भारतीय विश्व मामला परिषद्
सप्रु हाउस, बाराखंभा रोड, नई दिल्ली
1947 के बाद गिलगित-बालतिस्तान का
दुखद इतिहास
द्वारा
राजदूत एस.के. लांबा
5 सितम्बर, 2018
गिलगित-बालतिस्तान (जीबी) का एक क्षेत्र के रूप में बड़ा दु:खद इतिहास रहा है, यह क्षेत्र भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर का हिस्सा है किंतु 1947 से ही पाकिस्तान के गैर कानूनी कब्जे में है। उत्तरी क्षेत्र का नामकरण 1947 के बाद पाकिस्तान किया गया था और इस क्षेत्र में गिलगित-बालतिस्तान क्षेत्र शामिल है। यह क्षेत्र उपेक्षित, अलग-थलग, मताधिकारहीन है और इसकी स्थिति जानबूझकर संदिग्ध और अपरिभाषित रखा गया है। पाकिस्तान के 1956, 1962, 1972 और 1973 के संविधान में इन उत्तरी क्षेत्रों को पाकिस्तान के भाग की मान्यता नहीं दी। उसी तरह, 1974 के पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) के अंतरिम संविधान ने गिलगित और बालतिस्तान को इसके भाग के रूप में शामिल नहीं किया गया।
शुरूआत करने के लिए यह समझदारी भरा होगा कि उत्तरी क्षेत्रों की स्थिति, भूगोल और लोगों की संक्षिप्त जानकारी हो। जम्मू और कश्मीर राज्य का कुल भौगोलिक क्षेत्र 222,236 वर्ग किलोमीटर है। इसमें से वर्तमान में 101,437 वर्ग किलोमीटर भारत के प्रशासनिक नियंत्रण में है। जम्मू और कश्मीर का एक भाग पाकिस्तान/चीन के अवैध नियंत्रण में है। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) जिसमें तथाकथित आजाद कश्मीर (यहां आजाद कश्मीर का संदर्भ केवल पीओके के शेष भाग से अलग करने के लिए है) और गिलगित-बालतिस्तान, जिसमें 78,114 वर्ग किलोमीटर शामिल है। इसमें से गिलगित-बालतिस्तान (उत्तरी क्षेत्र) का हिस्सा तथा कथित आजाद कश्मीर के क्षेत्र का पांच गुना है। यह भाग, जो चीन के नियंत्रण में है, 42,685 वर्ग किलोमीटर है, इसमें 1963 में पाकिस्तान द्वारा चीन को गैर कानूनी तरीके से दिया गया 5,180 किलोमीटर हिस्सा शामिल है। गिलगित, गिलगित-बालतिस्तान की राजधानी है। इसमें नौ जिले हैा। बालतिस्तान क्षेत्र के जिलों में घानचे, स्कर्डु, खारमानु और शिगर शामिल हैं।
गिलगित-बालतिस्तान क्षेत्र में धार्मिक समूहों में शिया (ट्वेल्वर्स), नरभक्षी (ट्वेल्वर्स), इस्माइली, सुन्नी और अहले हदिथ शामिल हैं। यहां बोली जाने वाली भाषाएं हैं- शिना, बाल्टी, वाखी, खोवार, गुजारी, बुरूशास्की, पुरिकी, कश्मीरी और पश्तो। गिलगित-बालतिस्तान, एक बहु भाषाई क्षेत्र है जहां सामाजिक-संस्कृति और सजातीय विविधता हैं, जो हिंदुकुश और काराकोरम पहाड़ों से घिरा है। वर्ष 2017 की पाकिस्तानी जनगणना के अनुसार गिलगित-बालतिस्तान की जनसंख्या पूर्व में 1998 की जनगणना में दर्ज 870347 की तुलना में 1.8 मिलियन है। शिया 39.85 प्रतिशत, सुन्नी 30.05 प्रतिशत, इस्माइली 24 प्रतिशत, और नूरबक्शिस 6.1 प्रतिशत है। उसी 2017 की पाकिस्तानी जनगणना के अनुसार आजाद कश्मीर की जनसंख्या 1998 की जनगणना में 2.97 मिलियन की तुलना में 4.45 मिलियन थी। प्राकृतिक संसाधनों के संदर्भ में गिलगित-बालतिस्तान पन-बिजली और खनिज के मामले में समृद्ध है और वहां कई पर्यटक स्थल भी हैं। पोलो उस क्षेत्र का लोकप्रिय खेल है। तथापि, कई कारणों से स्थानीय लोगों को इसका लाभ प्राप्त नहीं हुआ है।
