"भारत के पूर्वोत्तर राज्य और पूर्वी पड़ोसी: सीमा भूमि, लोग और संयोजकता"
पर
राष्ट्रीय संगोष्ठी
एशियन कांफ्लुएसं, शिलांग
09-10 मार्च, 2017
एशियन कांफ्लुएसं के युवा विद्वान मंच ने 'भारत के पूर्वोत्तर राज्य और पूर्वी पड़ोसी: सीमा भूमि, लोगऔर संयोजकता पर दो दिवसीय (09-10 मार्च 2017) राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया था।
उद्घाटन सत्र में राजदूत रिवाड़ वार्जरी, डॉ. आरसी लालू, मेघालय के उपमुख्यमंत्री, श्री पियूष श्रीवास्तव, संयुक्त सचिव आईसीडब्ल्यूए, नई दिल्ली, के मौलाना अबुल कलाम आजाद एशियाई अध्ययन संस्थान कोलकाता के निदेशक प्रोफेसर श्रीराधा दत्ता, श्री पीके दुबे,महरनिरिक्षकबीएसएफ, मेघालय फ्रंटियर और श्री पी.एस. डाखर, आईएएसडीसी ईस्ट खासी हिल्स, शिलांग उपस्थित थे। उद्घाटन सत्र और प्रथम पैनल चर्चा की अध्यक्षता राजदूत रिवाड़ वार्जरी ने की।
राजदूत वार्जरी ने उद्घाटन पैनल के स्वरूप की सराहना की, जिसने सरकार, नौकरशाही, प्रशासनिक और विदेश सेवा, सीमा सुरक्षा बलों के सदस्य के साथ-साथ शिक्षाविदों के सदस्य थे।
स्वागत भाषण में एशियन कांफ्लुएंस के कार्यकारी निदेशक श्री सब्यसाची दत्ता ने बताया कि वर्तमान युवा विद्वान मंच तीन प्रिज्म पर आधारित है। सुरक्षा, बाहरी संबंध और क्षेत्र का विकास । पूरा प्रयासइन तीनों प्रिज्म को एकाग्र करने की है। श्री दत्ता ने इस संवाद की संरचना की प्रक्रिया में आईसीडब्ल्यूए की भूमिका की हार्दिक सराहना की। अतीत में आईसीडब्ल्यूए ने भी इस प्रकार की प्रक्रिया में एशियन कांफ्लुएंस के साथ सहयोग किया है। इस संबंध में2014 में शिलांग वार्ता शुरू हुई जिसे शिलांग आम सहमति के रूप में प्रकाशित किया गया था। आईसीडब्ल्यूए और एशियन कांफ्लुएंस के बीच हुआ समझौता ज्ञापन इस प्रकार के मंच को सश्सक्त करने की बुनियादी प्रेरणा में से एक था, के परिणामस्वरूप युवा विद्वान मंच का उदय हुआ। अध्यक्ष ने कहा कि युवा विद्वानों मंच ने पूर्वोत्तर भारत को समझने और अध्ययन करने में नेतृत्वकी भूमिका निभाई है।
मेघालय के उपमुख्यमंत्री डॉ. आर. सी. लालू ने विनर्मतापूर्वक कहा कि मंच पर इतनी महान विभूतियों जो प्रत्यक्ष रूप से क्षेत्र के विकास में और युवाओं की विचारधाराओं को सशक्त करने में अमहम भूमिक निभा रहे है, की उपस्थिती में उनका कद बहुत छोटा है, अत : वे उचित योगदान देने में सक्षम नहीं हैं। उन्होंने कहा कि सीमाएं राजनीति और राजनेताओं के प्रश्न बनी हुई हैं और ऐसी सीमाओं से उपजी समस्याओं को राजनेताओं की परिपक्वता और दूरदर्शी निर्णय से किस प्रकार सुलझाया जा सकता है । उन्होंने कहा कि जब राज्य और सुरक्षा तंत्र और आम आदमी की बात आती है तो सीमाओं और सीमाओं की धारणा किस प्रकार बदल जाती है ।
विशेष संबोधन के बाद, नेहू के इतिहास विभाग के डॉ. बिनायक दत्ता ने आईसीडब्ल्यूए के महानिदेशक श्री नलिन सूरी के संदेश पढ़कर सुनाया।
आईसीडब्ल्यूए के संयुक्त सचिव श्री पीयूष श्रीवास्तव ने अपने विशेष संबोधन में युवा विद्वान मंच की प्रासंगिकता और इस विषय की प्रयोज्यता को बताया, जो न केवल पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए, बल्कि पूरे राष्ट्र और दक्षिण पूर्वी एशिया के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। शोधकर्ताओं और युवा विद्वानों के हितार्थ् उन्होंने आईसीडब्ल्यूए की भूमिका और कार्य के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि सीमावर्ती क्षेत्र पारस्परिक लाभ और सहयोग और समझ की आधारशिला बन सकते हैं। भारत सरकार ने इस बात का एहसास कर लिया है। शुरू से ही देश ने अपने पड़ोसियों के साथ संबंध बनाने पर जोर दिया है, जिसने वर्तमान सरकार द्वारा अपनाई गई 'पड़ोस प्रथम' नीति में आकार पाया है। भारत में शांतिपूर्ण सीमाओं के साथ-साथ संघर्षपूर्ण सीमाएं भी हैं। भारत ने नेपाल और भूटान के साथ वीजा मुक्त सीमाएँ सहभाजित की हैं, जो विश्व में अद्वितीयहैं। हालांकि, उन्होंने समृद्धि और आर्थिक विकास के लिए क्षेत्रके रूप में सीमाओं को परिवर्तित करने में शामिल चुनौतियों का उल्लेख किया। वर्तमान सरकार की 'एक्ट ईस्ट नीति' में संयोजकता, संरचना, आसूचना, हाईवे, व्यापार, निर्माण, अंतरिक्ष और विज्ञान व पौघोगिकी में सहयोग और लोगों के बीच आदान-प्रदान पर जोर दिया गया, जो क्षेत्रीय एकीकरण और समृद्धि के लिए स्प्रिंगबोर्ड होगा, और प्रभावी ढंग से आसियान के साथ हमारे पूर्वोत्तर क्षेत्र को जोड़देगा। वे आश्वस्त हैं कि विवेचना के परिणाम विचारों, धारणाओं, अवधारणाओं और दर्शनों को एकीकृत करने के रास्ते में ताकत और चुनौतियों के चिन्हीकरण करने में सक्षम होंगे, जिसका सकारात्मक परिणाम होगा,जिससेक्षेत्र और राष्ट्र के भावी विकास और एकीकृत विकास के लिए कार्यात्मक योजना बन सकेगी।
मौलाना अब्दुल कलाम आजाद एशियाई अध्ययन संस्थान की निदेशक प्रोफेसर श्रीराधा दत्ता ने सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य में सीमाओं की भूमिका का विश्लेषण किया। उन्होंने सीमांकन और शासक की संपत्ति के सीमा होने पर शून्य रेखा के इतर से सीमाओं को देखने की मांग की। उन्होंने कहा कि सीमाओं ने किस प्रकार राज्य का पुननिर्माण किया है, विशेष रूप से यूरोप जैसे संस्थानों पर। सीमाओं की राजनीतिक धारणा को बदलने, सकारात्मक कार्यों का निर्माण करने, सीमाओं की खाई को पाटने की तत्काल आवश्यकता है। उन्होंने सीमा हाटों की भूमिका पर जोर देते हुए सीमा पर रहने वाले लोगों की अपेक्षित गरिमा प्रदान करने के लिए सुरक्षा बलों की संवेदनाओं की कमी की आलोचना की।
उद्घाटन सत्र के अंत में पहली पूर्ण चर्चा राजदूत रिवाड़ वारजरी की अध्यक्षता में हुई। सबसे पहले चर्चा करने वाले मेघालय फ्रंटियर के बीएसएफ के महानिरीक्षक श्री पी.के.दूबे ने बताया कि सीमाओं पर चर्चा या संव्यवाहार के दौरान सकारात्मकता में किस प्रकार कमी होती है। उन्होंने सीमा चौकियों के रखरखाव में सरकारी संस्थानों की उदासीनता का भी जिक्र किया। उन्होंने सीमाओं और अंतर्देशीय क्षेत्रों के बीच संपर्क की कमी का भी उल्लेख किया, जिसके कारण सीमावर्ती भूमि अलग-थलग पड़ गई है। उन्होंने केंद्र के साथ-साथ राज्य से मजबूत राजनीतिक निर्णयों की तत्काल आवश्यकता की मांग की ताकि सीमावर्ती क्षेत्रों को समृद्धि के क्षेत्र बनाने में उचित समन्वय हो सके।
