'India’s Relations with the International Monetary Fund: 25 Years In Perspective 1991-2016'
(आईसीडब्ल्यू का प्रकाशन)
नामक पुस्तक के विमोचन और चर्चा के अवसर पर
श्री शक्तिकांत दास
भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर
का अभिभाषण
26 जुलाई 2019
(सप्रू हाउस, नई दिल्ली)
- मुझे श्री वी. श्रीनिवास की पुस्तक "India’s Relations with the International Monetary Fund” के विमोचन से जुड़े इस आयोजन में भाग लेने पर प्रसन्नता हो रही है। वे 1989 बैच के सम्मानित सिविल सेवक रहे हैं और उन्होंने यह पुस्तक 2003-06 के दौरान आईएमएफ में भारत के कार्यकारी निदेशक के रूप में अपने व्यावहारिक कार्य और अपनी विद्वता और नीति निर्माण में अपने अनुभव के आधार पर लिखी है। इस पुस्तक और इस समारोह से एक महत्वपूर्ण विषय पर पठन का काम और बढ़ेगा और इससे काम अधिक विचारों और विश्लेषण का जन्म होगा। जैसा कि आप जानते हैं, संस्था के रूप में भारतीय रिज़र्व बैंक का आईएमएफ के कामकाज से हमारे समग्र आर्थिक हितों की पैरवी करने और शासन के दृष्टिकोण से गहरा नाता है।
- 1966 और 1981 में भारत में इस कोष के पिछले कार्यक्रमों की पृष्ठभूमि के परिपेक्ष्य में यह पुस्तक कोष के साथ भारत के जुड़ाव की सबसे महत्वपूर्ण अवधि पर केंद्रित है, जो 1991 के भुगतान संकट संतुलन से शुरू होकर 2016 तक की अवधि को कवर करती है, जिसके दौरान देश ने एक देनदार से लेनदार बनकर अपनी स्थिति में नाटकीय बदलाव लाये, और उन्हें रेखांकित करती है। इसी अवधि में भारतीय अर्थव्यवस्था अपनी पूर्ववत आयात प्रतिस्थापन वाली अंतोन्मुख अर्थव्यवस्था में मूल बदलाव कर गतिशील विश्व व्यवस्था में तेज़ी से मुक्त और उभरती वैश्विक शक्ति बन गई। इसी अवधि में वैश्विक वित्तीय संकट के बाद इस कोष की भूमिका भी अकेले विनिमय दर निगरानी पर केंद्रित अंतिम, लांछित ऋणदाता सहारे से बदलकर अंततर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली में मुख्य भूमिका वाली बन गई। इस अवधि में कोष ने न केवल वृहद आर्थिक नीतियों पर केंद्रित किया है, बल्कि महिला सशक्तीकरण, गरीबी उन्मूलन, सततशील विकास, फिनटेक और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर व्यापक दृष्टिकोण अपनाया है। जैसा कि डॉ. वाई.वी. रेड्डी ने पुस्तक में अपने प्राक्कथन में लिखा है: "यह पुस्तक इस विषय पर मौजूदा साहित्य में बड़ी कमी को पूरा करेगी ..."। मैं श्रीनिवास को इस पुस्तक को लिखने के उनके विद्वतापूर्ण योगदान के लिए बधाई देता हूं।
- मेरे मन में था कि इस अवसर पर मैं जी20 शेरपा और अब कोष के बोर्ड ऑफ़ गवर्नरज़ में वैकल्पिक वित्तीय मंत्री होने के अपने अनुभव के आधार पर इस कोष और अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली में इसकी भूमिका पर अपने कुछ विचार साझा करूंगा। इस साल अप्रैल में बसंत में हुई कोष और बैंक की बैठक के मौके पर बोलते हुए मैंने "मुद्रा जोड़तोड़" जैसे नामों की तरफ इशारा कर उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं (ईएमई) की मजबूरियों की तरफ ध्यान दिलाया था और उनके बफर निर्माण में सभी ओर से समझ-बूझ अपनाने का आह्वान किया था। मैं बताना चाहूँगा कि इस वाक्यांश "मुद्रा जोड़तोड़’ की उत्पत्ति हाल ही में हुई है, जब 2015 में अमेरिकी ट्रेज़री ने इस विषय पर एक अर्ध-वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित करना शुरू किया था। इस पृष्ठभूमि में इसके अर्थ बहुत हद तक द्विपक्षीय हो गए हैं। वर्तमान में इस अर्ध-वार्षिक रिपोर्ट में देशों को तीन मानदंडों के आधार पर मुद्रा जोड़तोड़ करने वाले के तौर पर पहचाना जाता है: (i) कम से कम 20 अरब अमेरिकी डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार अधिशेष; (ii) जीडीपी के कम से कम 2 प्रतिशत के बराबर महत्त्वपूर्ण चालू खाता अधिशेष; और (iii) 12 महीने में से 6 महीनों में एकतरफा शुद्ध खरीद, जिससे 12 महीने अवधि में अर्थव्यवस्था के सकल घरेलू उत्पाद में कम से कम 2 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो रही है। भले ही तीन मानदंडों में से दो ही पूरे हों, ऐसे किसी भी देश को निगरानी सूची में डाल दिया जाता है। भारत को 2018 से इसमें शामिल किये जाने के बाद हाल ही में इस सूची से हटाया गया है। हालिया अवधि में व्यापारिक तनातनी के गर्मागर्म माहौल में इस शब्द की ओर काफी ध्यान केंद्रित हुआ है।
- एक सवाल जो पैदा होता है, वो यह है कि जब इसके लिए बहुपक्षीय संस्थागत तंत्र मौजूद है तो यह नामकरण (ठप्पा लगाना) द्विपक्षीय विशेषाधिकार क्यों बन गया है? आखिरकार, कोष को स्थापित करने वाले समझौते के अनुच्छेदों की धारा 3 (ए) में इसे अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली की निगरानी का काम सौंपा गया है। अनुच्छेद IV की धारा 1 (iii) में सभी देशों को अनुचित प्रतिस्पर्धात्मक लाभ लेने के इरादे से विनिमय दरों में जोड़तोड़ करने से गुरेज़ करने को कहा गया है। अनुच्छेद VIII की धारा में, जब तक कि वे कोष द्वारा अनुमोदित या अनुच्छेद XIV की धारा 2.3 के तहत इसे नहीं बनाए नहीं रखते हैं, सदस्यों और उनके राजकोषीय एजेंटों पर भेदभावपूर्ण मुद्रा व्यवस्था या एकाधिक मुद्रा प्रथाओं (MCPs) में लिप्त नहीं होने की शर्त लागू है। कोष ने MCP अवधारणा को प्रयोग करते समय इस पर यथोचित विचार किया है, इसकी व्याख्या की है और जरूरत पड़ने पर इसे उपयुक्त परिवर्तनों सहित लागू किया है।
- इसने निश्चित विनिमय दरों वाली ब्रेटन वुड्स प्रणाली के पतन और 1973 से अंतत: मुद्राओं के फ्लोटिंग बनने के बाद 1978 में कोष के समझौते के अनुच्छेदों में हुए संशोधन के ज़रिये अलग-अलग देशों की विनिमय नीतियों पर अपनी निगरानी निर्धारित कर शासनादेश को और अधिक स्पष्ट कर दिया। कोष के शासनादेश को 2007 में यह स्पष्ट करने के लिए अपडेट किया गया था कि विनिमय दर में जोड़तोड़ करना बुनियादी संरेखण को हिलाने से जुड़ा हुआ है, जिसके कारण बाह्य अस्थिरता होती है। 2012 में सदस्यों में नामकरण की आशंका के कारण कई समीक्षाएँ की गयीं, जसके बाद एकीकृत निगरानी निर्णय अंगीकार किया गया, जिसमें घरेलू और बाह्य स्थिरता के बीच संबंधों के अलावा वैश्विक जोखिमों और प्लावन प्रभाव के संबंध पर भी ज़ोर दिया गया।