1947 में गिलगित-बालतिस्तान महाराजा हरि सिंह के शासन के तहत जम्मू और कश्मीर राज्य का भाग बना। उसके बाद से पाकिस्तान ने गिलगित-बालतिस्तान के संबंध में कुछ थोड़े बदलाव किए जिन्हें एक साथ मिला भी दिया जाए तो उन लोगों के जीवन में कोई भारी बदलाव नहीं हुआ है। नवम्बर, 1947 में पाकिस्तान ने स्थायी प्रशासन चलाने के लिए गिलगित में मुहम्मद आलम को प्रतिनिधि के तौर पर भेजा। दो वर्ष बाद 1949 के करांची समझौते के कारण आजाद कश्मीर सरकार को भौगोलिक और प्रशासनिक कारणों का हवाला देते हुए गिलगित-बालतिस्तान के प्रशासनिक और कानूनी नियंत्रण को पाकिस्तान के संघीय सरकार को सौंपने के लिए कहा गया। उसके बाद से गिलगित-बालतिस्तान के राजनीतिक और प्रशासनिक कार्यों को फ्रंटियर ट्राइबल रेगुलेशन (एफटीआर) के माध्यम से प्रबंधन किया जाता था। तदनुसार हीं, आजाद कश्मीर और उत्तरी क्षेत्र दो भिन्न सत्ता बन गए जिनके बीच कोई औपचारिक सरकारी संबंध नहीं था। इस करांची समझौते ने पाकिस्तानी सरकार को आजाद कश्मीर की रक्षा और विदेशी मामले की जिम्मेदारी भी दे दी।
वर्ष 1969 में उत्तरी क्षेत्र परामर्श परिषद् (एनएएसी) की स्थापना की गयी; किंतु इसने स्थानीय प्राधिकारियों को निर्णय लेने का कोई अधिकार प्रदान नहीं किया। वर्ष 1970 में आजाद कश्मीर का भाग हुंजा और नागर को गिलगित-बालतिस्तान के साथ मिला दिया गया। किंतु यह स्थानीय लोगों ने नहीं माना और संघ सरकार के विरूद्ध विरोध शुरू कर दिया। वष्र्ज्ञ 1974-75 में स्थानीय लोगों के विरोध के कारण प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने एफटीआर को समाप्त कर दिया और उत्तरी क्षेत्र परिषद् कानूनी रूपरेखा व्यवस्था को लागू किया। इससे कुछ प्रशासनिक और न्यायिक सुधार तो हुए किंतु किसी भी रूप में गिलगित-बालतिस्तान के लोगों को अधिकार प्राप्त नहीं हुए। वर्ष 1977 में जनरल जिया उल हक ने सैन्य तख्तापलट में भुट्टो को पदच्युत करते हुए सत्ता हासिल की। उसने उत्तरी क्षेत्र को पाकिस्तान का हिस्सा बनाने के बारे में सोचा। 1982 में जिया उल हक ने ऐलान किया कि उत्तरी क्षेत्र के लोग जम्मू और कश्मीर राज्य का हिस्सा नहीं हैं और अपने मार्शल कानून को उत्तरी क्षेत्र तक विस्तार किया किंतु आजाद कश्मीर में इसे लागू नहीं किया। इस अधिनियम के साथ उन्होंने उत्तरी क्षेत्रों और आजाद कश्मीर के बीच एक स्पष्ट विभाजन किया। भारतीय पत्रकार कुलदीप नैयर को दिए एक विशेष साक्षात्कार (1 अप्रैल, 1982 को) में जिया उल हक ने कहा कि उत्तर क्षेत्रों का गिलगित, हुंजा और स्कर्डु विवादित क्षेत्र का हिस्सा नहीं हैं।
जनरल जिया की घोषणा और भारत का प्रतिरोध
3 अप्रैल, 1982 को मजलिस-ए-शूरा (पाकिस्तानी संसद) को संबोधित करते हुए जनरल जिया उल हक ने घोषणा की कि उत्तरी क्षेत्र से तीन पर्यवेक्षकों को संघीय परिषद् या मजलिस-ए-शूरा में नियुक्त किया जाएगा। तीन घंटे के बाद पाकिस्तान स्थित भारतीय प्रभारी राजदूत, जो मजलिस-ए-शूरा के सत्र में उपस्थित थे, ने इस्लामाबाद में कूटनीतिक मिशन के अन्य विदेशी प्रमुखों के साथ पाकिस्तानी विदेशी कार्यालय में जनरल जिया की घोषणा के विरूद्ध विरोध दर्ज किया। बारह दिन बाद 15 अप्रैल, 1982 को विदेश मंत्री श्री पी.