श्री पी.एस.ढांखड़,आईएएसडी.सी. ईस्ट खासी हिल्स ने सीमाओं की अवधारणा को ओवरलैप करने वाले भय के बारे में बताया। उन्होंने सीमा पररहने वाले लोगों को तैयार करने पर भी जोर दिया। उन्होंने सीमा हाटों की भूमिका को मजबूत करने, बेची जा रही वस्तुओं की संख्या बढ़ाने के साथ-साथ उन्हें सीमाओं की सकारात्मकता को सुदृढ़करने के लिए एक महत्वपूर्ण कारकबनाने की आवश्यकतापर भी जोर दिया।
दूसरे दिन की शुरुआत असम विश्वविद्यालय सिलचर के प्रोफेसर सजल नाग द्वारा प्रदान किए गए दूसरे पूर्ण व्याख्यान से हुई। सत्र की अध्यक्षता मकाइस की निदेशक डॉ. श्रीराधा दत्ता ने की। प्रोफेसर नाग ने प्राच्य अध्ययनों में विकसित सीमा की ऐतिहासिक कथानक का उल्लेख किया, जिसने समुदायों के बीच उन पर रहने वाले समुदायों को मजबूत करने के बजाय अधिक भय और अविश्वास पैदा किया है। असम और उत्तर बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्रों में पैदा हुए संघर्षों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर चर्चा करते हुए उन्होंने इस बात की जांच की कि पूर्वोत्तर भारत में समुदायों के भीतर संघर्ष को समझने और उसका आकलन करने में यहकिस प्रकार से अभिन्न बने हुए हैं, विशेषकरअसम। पूर्ण व्याख्यान के बाद प्रथम सत्र का आयोजन प्रोफेसर नाग ने किया। पहले सत्र का विषय सीमाएं, परिधियांऔर नागरिकता था।
विश्व मामलों की भारतीय परिषद की अध्येता डॉ. ध्रुबज्योति भट्टाचार्य ने पूर्वोत्तर भारत में सीमा भूमि समुदायों के लिए नागरिकता और पहचान: एक अलग परिप्रेक्ष्य शीर्षक से एक शोधप्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि नागरिकता और पहचान की चल रही राजनीति पर गौर करने के बजाय संघर्षपूर्ण क्षेत्रों और समाजों में विश्वास बहाली के औजार के रूप में नागरिकता और एक समुदाय की पहचान की अवधारणा का मूल्यांकन करने की आवश्यकताहै। महत्वपूर्ण चुनौतियां प्रस्तुत करने के बावजूद भारत और म्यांमार के बीच असुरक्षित सीमाएं सामाजिक-आर्थिक राजनीतिक विकास के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करते हैं। उन्होंने कहा कि इस प्रकार शिक्षाविदों और विद्वानों के लिए यह समझदारी होगी कि वे समुदायों के बीच विश्वास निर्माण के कारकहोने के व्यापक नजरिए से नागरिकता और पहचान के बीच संबंधों का अध्ययन करें।