- इस शासनादेश के अनुपालन में हर साल होने वाले अपने अनुच्छेद IV परामर्श के दौरान कोष सदस्यों के आर्थिक विकास और उनकी नीतियों का गहन मूल्यांकन करता है, जिसमें खासकर विनिमय दर नीतियां भी शामिल हैं। इसका आधार विविध मॉडलों द्वारा किया गया कड़ा तकनीकी मूल्यांकन होता है। परामर्श रिपोर्ट प्रकाशित की जाती है और विनिमय दर का संरेखण गड़बड़ाने और / या बहुल मुद्रा परिपाटी के किसी भी मामले के सामने आने पर इसमें सुधार करने के लक्ष्य से इसे बेबाकी से राष्ट्रीय अधिकारियों के ध्यान में लाया जाता है। क्योंकि समझौते के अनुच्छेद एक अंतरराष्ट्रीय संधि हैं, यह होना अनिवार्य है; और भारत में इनका आधार अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और बैंक अधिनियम, 1945 के रूप में पारित किया गया संसदीय कानून है। इस बहुपक्षीय ढांचे के दृष्टिगत द्विपक्षीय तौर पर नाम मढ़ना, जिसकी मैंने पहले बात की थी, कोष की भूमिका सहित कई सवाल पैदा करता है।
- मानना पड़ेगा कि किसी भी अन्य नीति-निर्माण संस्थान की तरह इस कोष की नीतियां और परिपाटियां उनकी प्रभावकारिता के संदर्भ में हमेशा सही या सर्वश्रेष्ठ नहीं होंगी। जैसा कि 2005 में इसके अपने स्वतंत्र मूल्यांकन कार्यालय (IEO) की ओर से बताया गया था, कोष द्वारा विनिमय दर की निगरानी की अपनी मुख्य जिम्मेदारी निभाने में इसकी असफलता का एक प्रमुख कारण कुछ सदस्य देशों का यह सोचना था कि निगरानी में समानता का अभाव रहा है - यह कि किसी तरह से कोष मुद्रा मूल्यह्रास के प्रति सहिष्णु रहा लेकिन अभिमूल्यन का विरोध करने वाले देशों के प्रति नहीं। आईईओ द्वारा की गयी यह आलोचना 2017 के इसके मूल्यांकन अपडेट में बरक़रार है। इस तरह की आलोचनाओं के बावजूद आईएमएफ नई चीज़ें सीखने को तैयार है और अपने प्रतिष्ठित संस्था होने के रुतबे की अधिकारी है। इसलिए हम कोष के अप्रैल 2019 के अधिक एकीकृत ढांचे के प्रस्ताव पर इसके साथ जुड़ने को तत्पर हैं, जिसमें मौद्रिक, विनिमय दर, मैक्रो-प्रूडेंशियल और पूंजीगत प्रवाह प्रबंधन नीतियों का आपसी मेलमिलाप होगा। मेरा दृढ़ विचार है कि आईएमएफ के तत्वावधान में बहुपक्षीय ढांचा इन मुद्दों से निपटने का सर्वाधिक उपयुक्त दृष्टिकोण है।
- जिस संदर्भ में ईएमई अपनी चुनौतियों की साझा समझ विकसित करने के लिए काम करती हैं, उसे समझना ज़रूरी है। सबसे पहले, जिन झटकों का ये देश सामना करते हैं, उनकी प्रकृति भुगतान संतुलन से बदलकर पूर्ण वित्तीय संकटों वाली बन चुकी है। दूसरा, वैश्विक वित्तीय संकट के बाद के वर्षों में ईएमई और वित्तीय बाज़ार वैश्विक प्लवन प्रभावों से घिरे रहे हैं, जिनसे अचानक तेज़ी और अचानक बंद होने या पूंजी प्रवाह का उलट बहाव, दोनों ही बढ़े हैं। इस तरह की उठापटक से निपटने के लिए वित्तीय सुरक्षा तंत्र की मौजूदा स्थिति में वांछित बफरों की काफी कमी है। इसके अलावा ईएमई को व्यवस्थागत रूप से महत्वपूर्ण केंद्रीय बैंकों के स्वैप तक पहुंच हासिल नहीं है। कई