वी.नरसिम्हा राव ने लोक सभा में सूचित किया कि उत्तरी क्षेत्र भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर का न्याय व्यवस्था और संवैधानिक हिस्सा है। हमारे प्रभारी राजदूत ने पहले हीं पाकिस्तान के विदेश कार्यालय के साथ इस मामले में विरोध दर्ज करा दिया है और सरकार पाकिस्तान सरकार के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही है। इस पर कोई आधिकारिक उत्तर नहीं दिया गया है किंतु पाकिस्तान ने मजलिस-ए-शूर में उत्तरी क्षेत्र से कोई पर्यवेक्षक नियुक्त नहीं किया।
प्रधानमंत्री के रूप में अपने प्रथम कार्यकाल (1988-90) के दौरान बेनजीर भुट्टो ने उत्तरी क्षेत्र के लिए प्रधानमंत्री के सलाहकार के रूप में स्थानीय पीपीपी नेता कुर्बान अली को नियुक्त किया। अपने दूसरे कार्यकाल (1994) में उनकी सरकार ने उत्तरी क्षेत्र कानूनी रूपरेखा आदेश (एलएफओ) को लागू किया। इस आदेश के अनुसार सभी कार्यकारी अधिकार कश्मीर मामले और उत्तरी क्षेत्र के संघीय मंत्री को दिए गए। वे उत्तरी क्षेत्र विधायी परिषद् (एनएएलसी) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में दोहरी भूमिका में भी थे। उनका प्राधिकार असीम था और उनके पूर्व अनुमोदन के बिना कोई कानून पारित नहीं किया जा सकता था। 1999 में पाकिस्तान के उच्चतम न्यायालय ने इस्लामाबाद को उत्तरी क्षेत्रों में मूलभूत स्वतंत्रता देने का निर्देश दिया जिसके बाद जनरल परवेज मुशर्रफ शासन काल में एनएएलसी को प्रशासनिक और वित्तीय अधिकार प्रदान किया गया। ऐसा 1994 के कानूनी रूपरेखा आदेश में थोड़े बहुत संशोधनों को लागू कर किया गया था। तथापि, ये चीजें उतनी महत्व की नहीं थीं।
2007 में एनएएलसी को उन्नत कर इसे विधान सभा बना दिया गया। कश्मीर मामले के पाकिस्तानी मंत्री विधान सभा के पदेन सभापति के रूप में कार्य करता रहा। अगस्त, 2009 में पीपीपी नीत संघीय सरकार ने गिलगित-बालतिस्तान स्वशासन अधिकार आदेश को लागू किया। इससे इस क्षेत्र का नाम बदलकर उत्तरी क्षेत्र से गिलगित-बालतिस्तान कर दिया गया और वहां राज्यपाल व मुख्यमंत्री के नए पद सृजित किए गए। अब, गिलगित-बालतिस्तान को अपने स्वयं के लोक सेवा आयोग, चुनाव आयोग और लेखा परीक्षक का भी हक था। इसने गिलगित-बालतिस्तान परिषद् में उच्च सदन की भी स्थापना की जिसमें 15 सदस्य थे और जिसमें पाकिस्तान का प्रधानमंत्री इसका पदेन सभापति था। चुनी गयी विधान सभा केवल नाम का ही कार्यशील था क्योंकि सभी निर्णय प्रभावी रूप से इस्लामाबाद की संघीय सरकार द्वारा ली जाती थी। वास्तव में 2009 का आदेश आजाद कश्मीर के अंतरिम संविधान अधिनियम, 1974 की तर्ज पर था तथा दोनों में दो सापेक्षिक प्रदेशों के लिए था जो पाकिस्तान के चार प्रांतों को दी गयी स्वायत्ता से काफी कम था।