डॉ. पलाश कुमार नाथ,असम के अनान्दोराम बोरोआह भाषा, कला और संस्कृति संस्थान ने जातीय भाषाओं और संस्कृति के खतरे का मुद्दा: पूर्वोत्तर भारत से परिप्रेक्ष्य शीर्षक पर एक शोध प्रस्तुत किया। अध्यक्ष ने कुछ जातीय समुदायों की भाषा और संस्कृति को खतरे में डालने का मुद्दा उठाया है, जिसने इस गति के कारण बहुत ध्यान प्राप्त किया है जिसमें इनमें से कई भाषाएं और सांस्कृतिक लुप्त हो रही हैं। शोधने अपनी भाषा के संरक्षण और पुनरोद्धार की दिशा में सिंगफोस और ताई खमयांगजैसे कुछ जातीय समुदायों के साथ काम करने के अनुभव पर वक्ताओंको आकर्षित किया। इस प्रस्तुति में मुख्य रूप से विभिन्न कारकों पर चर्चा करने पर ध्यान केंद्रित किया गया जिससे पूर्वोत्तर भारत के संदर्भ में ऐसी भाषाओं और संस्कृति का नुकसान हुआ है। वक्ता ने उन विभिन्न प्रयासों पर भी ध्यान केंद्रित करता था जिनमेंवहइन भाषाओं के दस्तावेजीकरण, संरक्षण और सुदृढ़ीकरण की दिशा में शामिल थे। अध्यक्ष ने उनकी भाषा और संस्कृति के संरक्षण और पुनरोद्धार की प्रक्रिया में सामुदायिक भागीदारी और सशक्तिकरण की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने अपनी भाषा और संस्कृति के संरक्षण की दिशा में सामुदायिक संवेदीकरण और सशक्तिकरण के मुद्दे पर संक्षेप में चर्चा की।
नेहू के इतिहास विभाग के डॉ. बिनायक दत्ता ने पूर्वोत्तर भारत में विभाजन और नागरिकता की दुर्दशा शीर्षक से एक शोधप्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि हालांकि भारत के विभाजन पर बहुत कम संदेह है जिससे अत्यधिक हिंसा, विस्थापन और पीड़ा पैदा हुई है, लेकिन विभाजन के इतिहास के अध्ययन कोबहुत कम महत्व दिया गया है। अपने शोधमें उन्होंने बताया कि पूर्वोत्तर भारत में विभाजन कोई घटना नहीं बल्कि एक ऐसी प्रक्रिया है जिसने इस क्षेत्र में राजनीति, सामुदायिक संबंधों और नागरिकता के स्वरूप पर अपनी छाप छोड़ी है। उन्होंने कहा कि इस औपनिवेशिक सीमा पर और सीमा पार लोगों के विस्थापन और पलायन को पूर्वोत्तर भारत के रूप में समझने के लिए किए गए सीमाकंनने लोगों पर राजनीति को गंभीर रूप से जटिल बना दिया है। नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 की परिकल्पना के अनुसार सीमापार से हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने के विचार ने इस क्षेत्र में दावों और दावों को काफी बढ़ा दिया है। उनके शोधने असम में विच्छेदन और विस्थापन इतिहास के पुनर्निर्माण की आवश्यकता पर जोर देने का प्रयास किया गया, जिसमें उन्होंने तर्क दिया, इस क्षेत्र में नागरिकता के विभाजन के इतिहास को देखने के तरीके को बदल सकता है और राजनीति में निरंतरता और व्यवधान के विचार का पता लगाया जा सकता है।
शशितेबोर लालू,अध्येता, एनईएचयू ने ‘‘विभाजन की मेरी दादी की दास्तां- 1947’’शीर्षक से एक शोध प्रस्तुत किया। अध्यक्ष ने पूर्ववर्ती पूर्वी पाकिस्तान और आधुनिक बांग्लादेशमैदानों की सीमा से सटे मेघालय की दक्षिणी तलहटी पर रहने वाले खाई और जनेशिया समुदायों पर ध्यान केंद्रित करते हुए मौखिक, प्रलेखित और सरकारी खातों के दृष्टिकोण से विभाजन के बारे में बताया। इसका उद्देश्य विभाजन से पहले पहाड़ी जनजातियों और मैदानी इलाकों के लोगों के