पाकिस्तानी प्रचार का खंडन’
पर
राजदूत कंवल सिब्बल
(भूतपूर्व विदेश सचिव)
का व्याख्यान
5 सितंबर 2019
सप्रू हाउस, नई दिल्ली
प्रधान मंत्री इमरान खान का संपादकीय लेख 30 अगस्त को न्यूयॉर्क टाइम्स (एनवाईटी) में देखने को मिला। न्यूयॉर्क टाइम्स द्वारा ऐसे बदनामी फैलाने वाला लेख प्रकाशित करना, जो न केवल तथ्यों को तोड़ता मरोड़ता है, बल्कि तथ्यों का निर्माण भी करता है, विदेशी नेताओं के विचारों वाले लेख को प्रकाशन हेतु स्वीकृति देते समय अपनाये जाने वाले इसके मानकों की खराबी का सूचक भी है। किसी भी कसौटी पर यह सामान्य नहीं लगता कि किसी भी गंभीर प्रकाशन को अपने कॉलम में एक विदेशी नेता का लेख प्रकाशित करना चाहिए, जो दूसरे देश और उसके नेता पर ऐसी दुर्भावना से हमला करता हो। न्यूयॉर्क टाइम्स या किसी भी अंतरराष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त प्रकाशन को स्वयं को एक देश द्वारा दूसरे देश के खिलाफ प्रचार-प्रसार के लिए इस्तेमाल नहीं होने देना चाहिए। जब किसी विदेशी नेता को अपने देश के लिए चिंता के मुद्दों पर अपनी बात बताने के लिए आमंत्रित किया जाता है तो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वह नापतोल कर, गरिमापूर्ण तरीके से बात करे और उसे दिए गए अवसर का उपयोग किसी तीसरे देश के नेता का तिरस्कार करने हेतु न करे। इस मामले में एनवाइटी विफल रहा है। जिस तरह से इमरान खान ने भारत और प्रधान मंत्री मोदी की निंदा की है, उसे करने की उनमें क्या विश्वसनीयता है? उन्हें पाकिस्तानी सेना द्वारा पद पर रखा गया है, जो पाकिस्तान के अंदर उन्हें "चुने गए" प्रधान मंत्री कह कर उनका मज़ाक़ बनाये जाने पर उनकी चिढ़ की पोल खोलता है। यह बात भारत के चुनावों में होने वाले मानव इतिहास के सर्वाधिक विशाल लोकतांत्रिक अभ्यास के विपरीत है, जिनमें 90 करोड़ से अधिक लोग मतदान करते हैं, जोकि संयुक्त राज्य अमेरिका की पूरी आबादी का लगभग तीन गुना है। ये वही इमरान खान हैं जिन्होनें विपक्ष के सभी प्रमुख नेताओं - पूर्व प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों को जेल में डाल दिया है। ये वो ही हैं जिन्होनें उर्दू में राग अलापा था कि जो भारत का मित्र है, वो देशद्रोही है, जिन्होंने नवाज़ शरीफ को भारत से बातचीत करने पर उनकी कड़ी निंदा की थी। और आज वे भारत को अपने शांति अपने प्रस्ताव पेश कर रहे हैं !!