गिलगित-बालतिस्तान को किसी भी राजनैतिक या आर्थिक लाभ से वंचित करने के लिए स्थानीय लोगों द्वारा व्यापक आलोचना की गयी। ऐसी भी रिपोर्टें थीं कि चीन इस क्षेत्र पर व्यापक संघीय नियंत्रण चाहता था। पाकिस्तान सरकार के पास यह विकल्प था कि वह या तो उत्तरी क्षेत्र को आजाद कश्मीर के साथ विलय कर दे, जिसके लिए स्थानीय प्रतिरोध था, अथवा इस क्षेत्र को पाकिस्तान का पांचवां क्षेत्र घोषित किया जाए, जिसे भी उपयुक्त नहीं माना गया क्योंकि इसका जम्मू और कश्मीर के संबंध में पाकिस्तान की स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इसलिए, जून, 2018 में पाकिस्तान में कार्यकाल समाप्त कर रहे अब्बासी सरकार ने गिलगित –बालतिस्तान सुधार आदेश 2018, जिसने 2009 के पूर्व के स्वशासन आदेश को प्रतिस्थापित किया था, के माध्यम से कुछ बदलाव को करने भर का निर्णय लिया। इस नए आदेश के तहत खनिज, जल विद्युत और पर्यटन क्षेत्रों के संबंध में कानून बनाने सहित गिलगित-बालतिस्तान परिषद् के पास सभी पूर्व अधिकारों को गिलगित-बालतिस्तान विधान सभा को दे दिया गया।
इस आदेश [अनुच्छेद 41 और अनुच्छेद 60 (4)] पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को बहुत अधिक शक्ति प्रदान करता है जो वास्तव में इस सभा से अधिक शक्तिशाली है। गिलगित-बालतिस्तान में विपक्षी पार्टियों ने इस आदेश का विरोध किया क्योंकि उन्होंने पाया कि इस नए आदेश ने संघीय सरकार की भूमिका को पहले से अधिक बढ़ा दिया जिसके परिणामस्वरूप वास्तविक अवक्रमण हुआ। उन्होंने इस आदेश को प्रधानमंत्री केन्द्रित माना। भारत सरकार ने भी इसका विरोध किया। विदेश मंत्रालय के विवरण में इसका उल्लेख किया गया कि ‘’जम्मू और कश्मीर संपूर्ण राज्य जिसमें तथाकथित ‘गिलगित-बालतिस्तान’ क्षेत्र भी शामिल है, भारत का अभिन्न अंग है’’ और पाकिस्तान के जबरन और गैर कानूनी कब्जे के तहत भूभाग की स्थिति में किसी भी तरह के बदलाव के कार्य का कोई कानूनी आधार नहीं है और यह पूर्णतया अस्वीकार्य है।‘’
यह नोट करना दिलचस्प है कि 1974, 1988, 1904 और 2009 में किए गए प्रशासनिक बदलाव तब किए गए थे जब इस्लामाबाद में पीपीपी की सरकार थी। तथापि, इसका उल्लेख किया जा सकता है कि 2009 में किए गए बदलाव 2006-07 के बाद से विचाराधीन है। जून, 2018 में किए गए बदलाव पीएमएल सरकार के तहत किए गए थे। गिलगित-बालतिस्तान के संबंध में चार मुख्य मुद्दे हैं। इनमें अन्य बातों के साथ-साथ विशेष रूप से इस क्षेत्र में बढ़ते पृथकतावादी तनाव, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) रूपरेखा के तहत और चीनी भूमिका में समय-समय पर पाकिस्तान द्वारा किए गए बदलावों के प्रति भारत के जबाव के तरीके शामिल हैं।
भारत सरकार की प्रतिक्रिया
जैसा कि देखा गया है कि जब कभी भी आवश्यक हुआ है भारत सरकार के विचारों को गिलगित-बालतिस्तान की स्थिति के संबंध में स्पष्ट और असंदिग्ध रूप बताया गया है- चाहे यह 03 अप्रैल, 1982 को इस्लामाबाद में जनरल जिया के भाषण के तत्काल बाद प्रभारी राजदूत द्वारा किया गया विरोध था, 15 अप्रैल, 1982 को लोक सभा में विदेश मंत्री का वक्तव्य या जून, 2018 में पाकिस्तान सरकार के अद्यतन आदेश के बाद विदेश मंत्रालय की टिप्पणी हो। सन् 1963 से भारत ने पाकिस्तान द्वारा चीन को भूभाग देने के संबंध में पाकिस्तान-चीनी समझौते की वैधता को चुनौती दी है। यह उल्लेखनीय है कि भारत की स्थिति को अन्य मंचों और संधियों में स्पष्ट रूप से बता दिया है। पूर्व पाकिस्तानी विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद ने अपने हाल के प्रकाशित पुस्तक नाइदर ए हॉक नॉर ए डोव (2015) में लिखता है कि कश्मीर के संबंध में पीछे के माध्यम की चर्चा के दौरान (डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान) पाकिस्तान ने गिलगित और बालतिस्तान को जम्मू और कश्मीर का भाग माना था। उन्होंने इसमें जोड़ा:
स्वतंत्रता के पूर्व, इस उत्तरी क्षेत्र में अन्य भागों के साथ साथ गिलगित और बालतिस्तान जम्मू और कश्मीर के रियासत के भाग थे। पृष्ठ माध्यम संधि के दौरान भी भारत ने इसे पर्याप्त रूप से स्पष्ट कर दिया था कि यदि उत्तरी क्षेत्र को इस समग्र योजना में शामिल किया जाए तो वे जम्मू और कश्मीर के संबंध में किसी समझौते को स्वीकार कर सकते हैं। हमने इस दुविधा का विरोध किया। इसलिए हम कई तर्कों और समझौतों के बाद एक समझौते पर पहुंचे कि इस समझौते के उद्देश्यों के लिए दो इकाइयां होंगी और इसमें वे क्षेत्र शामिल होंगे जिन पर क्रमश: भारत और पाकिस्तान द्वारा नियंत्रण होगा।
आजाद कश्मीर से गिलगित-बालतिस्तान का पृथककरण
शुरूआत से ही पाकिस्तान ने गिलगित-बालतिस्तान को आजाद कश्मीर से अलग कर दिया ताकि इस पर अधिक नियंत्रण बनाए रख सके। इससे इस क्षेत्र के लोगों में अधिक चिंता होने लगी। 1990 में आजाद कश्मीर के उच्च न्यायालय में उत्तरी क्षेत्रों की स्थिति के संबंध में पाकिस्तान की स्थिति को चुनौती देते हुए कए रिट याचिका दायर की गयी जिसे मुस्कीन मामले के रूप में जाना जाता है। आजाद कश्मीर के उच्च न्यायालय ने यह निर्णय लिया कि उत्तरी क्षेत्र आजाद कश्मीर का भाग हैं और इसका प्रशासनिक नियंत्रण आजाद कश्मीर सरकार (पीओके) के पास होना चाहिए न कि पाकिस्तानी सरकार के पास। पाकिस्तान ने उक्त निर्णय को लागू नहीं किया और उसे उसके उच्चतम न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया जिसने कहा कि उच्च न्यायालय को इस मामले में ऐसे आदेश जारी करने का अधिकार नहीं है। इसने इस मामले को कानूनी मुद्दा से अधिक राजनीतिक मुद्दा बताया।
गिलगित-बालतिस्तान में बढ़ता पृथकतावाद
गिलगित-बालतिस्तान में तीन मुख्य समुदाय- शिया, इस्मालीज और सुन्नी- 1947 में प्रचलित कश्मीरी परंपरा से 1970 तक सांप्रदायिक सौहार्द्रता के साथ शांतिपूर्ण तरीके से रह रहे थे। 1975 के बाद से वैमस्यता की शुरूआत हुई। स्कर्डु में शिया लोग बहुसंख्या में हैं। सुन्नी अधिकांशत: दायमीर में रहते हैं और इस्माइली हुंजा में रहते हैं। प्रथम संप्रदायवादी संघर्ष 1975 में शुरू हुआ जब गिलगित में शिया मुहर्रम जुलूस पर सुन्नी मस्जिद से हमला हुआ था। अगला बड़ा संघर्ष 1998 में हुआ जब रामदान के अंत के लिए चांद देखने के उपर था। उस समय तक संप्रदायिक हिंसा सामान्य बात हो गयी थी और 2014 में विदेशी पर्वतारोहियों की हत्या के बाद प्रत्यक्ष रूप में भड़का। कुछ दिन पूर्व 03 अगस्त को दायमीर में 12 विद्यालयों को जला दिया गया। पाकिस्तानी समाचार एजेंसी के अनुसार पूर्व में हुए ऐसे हमले का आरोप आतंकी संगठनों पर जाता है। तथ्य यह है कि शिया और सुन्नी अलग-अलग क्षेत्रों में रहते हैं तो प्रतिकूल रूप से संसजकता को प्रभावित किया है।