संबंधों, सीमाओं कासीमांकन करने में जटिलताओं और समय की जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकार द्वारा निभाई गई भूमिका को उजागर करना था। अंत में, उन्होंनेअपनी दादी, की व्यथा का सहभाजनकिया जिनका जन्म वाहलांग के गांव में हुआ था और उनकी भूमि का विभाजन से पूर्वऔर पश्चात किस प्रकार विभाजन किया गया था और लोगों ने किस प्रकार अपने बचपन से कुछ किलोमीटर की दूरी पर इस सीमा रेखा से निपटान किया।
विभूति प्रसाद लाहकर, आरणयक, गुवाहटी के तृतीय समापन व्याख्यान के बाद प्रथम सत्र का आयोजन हुआ जिसकी अध्यक्ष्ता प्रोफेसरफेसर सराह हिलाली, आरजीयू, डोईमुस लहकर ने की,जो पार से तीन प्राकृतिक विश्व धरोहर स्थलों में काम कर रहे पांच संरक्षणवादियों में शामिल थे। उन्होंने विश्व 2016 में आईयूसीएन का विरासत हीरो, एक वैश्विक मान्यता पुरस्कार प्राप्त किया और वे अब तक के एकमात्र एशियाई पीपुल्स च्वाइस पुरस्कार प्राप्तकर्त्ता बन गए हैं। उन्होंने बड़े पैमाने पर बात की कि मानस राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र में जानवरों ने सीमाओं की अनदेखी किस प्रकार की है और सहयोग और समर्थन के माध्यम से यह परियोजना भारत में संरक्षित आरक्षित वनों में पाई जाने वाली लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण और संरक्षण पर काम करने में सक्षम रही है, जिसमेंपूर्वोत्तर भारत और भूटान के अनेक राज्य शामिल है।
समापन व्याख्यान के बाद सत्र 2 हुआ जिसकी अध्यक्षता बिभूति प्रसाद लाहकर, आरणयक, गुवाहटी ने की। सत्र का विषय प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन और आजीविका चुनौतियां थी।
डॉ. नारायण शर्मा,कॉटन कॉलेज स्टेट यूनिवर्सिटी ने असम के ऊपरी ब्रह्मपुत्र घाटी में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए आजीविका के मुद्दों को संबोधित करते हुए एक शोधप्रस्तुत किया। असम की ऊपरी ब्रह्मपुत्र घाटी तराई उष्णकटिबंधीय सदाबहार जंगलों को आश्रय देती है, जो विश्वमें सबसे अधिक खतरनाकवनोंमें से एक माना जाता है। कई लुप्तप्राय बड़े स्तनधारी अभी भी इन जंगलों में रहते हैं। ऐतिहासिक आकस्मिकताओं सहितमानव का व्यापक उपयोग, समीपस्थ तराई आज भी यहां पाया जाता है। हालांकि, विखंडितअलग टुकड़ों में से अनेकअभी भी आश्चर्यजनक परिदृश्य की मूल जैव विविधता के अवशेष के संरक्षण करते हैं। स्पष्ट प्रश्न कोई पूछ सकता है कि क्या ये वन खण्डसंरक्षण के लायक हैं। वक्ताने गैर-मानव नखानरका अध्ययन करके इस प्रश्नकी जांच की, जो भूदृश्य परिवर्तन से गंभीर रूप से प्रभावित हैं। शोध-पत्र में ऐसे विकल्प सुझाए गए हैं जो न केवल इस क्षेत्र में जैव विविधता का संरक्षण करते हैं, बल्कि लोगों की आजीविका और आकांक्षाओं को भी बनाए रखते हैं और ऊपरी ब्रह्मपुत्र घाटी के वनों को पारिस्थितिकीय और सामाजिक रूप से टिकाऊ बनाते हैं।