ईएमई के लिए मुद्रा दर में अत्यधिक उठापटक के बड़े समग्र आर्थिक परिणाम हैं। बैंक ऑफ इंग्लैंड के गवर्नर मार्क कार्नी ने हाल ही में दिए अपने दृष्टिकोण में इसकी पुष्टि की है कि ईएमई के संस्थागत ढांचे में होने वाले महत्वपूर्ण सुधारों को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा प्रणाली और बाजार-संचालित वित्त में विद्यमान विषमताएं बेअसर कर रही हैं। इस पृष्ठभूमि में इन देशों ने पिछले दो दशकों में भंडार जमा किया है, जिसके कारण पुश कारकों के प्रति पूंजी प्रवाह की संवेदनशीलता काफी कम हो गई है। गवर्नर कार्नी आगे कहते हैं कि यह अतिरिक्त सुरक्षा ईएमई को भारी क़ीमत पर मिली है। इस संदर्भ में मैं कह सकता हूं कि सुरक्षा की भारी क़ीमत होने के बावजूद हमारे पास इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि इसकी तुलना में वित्तीय संकट बहुत महंगे पड़ते हैं। इस तरह से स्पष्ट है कि अब तक ईएमई के भंडार निर्माण उन्हें अपनी मुद्राओं को वैश्विक संक्रमण से सुरक्षित रखने के लिए काफी नहीं हैं।
- हम सामूहिक रूप से यह कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि सुव्यवस्थित विनिमय दर और भुगतान व्यवस्था के बहुपक्षीय सिद्धांत और रूपरेखा पर द्विपक्षीय विनिमय का प्राधान्य नहीं हो? भविष्य में सबसे अच्छा तरीका होगा इस कोष जैसे मौजूदा संस्थानों को मज़बूत करना, उन्हें और प्रासंगिक और विश्वसनीय बनाना। समझौते के अनुच्छेदों के हिसाब से कोष कोटा-आधारित संगठन है, लेकिन इस कोटा से वर्तमान में इसके संसाधनों का केवल 49 प्रतिशत भाग आता है। वैश्विक वित्तीय संकट के शिखर पर और उसके बाद के वर्षों में कोष ने नई उधारी व्यवस्था (एनएबी) और द्विपक्षीय नोट खरीद समझौते (एनपीए) को सक्रिय किया, जिसमें भारत ने भी योगदान दिया। हालाँकि उधार की ये व्यवस्थायें अस्थायी तौर पर की गयी हैं। कोष की अंतिम उपाय वाले वैश्विक ऋणदाता, अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली के निगरान और विश्वसनीय नीति सलाहकार के तौर पर औचित्य को सुरक्षित रखने का समाधान सदस्यों द्वारा की जाने वाली कोटा संसाधनों की प्रतिबद्धताओं में निहित है। इससे कोटा की 15वीं सामान्य समीक्षा होने की तात्कालिकता और बढ़ जाती है, जो अब चार वर्ष की देरी से होगी।
- वैश्विक व्यवस्र्था के समक्ष आज कई चुनौतियां हैं, जो अंतरराष्ट्रीय संगठनों, राष्ट्रीय मौद्रिक और राजकोषीय प्राधिकरणों के कौशल का इम्तिहान हैं। हाल के वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय समन्वय थोड़ा कमज़ोर पड़ गया है। कई उन्नत अर्थव्यवस्थाएं (एई) इसके प्रतिकूल प्रभावों को पर्याप्त रूप से जाने बिना लंबे समय से कम ब्याज दर वाली नीतियों का पालन कर रही हैं। आज वैश्विक स्तर पर ऋणात्मक प्रतिफल वाले बांड की कुल राशि बढ़कर लगभग 13 खरब डॉलर हो गई है; जिसका अर्थ यह हुआ कि लगभग एक तिहाई एई सरकारी बांड का प्रतिफल ऋणात्मक है। इक्विटी प्रीमियम 4 फीसदी से अधिक हो गया है, जो अपने दीर्घावधि औसत मानक विचलन से 1 अधिक है। एई देशों में कम