काराकोरम राजमार्ग (केकेएच) जो पाकिस्तान को गिलगित-बालतिस्तान से जोड़ता है, के परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में धार्मिक कट्टपंथियों द्वारा हथियारों और औषधियों व हमलों में भारी बढ़ोतरी हुई है और इस कारण जनांकिक बदलाव हुए हैं। अहिंसक इस्माइली समुदाय भी हमले के लक्ष्य बनने लगे। इस क्षेत्र में विकास कार्य में आगा खां प्रतिष्ठान सक्रिय रहे हैं और ऐसी रिपोर्टें हैा कि उनके कामगारों को भी निशाना बनाया गया है। एसएसआर (राज्य निर्देशक नियम) को समाप्त करने का निर्णय इस क्षेत्र की जनांकिकी को बर्बाद करने का एक प्रयास था। इससे गिलगित –बालतिस्तान में बाहरी लोगों जिनमें अधिकांशत: सुन्नी सजातीय पठान और पंजाबी थे, को बसाना आसान हुआ। जनरल मुशर्रफ (तत्कालीन ब्रिगेडियर) ने 1988 में राष्ट्रपति जिया के शासनकाल में शिया विद्रोह को कुचलने में भूमिका निभायी।
गिलगित-बालतिस्तान में चीन की भूमिका
एक महत्वपूर्ण कारण कि क्यों गिलगित-बालतिस्तान को आजाद कश्मीर से अलग किया गया और इसे पाकिस्तान के प्रत्यक्ष निरीक्षण व नियंत्रण में रखा गया, वह है चीनी कारण। इस क्षेत्र को 1963 में पाकिस्तान द्वारा चीन को दे दिया गया, मिंटाका दर्रा के दक्षिण का हिस्सा जो हुंजा से संबंधित था। 2 मार्च, 1963 के सीमा समझौते ने चीन के सिंकियांग प्रांत और पाकिस्तान के वास्तविक नियंत्रण में सटा हुए क्षेत्र के बीच इस सीमा रेखा के संरेखण में भी बदलाव किया। भारत ने पाकिस्तान और चीन दोनों के साथ इस समझौते का विरोध किया। इस क्षेत्र को चीन को देने से पूर्व इसकी गिलगित-बालतिस्तान के साथ चर्चा भी नहीं की गयी क्योंकि इसका अपनी कोई चुनी हुई सभा नहीं थी। 1963 के चीन-पाकिस्तान समझौते के अनुच्छेद एक, दो और छह में यह स्वीकार किया गया कि इस समझौते द्वारा शामिल क्षेत्र विवादित हैं। इस समझौते का अनुच्छेद छह में कहा गया है कि:
दोनों पक्ष इस पर सहमत हुए कि भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर विवाद के समाधान के बाद संबंधित संप्रभु प्राधिकार वर्तमान कश्मीर समझौते के अनुच्छेद दो में दिए गए अनुसार इस सीमा पर पुपील्स रिपब्लिक ऑफ चीन की सरकार के साथ समझौतों को शुरू किया जाएगा ताकि वर्तमान समझौते को प्रतिस्थापित करने के लिए एक सीमा संधि पर हस्ताक्षर किया जा सके।
इस समझौते के अनुच्छेद एक में यह स्वीकार किया गया है कि इस क्षेत्र में भारत-पाकिस्तान सीमा का परिसीमन या परिभाषित नहीं किया गया है। इसमें कहा गया है कि:
इस तथ्य के मद्देनजर कि चीन के सिंक्यांग और सटे हुए क्षेत्र के बीच सीमा, जिसकी रक्षा पाकिस्तान के नियंत्रण में है, को औपचारिक रूप से कभी परिसीमित नहीं किया गया है, दोनों पक्ष परंपरागत प्रचलित सीमा के आधार पर परिसीमन के लिए सहमत हुए।
यहां चीन मानता है कि यह क्षेत्र पाकिस्तान के संप्रभु नियंत्रण में नहीं है, एक तथ्य जो महत्वपूर्ण बन जाता है जब इसे सीपीईसी के संदर्भ में इसे देखा जाता है। दक्षिण चीन सागर के संदर्भ में चीन ने ऐतिहासिक संदर्भ पर अपनी संप्रभुता के दावों को आधार बनाया है। किंतु पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में सीपीईसी परियोजनाओं के संदर्भ में यह बात चीन के लिए द्वितीय और विषयेत्तर बन गया लगता है। ऐतिहासिक और संप्रभुता संबंधी मुद्दे चीन के तर्क के पक्ष में नहीं है। इसलिए, वे पीओके से होकर गुजरने के लिए पाकिस्तान में अपने राजनीतिक व रणनीतिक निवेश हेतु वाणिज्यिक तर्कों का उपयोग कर रहे हैं।
चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) और गिलगित-बालतिस्तान
सीपीईसी पीओके के होकर गुजरता है जो भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर का एक हिस्सा है। ग्वादर से काशगर तक का सबसे छोटा मार्ग पंजगुर, क्वेटा, जोब, डेरा इस्माइल खान और उसके बाद मियानवली से होते हुए पंजाब में जाकर इस्लामाबाद तक जाता है और उसके बाद केकेएच से झिनजियांग/ सिंकियांग तक जाता है। ऐसी रिपोर्ट है कि चीन बलूचिस्तान और खैबर पख्तून क्षेत्रों में व्याप्त सुरक्षा संबंधी स्थिति तथा सीपीईसी के विरोध के कारण वहां से होकर गुजरने वाले गलियारे से खुश नहीं था। इन स्थितियों के कारण तथा बलुचिस्तान, खैबर पख्तुनखावा व सिंह की सरकारों द्वारा जतायी गयी आपत्तियों के कारण पाकिस्तान सरकार द्वारा यह निर्णय लिया गया कि सीपीईसी के मार्ग के संरेखण में बदलाव किया जाए ताकि यह मुख्य रूप से पंजाब से होकर गुजरे। इसके परिणामस्वरूप सीपीईसी को चीन-पंजाब आर्थिक गलियारा माना जा रहा है।
इसके अतिरिक्त, पाकिस्तानी मीडिया में ऐसी खबरें हैं कि चीन सीपीईसी के बारे में गिलगित-बालतिस्तान में नियमित रूप से हो रहे विरोध से चिंतित है क्योंकि प्रस्तावित 2000 किमी के काशगर-ग्वादर गलियारे का 600 किमी. इसी क्षेत्र से होकर गुजरता है। इसके परिणामस्वरूप, ऐसी आशंका है कि इस परियोजना के कार्यान्वयन की प्रगति की गति प्रभावित हो सकती है। इसलिए, पाकिस्तान चीन के दबाव पर गिलगित-बालतिस्तान पर अधिक संघीय नियंत्रण के पक्ष में है। कुछ अन्य मीडिया रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है कि चीन के आर्थिक गलियारे की रक्षा करने के लिए मध्य-पूर्व और एशिया में 5000 से अधिक चीनी सैनिक तैनात हैं। इस सूची में से सबसे अधिक संख्या (1800) में सैनिक चीन-पाकिस्तान गलियारे पर तैनात हैं। इनमें से अधिकांश को पीओके में तैनात किया जा सकता है और जो भारत के लिए चिंता का सबब बन सकता है।
सीपीईसी पर इमरान खान के विचार
पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री इमरान खान पूर्व में सीपीईसी के आलोचक रहे थे। तथापि, बाद में उन्होंने चीन को गुस्सा दिलाने से बचने तथा चीनी राजदूत के साथ एक बैठक के बाद अपना विचार बदल दिया और बताया कि वह इस परियोजना की पारदर्शिता के बारे में चिंतित था और वह नहीं चाहता था कि यह गलियारा पंजाब से नहीं गुजर कर खैबर पख्तुनख्वा से होकर जाए। जुलाई, 2018 में चुनाव के बाद उसने कहा, ‘हम सीपीईसी की सफलता के लिए कार्य करना चाहते हैं।‘ इमरान खान के इस बदले हुए रूख पर टिप्पणी करते हुए एक पाकिस्तानी विद्वान फकीर एजादुद्दीन ने अभी यह उल्लेख किया है कि ‘’इमरान खान (जो कभी सीपीईसी के विरोध में था जैसा कि थेरेसा मे ब्रेक्जिट विरोधी थीं) ने चीन में दिए गए अपने विजयी भाषण में कहा कि सीपीईसी का इस्तेमाल पाकिस्तान में भारी निवेश के अवसर के रूप किया जाएगा।‘’
निष्कर्ष