जादवपुर विश्वविद्यालय की अध्येतापराग ज्योति सैकिया ने एक शोध-पत्रप्रस्तुत किया, जिसका शीर्षक है, ‘‘सुभानसिरी कौन जानता है: अशांत नदी पर प्रवचन बंदकरना’’। भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के दो सबसे बड़े राज्यों से होकर बहने वाली सुभानसिरी नदी ब्रह्मपुत्र नदी की सबसे बड़ी सहायक नदी है और हाल के दिनों में 2000 मेगावाटसुभानसिरी लोअर जल-विद्युत परियोजना के निर्माण के इर्द-गिर्दविभिन्न प्रवचनों की युद्धभूमि बन गई है। इस बांध के डाउनस्ट्रीम क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के जीवन और आजीविका पर संभावित प्रभावों ने इस परियोजना के विरूद्धलोगों की राय जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस पृष्ठभूमि में, इस बांध के डाउनस्ट्रीम क्षेत्र में सात महीने तक चलने वाले क्षेत्र-कार्य के आधार पर, वक्ता ने अपना शोधप्रस्तुत किया, जिसमें असम में उपर्युक्त नदी के किनारे आजीविका की विभिन्न विचारधारओं को एकजुट किया गया।शोध-पत्रमें विभिन्न तरीकों पर चर्चा की गई जिसमें लोग नदी पर निर्भर हैं और इसलिए बांध के संभावित प्रभावों का उनके जीवन पर प्रभावहै। इसने विशेषज्ञ समितियों और बांध प्राधिकरण की रिपोर्टों की तुलना में इन पहलुओं का अध्ययन किया गया। इसके साथ ही शोध-पत्र में नदी से जुड़ी विशिष्ट आजीविका प्रथाओं पर विस्तार से प्रकाश देते हुए क्षेत्र की बड़ी राजनीतिक अर्थव्यवस्था के भीतर इन आजीविका को स्थित करने की आवश्यकता पर बल दिया गया ।
श्री दीपांकर लाहकर, आरणयक गुवाहाटी ने 'टाइगर्स ऑफ द ट्रांसबाउंड्री मानस कंजर्वेशन एरिया' शीर्षक से एक शोध-पत्र प्रस्तुत किया। इस प्रस्तुति में सीमापार मानस संरक्षण क्षेत्र के बारे में चर्चा की गई, जो भारत के मानस राष्ट्रीय उद्यान और भूटान के रॉयल मानस राष्ट्रीय उद्यान के अंतर्गतआने वाले क्षेत्र का गठन करता है, जिसेदीर्घकालिक टिकाऊ संरक्षण के लिए बाघोंकी मेटाजनसंख्या प्राप्तकरने के लिए वैश्विक प्राथमिकता वाले बाघ संरक्षण में से एक के रूप में मान्यता दी गई है। यह अध्ययन TriMCAक्षेत्र में बाघों की संख्या का अनुमान लगाने के लिए किया गया था।
दचमी डखर, अध्येता, एनईएचयू ने ‘‘इकोलॉजी, एनवायरमेंट एंड लाइवलीहुड चैलेंजिंग: द क्राफ्ट मेकिंग इन जैंतिया हिल्स’’ शीर्षक से एक शोध प्रस्तुत किया। कहा जाता है कि जैन्तियोंको बर्तन बनाने, कपड़ा बुनाई, गन्ना और बांस के काम, लकड़ी के काम, सजावट और लोहे के गलाने जैसे शिल्प कला का विशेष ज्ञान है। जैंतिया हिल्स में शिल्पकारी प्राय: घरेलू उद्योग के स्तर पर होतीहै, जो ज्यादातर शिल्पकारों के लिए माध्यमिक रोजगार का साधन होता है, जबकि कृषि प्राथमिक व्यवसाय है। हालांकि, पारंपरिक शिल्प उद्योग जिसेएक बार "एक महत्वपूर्णउद्योग" कहा जाता था,उसकेउत्पादन में काफी गिरावट आई है और यह गिरावट अभी तक जारी है। औद्योगिक अर्थव्यवस्था के प्रभाव के अलावा निश्चित रूप से अन्य आर्थिक चुनौतियां भी हैं। अत:, वक्ता की प्रस्तुति ने जैंतिया पहाड़ियों में शिल्प-विशिष्ट केंद्रों के उद्भव को सुगम बनाने में पारिस्थितिकी और पर्यावरण के महत्व और प्रभाव को समझने के लिए विषय का आकलन किया। अध्यक्ष ने विशेष रूप से बर्तन बनाने और वस्त्र बुनाई के शिल्प पर मामला अध्ययन के रूप में चर्चा करने और इसके साथ जुड़े लोगों की भौगोलिक तालमेलमें किसी विशेष क्षेत्र में आजीविका की चुनौतियों पर चर्चा की।