ब्याज दरों पर वापस लौटने में चुनौतियां हैं क्योंकि ईएमई में पहले ही लीवरेज बन चुका है और कई यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं में वांछित डी -लीवरेजिंग पूरा नहीं हुआ है। कम वैश्विक ब्याज दरों के माहौल के बीच ईएमई के गैर-वित्तीय क्षेत्र को दिया गया कुल ऋण 2008 के अंत में सकल घरेलू उत्पाद के 107.2 प्रतिशत से बढ़कर मार्च 2018 तक 194 प्रतिशत हो गया। इसके बाद 2018 के अंत में यह आकंड़ा सकल घरेलू उत्पाद के 4 प्रतिशत से घटकर 183.2 प्रतिशत हो गया। संकट के बाद की अवधि में प्रत्यक्ष और पोर्टफोलियो निवेश के रूप में ईएमई में आने वाला शुद्ध निजी पूंजीगत प्रवाह लगभग दोगुना हो गया। इस बात से कुछ ईएमई के लिए जोखिम है। इनमें से कुछेक जोखिम कमजोर बैंक / गैर-बैंक बैलेंस शीटों के तौर पर सामने आए हैं और कुछ अभी सुप्त अवस्था में हैं और नज़र आ सकते हैं, खासकर जब वैश्विक ब्याज दर चक्र में निर्णायक बदलाव आता है। सारा विश्व भरोसेमंद समाधान सुझाने के लिए आईएमएफ की ओर देखेगी। अपनी ज़िम्मेवारी के तौर पर ईएमई को नीतियों का पालन करना होगा, जिनसे विकास पर ध्यान केंद्रित रहे और इसके साथ ही बृहत्त अर्थव्यवस्थागत और वित्तीय स्थिरता को बढ़ावा मिले।
- समाधान निकलने और मुश्किल हो रहे हैं क्योंकि कई अर्थव्यवस्थाओं में तनावपूर्ण व्यापार वार्ताओं, बढ़ते भू-राजनीतिक टकराव, सीमित नीतिगत गुंजाइश और उच्च ऋण स्तरों के माहौल में वैश्विक अर्थव्यवस्था नए, अनिश्चित दौर में जा रही है। समूह के रूप में एई के सामान्य सरकारी ऋण जीडीपी के 100 प्रतिशत से अधिक हो चुके हैं। कई उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में राजकोषीय गुंजाइश की कमी है।
- सुस्त होते वैश्विक विकास की पृष्ठभूमि में यह बात महत्वपूर्ण है कि मौद्रिक और राजकोषीय प्राधिकरणों की नीतियों में अच्छी तरह से समन्वय किया जाए ताकि वे अतिरिक्त लीवरेज निर्माण और परिसंपत्ति मूल्यों में क्षणिक वृद्धि किये बिना विकास को संबल दें। विकास के साथ वृहद आर्थिक स्थिरता के लिए विवेकपूर्ण नीतियां महत्वपूर्ण हैं। वैश्विक स्तर पर हमें नीति पर ध्यान केंद्रित करने और विवेकपूर्ण तरीके से इसका उपयोग करने और साथ ही साथ उत्पादकता, नवाचार और रोजगार सृजन में सुधार लाने के लिए संरचनात्मक सुधार लाने की जरूरत है। आने वाले वर्ष में इन क्षेत्रों में आईएमएफ की नीतिगत सलाह का परीक्षण होगा। वित्तीय स्थिरता के साथ साथ वैश्विक आर्थिक विकास बरकरार रखने में मुख्य बात होगी कि आईएमएफ और केंद्रीय बैंक भविष्य में कैसे मार्गदर्शन देते हैं।
- मैंने कुछ चिंताओं पर प्रकाश डाला है, जिन्होनें मुझे वैश्विक मौद्रिक और वित्तीय प्रणाली के भविष्य पर काफी आत्मनिरीक्षण करने को विवश किया, खासकर जब हम भारतीय रिज़र्व बैंक में भी इन चुनौतियों का दिन-प्रतिदिन सामना करते हैं। प्रभावी समाधानों की खोज वैश्विक स्तर पर चल रही है। यह खोज इतिहास और अनुभव से मिले सबकों से लैस होनी चाहिए, और इसी संदर्भ में मैं आपको यह पुस्तक पढ़ने की सिफारिश करता हूं।
धन्यवाद।