गिलगित-बालतिस्तान की स्थिति अद्वितीय है। भारत और पाकिस्तान के अतिरिक्त इसकी सीमा अफगानिस्तान और चीन से लगती है। गिलगित-बालतिस्तान के बारे में भारत का यह लगातार रूख रहा है कि यह क्षेत्र भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर का हिस्सा है। पाकिस्तान जम्मू और कश्मीर के इस अधिकृत भूभाग पर यहां रह रहे लोगों की अपेक्षा अधिक चिंता दर्शाता है। पाकिस्तानी सरकार द्वारा इस मुद्दे के समाधान के रूख से यह स्पष्ट है। सत्तासीन किसी भी सरकार ने इस क्षेत्र के लोगों के आर्थिक और राजनीतिक हितों से जुड़े मुद्दों के समाधान में कभी कोई वास्तविक रूचि नहीं दिखायी है। बल्कि इन मुद्दों की अनदेखी की गयी है। इस क्षेत्र की जनांकिकी भी बदल गयी है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बाहरी लोगों को बसाया गया है। वर्ष 1948 में इस क्षेत्र में शिया और इस्माइली 85 प्रतिशत थे। आज यह लगभग 50 प्रतिशत ही हैं। यह 1998 और 2017 में की गयी विगत दो जनगणनाओं के बीच तुलना से भी स्पष्ट है। जहां पाकिस्तान की जनसंख्या में 1998 से 2017 के बीच 56 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, वहीं उसी अवधि में गिलगित-बालतिस्तान की जनसंख्या में दोगुनी बढ़ोतरी हुई है। भारत के साथ जुड़ने के गिलगित और बालतिस्तान के लोगों की इच्छा को सदा ही पाकिस्तान द्वारा रोका और कुचला गया है। दो सड़क मार्ग- एलओसी पर भारतीय हिस्से में कारगिल और लेह, स्कर्डु और खप्लु (पीओके हिस्सा) के साथ जुड़ता है किंतु पाकिस्तान ने इन मार्गों पर आपसी संबंध की अनुमति प्रदान नहीं की है। उत्तरी क्षेत्रों को पीओके के शेष भाग से अलग कर दिया गया ताकि अधिक संघीय नियंत्रण सुनिश्चित हो।
चीन की चिंताओं की सहायता होती रही है। 1962 से ही और 1963 में चीन-पाकिस्तान समझौते के बाद से चीन जम्मू और कश्मीर के लगभग 19 प्रतिशत भूभाग को कब्जा कर रखा है जिसमें उत्तरी क्षेत्र का महत्वपूर्ण भाग शामिल है। चीन और पाकिस्तान इस क्षेत्र के भूभाग का इस्तेमाल भारतीय हित को रोकने के लिए करते रहे हैं। पाकिस्तान में भी गिलगित-बालतिस्तान के लोगों के साथ किए जा रहे दुर्व्यवहार के बारे में आलोचना होती रही है। शुरूआत से ही उत्तरी क्षेत्र के लोगों को वंचित रखने की कहानी के रूप में पाकिस्तानी सत्ता की पहचान की गयी है। पाकिस्तान पत्रिता ‘हेराल्ड’ ने उत्तरी क्षेत्र को ‘आखिरी उपनिवेश’ माना। 14 अगस्त, 1964 को करांची आउटलुक ने लिखा, ‘असुविधाजनक सच्चाई यह है कि कश्मीर मामले मंत्रालय ने स्वयं ही निहित स्वार्थ हासिल किया है। यह आजाद कश्मीर के भूभाग और गिलगित-बालतिस्तान क्षेत्रों को अपने अधीन माना.... यह मंत्रालय कठपुतलियों के साथ समझौता करना चाहता है न कि अध्यक्षों के साथ जो वास्तव में उस स्थिति में हैं।‘
इतने समय के बावजूद किसी प्रकार का मंत्रालय स्तर का बदलाव नहीं हुआ है। गिलगित –
बालतिस्तान के लोगों को अधिकरों और सुविधाओं से वंचित रखा गया है। इस क्षेत्र का प्रमुख समाचार पत्र के-2 ने सदा ही एक मुहावरा –सरजमीन बे आइन की आवाज (संविधान विहीन भूमि की आवाज) के लिए बोला है। यह स्वयं ही यहां के लोगों के दुख को बयां करता है। यही समय है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय गिलगित – बालतिस्तान के लोगों के समक्ष आ रही समस्यों पर ध्यान दें।
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