अंतिम सत्र की अध्यक्षता एनईएचयू के प्रोफेसर एलएस गैस्साह ने की। उन्होंने बांग्लादेश के साथ असम और मेघालय के सीमावर्ती क्षेत्रों में व्यापार और संस्कृति को बढ़ावा देने में अपना व्यक्तिगत अनुभव बताया। सत्र का विषय सीमा व्यापार और व्यापार संस्कृति था।
डॉ. सुपर्णा भट्टाचार्य,राजनीति विज्ञान विभाग, एनईएचयूने ‘‘सीमा हाट: द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ावा देने केउपाय’’ शीर्षक काएक शोध-पत्र प्रस्तुत किया।सीमा हाट, सीमाओं की शून्य लाइनों पर एक निश्चित बिंदु पर साप्ताहिक बाजार या अस्थायी बाजार का एक पारंपरिक रूप है जो सीमाओं परलोगों को सप्ताह में एक बार एक दूसरे के उत्पादों को बेचना सुकर करता है। हालांकि, हाट वस्तुओं, विक्रेताओं आदि के संदर्भ में सीमित व्यापारिक सुविधाएं प्रदान करते हैं, लेकिन हर सप्ताह तीन से चार लाख रुपये के लेनदेन होते हैं। सुदूर परिक्षेत्रों और पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाली सीमाओं के दोनों ओर लोगों द्वारा सीमा हाटों की उच्च मांग है, क्योंकि उन्हें दिन-प्रतिदिन के जीवन में आवश्यक उत्पादों को खरीदना और बेचना मुश्किल लगता है । अध्यक्ष ने संदर्भ को देखते हुए भारत के पूर्वोत्तर को अपने पड़ोसियों के साथ उलझाने में सीमा हाट की क्षमता का विश्लेषण करने काप्रयास किया और हाट, भारत के एक्ट ईस्ट पहल को बढ़ावा देने के लिए एक मूल्यवान तंत्र सिद्ध हुआ है।
डिग्रेसिया नोंगकिनरिह अर्थशास्त्र विभाग, एनईएचयू ने ‘‘पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश के बीच सीमा व्यापार’’ शीर्षक से एक शोध-पत्र प्रस्तुत किया। नब्बे के दशक के दौरान भारत सरकार की लुक ईस्ट नीति की घोषणा के साथ अब एक्ट ईस्ट पॉलिसी के लिए पूर्वोत्तर भारत और पड़ोसी देशों म्यांमार, भूटान, चीन और बांग्लादेश के बीच घनिष्ठ आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देने के मुद्दों को पहचान मिली है। भारत के साथ इन राष्ट्रों के बीच मौजूद निकटता को देखते हुए, शोध-पत्रने व्यापार की विशाल क्षमता का आकलन करने का प्रयास किया गया है। इसने भारत और बांग्लादेश के बीच व्यापार संबंधों का भी आकलन किया है, विशेष रूप से पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश के बीच सीमा व्यापार को देखकर।