एनवाइटी को याद करना चाहिए कि उनके तालिबान को दिए जाने वाले समर्थन और अफगानिस्तान में अमेरिका / नाटो के कामकाज के विरोध के कारण उन्हें तालिबान खान कहा जाता था। उन्होंने तत्कालीन सरकार को गिराने की कोशिश में इस्लामाबाद में चरमपंथी इस्लामी संगठन तहरीक-ए-लबिक की नाकाबंदी का समर्थन किया। उनके इस्लामी झुकाव उनके भाषणों में स्पष्ट नज़र आते हैं, जिनमें वे बार-बार पाकिस्तान में कल्याणकारी राज्य बनाने का अपना जुनून दिखाते हैं, जो लोकतांत्रिक, उदार समाजों के समकालीन मूल्यों पर आधारित आधुनिक कल्याणकारी राज्य नहीं, बल्कि चौदह सदी पुराने मदीना मॉडल पर आधारित है। यह चीज़ मूलतया मुस्लिम देशों के लिए इस्लामिक राज्य और अन्य इस्लामिक कटटरपंथी संस्थाओं की सोच से किस तरह से अलग है - वर्तमान राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को दूर करने हेतु इस्लाम के न्याय, समानता और शरिया पर आधारित भूतकालीन स्वर्ण युग की ओर वापसी।
इमरान खान द्वारा भारत की ओर की गई शांति की तथाकथित पहल कश्मीर मुद्दे को हल करने के आह्वान की शर्त सहित की गई है। उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच गरीबी की साझा समस्याओं को प्राथमिकता के आधार पर हल करने की ज़रूरत की बात की, लेकिन व्यापार सहित संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में कोई कदम उठाने को कश्मीर समस्या के समाधान पर निर्भर रखा है। वे संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के अनुसार कश्मीरी लोगों के लिए स्व-निर्णय का आह्वान करने के अलावा कोई हल नहीं देते हैं। पहली बात तो यह कि यह मत अपनाकर वे 1972 के शिमला समझौते का उल्लंघन कर रहे हैं जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि इस मुद्दे पर द्विपक्षीय रूप से सिर्फ भारत और पाकिस्तान निर्णय लेंगे। सैद्धांतिक तौर पर यदि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों को आधार बनाया भी जाए तो पाकिस्तान ने जनमत संग्रह कराने के लिए अन्य कदम उठाने से पहले पूर्व शर्त के तौर पर जम्मू और कश्मीर (जम्मू-कश्मीर) से अपने अनियमित और नियमित बलों को वापस न बुलाकर उनका उल्लंघन किया है। यह रेखांकित करना भी ज़रूरी है कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 1 पर आधारित नहीं थे और उनमें आत्मनिर्णयन की ओर कोई संकेत नहीं है - इसका उल्लेख इनके शब्दों में कहीं नहीं मिलता है।
भारत और पाकिस्तान के बीच जनमत संग्रह कराने पर हुई सहमति केवल जम्मू-कश्मीर के भारत या पाकिस्तान में विलय के प्रश्न पर थी, जिसमें कोई स्वतंत्रता नामक कोई तीसरा विकल्प नहीं है, जो संयुक्त राष्ट्र चार्टर के तहत आत्मनिर्णयन की किसी भी वास्तविक कार्यवाही का भाग होना था। संयुक्त राष्ट्र और तीसरे देशों द्वारा मध्यस्थता के प्रयासों सहित भारत और पाकिस्तान ने आजादी के बाद कई बार कश्मीर मुद्दे पर चर्चा की है। 1990 के दशक के मध्य से दोनों देशों के बीच कश्मीर मुद्दे सहित संरचित संवाद हुआ है। दोनों पक्ष एक दूसरे की स्थिति से पूरी तरह अवगत हैं। इमरान खान को उनके शांति निर्माता के नए अवतार में पूछा जाना चाहिए कि इस गतिरोध को दूर करने हेतु उनके पास कौन से नए विचार हैं। वर्तमान में पाकिस्तान का तत्कालीन जम्मू और कश्मीर राज्य (जम्मू-कश्मीर) के बड़े हिस्से पर अवैध कब्ज़ा है, जिसका पूर्ण तौर पर भारत में विलय हो गया था। इस कब्ज़े से पाकिस्तान ने भारी भू-राजनीतिक लाभ अर्जित किया है, क्योंकि अब यह चीन से सटा हुआ है और भारत अफगानिस्तान के सन्निकट नहीं है। ऐसी स्थिति की कल्पना कीजिए जिसमें पाकिस्तान का चीन के साथ कोई भूमि सम्पर्क ना हो - इस हालत में इस उपमहाद्वीप की पूरी भू-राजनीति ही अलग होती। पाकिस्तान को और क्या चाहिए? इसे इस आधार पर और भारतीय क्षेत्र चाहिये कि जिस ज़मीन पर इसने अवैध रूप से कब्ज़ा किया है, वह इसकी है, लेकिन कानूनी तौर पर भारत के पास क्या है, इसे पाकिस्तान के साथ भी साझा किया जाना चाहिए।
