख्य संगठन रहना है जिसे न केवल सभी राष्ट्रों को इकट्ठे बांधे रखना चाहिए वरन् यह चीन तथा यू.एस.ए जैसी बड़ी शक्तियों के लिए भी आकर्षक बन गया है। डॉ. श्रीराधा दत्ता के शब्दों में निष्कर्षत: ‘‘प्रत्येक सदस्य देश का यह सुनिश्चित करने में हित है कि सार्क न केवल जीवित ही रहे वरन् एक एकीकृत अर्थव्यवस्था का अपना वचन भी पूरा करे। असहयोग की कीमत बहुत ऊंची है, इसलिए सार्क को आगे बढ़ानेका मार्ग प्रशस्त होगा’’।
सम्मेलन की उपलब्धियां:
सरस्वती उन्नी
विभागाध्यक्ष, राजनीतिक विज्ञान
सम्मेलन संयोजक।