उत्तम लाल, सिक्किम विश्वविद्यालय, गंगटोक ने ‘‘भारत-म्यांमार सीमा के साथ सीमा पार आदान-प्रदान और प्रवाह और गतिशीलता के चैनल: मणिपुर में तेंगनॉजल जिले पर मामला अध्ययन’’शीर्षक से एक शोध-पत्र प्रस्तुत किया। उन्होंने सीमा पार व्यापार का विश्लेषण अनिवार्य रूप से देशों के संबंधित क्षेत्राधिकारों के बीच सीमाओं के पार वस्तुओं और सेवाओं के प्रवाह को संदर्भित किया। क्षेत्रीय पैमाने पर और उससे आगे और केवल कभी-कभार स्थानीय और गांव स्तर पर वस्तुओं के आदान-प्रदान के संदर्भ में इस पर चर्चा की जाती है। अध्यक्ष के तर्क का मूल आधार सीमाओं को मातृभूमि के रूप में मानने में निहित है और बाद में वस्तुओं और सेवाओं के प्रवाह और गतिशीलता के माध्यमपर उनकी निर्भरता के बारे में बताया। अध्यक्ष ने भारत और म्यांमार के बीच सीमा पार व्यापार पर ग्रामीण स्तर से लेकर स्थानीय क्षेत्र स्तर के नजरिए तक की विचारधारा पर जोर दिया। शोध-पत्रके लिए एकत्र की गई जानकारी को मुख्यतः प्रतिभागी अवलोकन के रूप में और ग्रामीणों, सरकारी अधिकारियों के अर्ध-संरचित साक्षात्कारों के माध्यम से और साथ ही बाजार स्थानों पर और धमनियों के साथ असंरचित 'वॉक एंड टॉक' साक्षात्कार काफी हद तक असुरक्षित सीमाओं के पार प्रवाहके माध्यम से एकत्र की गई।
शिलांग के महिला महाविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ. नीला दत्ता ने ‘‘भारत-बांग्ला सीमा हाट: सामाजिक आर्थिक संपर्कत्रिपुरा के कमलासागर सीमा हाट का अध्ययन’’ शीर्षक से एक शोध-पत्रप्रस्तुत किया। डॉ. दत्ता ने त्रिपुरा के कमलासागर सीमा हाट के कामकाज और सीमावर्ती क्षेत्रों के लोगों पर इसके सामाजिक आर्थिक प्रभाव का अध्ययन करने का प्रयास किया। उनका अध्ययन त्रिपुरा के कमलासागर सीमा हाट के लोगों से व्यक्तिगत साक्षात्कार के माध्यम से एकत्र किए गए प्राथमिक आंकड़ों पर आधारित था, जिसे विभिन्न स्रोतों से माध्यमिक आंकड़ों द्वारा पूरक किया गया था ।
प्रत्येक शोध-पत्रसत्र के बाद प्रश्नोत्तर सत्र हुआ
समापन सत्र में असम विश्वविद्यालय सिलचर के प्रोफेसर सजल नाग ने सत्र की अध्यक्षता की। प्रोफेसरफेसर सारा हिलाली, आरगु, दोइमुख नेव्याख्यान दिया, जिन्होंनेसीमाएंकिस प्रकार राज्य और सत्ता को परिभाषित करती है, वहांपर रहने वाले स्थानीय समुदायों की आकांक्षाओंऔर निरंतरता को क्षीण करने के सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य पर विस्त़त चर्चा की। उन्होंने क्षेत्रीय सहयोग, शांति और सुरक्षा को सुदृढ़करने की तुलना में सीमाओं ने अधिक संघर्षों और पारस्परिक संदेह के कारकों का आकलन किया। असम के साथ-साथ अरुणाचल प्रदेश के मामले का वर्णन करते हुए प्रोफेसर हिलाली ने दो दिन तक चले विचार-विमर्श का गहन आकलन किया। डॉ. बिनायक दत्ता, इतिहास विभाग, एनईएचयू ने धन्यवाद ज्ञापित किया।
एमएकेएआईएसद्वारा समर्थित दो दिवसीय मंच"पेमाको" की स्क्रीनिंग के साथ समाप्त हुआ, जिसके बाद एक पैनल चर्चा हुई। पैनलिस्टों में एशियाई संगम के कार्यकारी निदेशक श्री सब्याची दत्ता, आरगू, दोइमुख, मकाइस की निदेशक डॉ. श्रीराधा दत्ता और विश्व मामलों की भारतीय परिषद के अध्येताडॉ.ध्रुबज्योति भट्टाचार्य शामिल थे।
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