पाकिस्तान ऐसा बर्ताव करता है जैसे कि कश्मीरी पाकिस्तानी नागरिक हों और उनकी ज़िम्मेवारी पाकिस्तान के सिर पर हो। जम्मू और कश्मीर अन्य भारतीय राज्यों की तरह एक समग्र राज्य है, जहां मुस्लिम, हिंदू और बौद्ध धर्म के लोग रहते हैं। पाकिस्तान की चिंता सांप्रदायिक है, क्योंकि यह मुसलमानों तक ही सीमित है। 180 मुसलमानों के साथ पूरे भारत में लगभग उतने ही मुसलमान हैं जितने पाकिस्तान में हैं। भारत ने पाकिस्तान द्वारा कश्मीर के मुसलमानों या भारत के मुसलमानों की ओर से बोलने के किसी अधिकार को मान्यता नहीं दी है। पाकिस्तान का कहना है कि कश्मीर भारत के विभाजन का अधूरा एजेंडा है, जिसका अर्थ है कि इसका उद्देश्य फिर से भारत का धार्मिक आधार पर बांटकर उन भयानक परिणामों वाला विभाजन करना है जैसे भारत का पहला विभाजन हुआ था ।
एनवाइटी के संपादकों को भारत में कश्मीर के मुसलमानों के साथ होने वाले व्यवहार की चीन में तिब्बतियों और पड़ोस के मुस्लिम उइगरों के साथ होने वाले व्यवहार से तुलना करनी चाहिए। भारत ने जम्मू-कश्मीर में मुसलमानों की धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप नहीं किया है, उनके धार्मिक स्थलों को नष्ट नहीं किया है, जनसांख्यिकीय परिवर्तन नहीं किया है, या उन पर कोई पराई भाषा नहीं थोपी है। इसने विचारधारा पर आधारित सोशल इंजीनियरिंग नहीं की है जैसी चीन सिंकियांग में कर रहा है। भारत ने पुन: शिक्षण शिविरों में लाखों लोगों को क़ैद नहीं किया है, जैसा चीनियों ने किया है। उइगरों के प्रति पाकिस्तान का रवैया आर्थिक लाभ से प्रेरित है चूंकि वह आर्थिक दृष्टि से चीन पर निर्भर है। इमरान खान ने हाल ही में जिनेवा में हुई मानवाधिकार परिषद में उइगर मुसलमानों के प्रति चीन के व्यवहार का समर्थन किया। मुस्लिमों को उनका समर्थन चुनिंदा आधार पर है।
इमरान खान जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन का मुद्दा उठा रहे हैं और कश्मीर में कर्फ्यू लगाने और वहां संचार बंद होने का नाटकीयकरण कर रहे हैं। इन अस्थायी, एहतियाती कदम से कश्मीरियों पर हिंसा नहीं बढ़ती है, बल्कि ये जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान और स्थानीय मददगार तत्वों द्वारा समर्थित आतंकियों, जो आतंकवादियों, जो घुसपैठ कर वहां आये हैं, के खिलाफ सुरक्षा कर हिंसा की रोकथाम करने के साधन हैं। जब इमरान खान जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन का मुद्दा उठाते हैं तो उन्हें देश के समक्ष चुनौती से निपटने में भारत के आचरण की अपने देश के आचरण से तुलना करनी चाहिए, जिसने दक्षिण और उत्तरी वज़ीरिस्तान में अपने मुसलमानों के खिलाफ ही अपनी वायु सेना और भारी हथियारों का उपयोग किया और सैन्य संचालन आसान करने के लिए अपने ही लाखों नागरिकों को विस्थापित किया है ।
इसने बलूच नेताओं को मारने के लिए भारी तोपों का इस्तेमाल किया है। इसके ईश निंदा कानून से इसके अल्पसंख्यक आतंकित हैं। इसके यहां सिपाही-ए-साहिबा जैसे आतंकवादी संगठन शियाओं को मारते हैं, ईसाई चर्चों और सूफी मस्जिदों पर हमला करते हैं। संयुक्त राष्ट्र की संबंधित सुरक्षा परिषद समिति द्वारा लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठन घोषित किया गया है। अन्य देशों के अलावा संयुक्त राज्य अमेरिका और फ्रांस ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर स्थित हिजबुल मुजाहिदीन को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया है। स्मरणीय है कि कश्मीर में मुस्लिम चरमपंथियों ने संजातीय पवित्रीकरण कर 1990 में कश्मीर से लगभग 450,000 स्वदेशी कश्मीरी हिंदुओं को हिंसा की धमकी देकर वहां से बाहर भगा दिया था। सच बात यह है कि भारतीय अधिकारियों ने एक विदेशी शक्ति द्वारा समर्थित कश्मीर समस्या के साथ बड़े संयम से निपटा है क्योंकि लोकतांत्रिक देश पाकिस्तान जैसे सैन्य प्रभुत्व वाले देशों की तुलना में अलग तरह से काम करती हैं।
पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित सरकारी आतंकवाद भारत के लिए एक मुख्य मुद्दा है और जब तक पाकिस्तान इसे खत्म नहीं करता है, तब तक किसी भी नई आशा या बातचीत का कोई आधार नहीं है। भारत-पाकिस्तान वार्ता पाकिस्तानी एजेंसियों द्वारा प्रायोजित बड़े भारत-विरोधी आतंकवादी हमलों के कारण समय-समय पर टूटती रही है। इमरान खान का दावा है कि वे बातचीत करना चाहते हैं लेकिन वे यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं उन्हें जिहादी आतंकवाद के मुद्दे से निपटने की जरूरत है। उनका कहना यह है कि पाकिस्तान भारत के खिलाफ आतंकवाद में शामिल नहीं है, कि पाकिस्तान खुद भी आतंकवाद का शिकार है, भारत को इसका प्रमाण देना होगा और यह कि भारत की दमनकारी नीतियों से कश्मीरी लोगों पर हुए मानवाधिकार उल्लंघनों से उकसाया भारत पाकिस्तान को अनावश्यक रूप से कश्मीर में घरेलू आतंकवाद के लिए जिम्मेदार ठहराता है। यह खंडन पाकिस्तान द्वारा किये गए वास्तविक आतंकी कृत्यों, जिनमें सर्वाधिक निंदनीय घटनायें हैं 2001 में भारतीय संसद पर हमला और 2008 में मुंबई हमला जिसमें 166 लोग मारे गए थे, से कैसे मेल खाता है? भारत ने पिछले कुछ वर्षों में कश्मीर में और इससे बाहर अन्य हमले झेले हैं। यह सूची लंबी है और इसमें जम्मू-कश्मीर और भारत भर के शहर, धार्मिक, वैज्ञानिक, आर्थिक और सैन्य लक्ष्य शामिल हैं। यहां तक कि अमेरिका भी भारत के खिलाफ सीमा-पार आतंकवाद को समाप्त करने के लिए पाकिस्तान को आह्वान कर रहा है। खंडन करने को संभव बनाने के लिए पाकिस्तान ने पिछले कुछ वर्षों में कश्मीर में स्थानीय संपत्ति भी विकसित की है ताकि वह आतंकी कामों को अंजाम दे सके और यह तर्क दे सके कि वह इसमें शामिल नहीं है। क्या इसका मतलब यह निकलता है कि विभिन्न मुस्लिम देशों में अल कायदा और इस्लामिक स्टेट तत्वों के उत्पन्न होने का उम्मा में अपना संदेश फैलाने और नए सैनिकों को भर्ती करने वाले इस विचारधारा के प्रमुख संरक्षकों से कोई लेना-देना नहीं है?
आतंकवाद के मुद्दे पर इमरान खान की बेगुनाही की बातें झूठी हैं। पाकिस्तान ने अपनी सरज़मीं पर उनकी होने से इनकार करने के साथ साथ तालिबान नेतृत्व को सुरक्षित पनाह मुहैया कराई है। इसने अपनी सैन्य छावनी के पास कई वर्षों तक ओसामा बिन लादेन को शरण दी। इसने अमेरिका के ज़ोर देने के बावजूद हक्कानी समूह के खिलाफ कार्रवाई करने से इनकार किया है। अफगान तालिबान और हक्कानी समूह ने अफगानिस्तान में हजारों अमेरिकी / नाटो सैनिकों को मार डाला है। अमेरिकी कांग्रेस में जॉइंट चीफ्स ऑफ़ स्टाफ के पूर्व अमेरिकी अध्यक्ष की गवाही में हक्कानी समूह को पाकिस्तान के आईएसआई का विस्तार कहा गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका की अपनी हालिया यात्रा के दौरान इमरान खान ने स्वीकार किया कि पाकिस्तान की सरज़मीं पर 30,000 से 40,000 आतंकवादी हैं, जिन्होंने अफगानिस्तान और कश्मीर में लड़ाई लड़ी थी। एनवाइटी के संपादक भारत के खिलाफ उनकी कठोर निंदा छापने से पहले उनसे पूछ भी सकते थे कि अब वे कहाँ गायब हो गए हैं। अगर अफगानिस्तान में तालिबान / हक्कानी समूह के आतंकवादी हमलों में पाकिस्तानी एजेंसियों की मिलीभगत रही हैअगर अफगानिस्तान में तालिबान / हक्कानी समूह के आतंकवादी हमलों में पाकिस्तानी एजेंसियों की मिलीभगत रही है, जहां पाकिस्तान के अफगानिस्तान के साथ कोई धार्मिक मतभेद या क्षेत्रीय दावे नहीं हैं, तो यह सोचना कि, वह धार्मिक और क्षेत्रीय, दोनों उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु भारत के खिलाफ आतंकवाद में गहरे तौर पर शामिल नहीं है, सच को झुठलाना होगा। अगर इमरान खान भारत के साथ वास्तव में शांति क़ायम करना चाहते, तो उन्हें महज़ इच्छा ज़ाहिर करने से परे जाकर कुछ ठोस ज़मीनी कदम उठाने चाहिए थे। वे कोशिश कर 2008 के मुंबई आतंकवादी नरसंहार के जिम्मेदार लोगों को दंडित कर सकते थे, जिसमें छह अमेरिकी भी मारे गए थे। वे हाफिज़ सईद को दरकिनार कर सकते थे, खासकर जब उसके सिर पर 1 करोड़ अमेरिकी डॉलर का इनाम था। यही काम वे अन्य लोगों के अलावा पठानकोट और पुलवामा हमलों के ज़िम्मेदार जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख मसूद अजहर के साथ भी कर सकते थे। इसके बजाए पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा उसे अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित किये जाने को रोकने के लिए चीन के साथ वर्षों तक काम किया, जब तक कि चीन के लिए ऐसा करना असमर्थनीय नहीं हो गया। इमरान खान पाकिस्तान के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के प्रतिकूल निर्णय के बाद कुलभूषण जाधव को वापस भेज सकते थे। यदि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों की घुसपैठ बढ़ाने का दोषी नहीं है तो वह भारत की एजेंसियों को घुसपैठ की संभावित कोशिशों के बारे में सचेत कर सकता है ताकि भारतीय सुरक्षा बल उन्हें रोक सकें। ऐसा करना सभ्य देशों के बीच आतंक-रोधी सहयोग के अनुरूप होगा। संक्षेप में इमरान खान पाकिस्तान में भारत को निशाना बनाने वाले जिहादी समूहों पर अंकुश लगाने के लिए विश्वसनीय और निर्णायक कदम उठाकर अपनी ईमानदारी दिखा सकते हैं।
इमरान खान के कुछ प्रमुख सलाहकार उनकी शांति की बात की भारत के अड़ियलपन से तुलना आकर उन्हें शांति निर्माता दिखाने की रणनीति की सराहना कर रहे हैं। उनके विदेश मंत्री कुरैशी ने करतारपुर कॉरिडोर को "गुगली" कहा है। पाकिस्तान के एक सेवानिवृत्त जनरल ने बीते दिनों एक पाकिस्तान टीवी पर कहा है कि करतारपुर कॉरिडोर खालिस्तान आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए बना है। कुरैशी ने चौंकाने वाला बयान दिया है कि पाकिस्तान भारत के साथ बातचीत के लिए तैयार है, बशर्ते भारत अनुच्छेद 370 पर अपना फैसला उलट दे, हिरासत में लिए गए कश्मीरी नेताओं को रिहा कर दे और उन्हें उनसे मिलने की अनुमति दे। गंभीरता की इस कमी से भारत से बातचीत और शांति चाहने के बारे में इमरान खान के नकली ढोंग की वास्तविकता नज़र आती है।
अपनी परमाणु क्षमता की आड़ में पाकिस्तान भारत में आतंकवाद को खुलेआम बढ़ावा दे रहा है। तनाव बढ़ने की चिंताओं के कारण भारत जवाबी कार्रवाई करने में संकोच करता रहा है, सिवाए तब जब 2016 में भारत ने नियंत्रण रेखा के पार आतंकवादी शिविरों पर सीमित सर्जिकल स्ट्राइक की और 2019 में पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के बालाकोट में हमला किया, जिसकी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने भी निंदा की। किसी अन्य पाकिस्तानी नेता ने भारत के साथ परमाणु गतिरोध के बारे में और दबे शब्दों में भारत के खिलाफ परमाणु हथियार इस्तेमाल करने की धमकी नहीं की है, जैसा इमरान खान ने किया है। भारत के विपरीत पाकिस्तान नो-फर्स्ट-यूज़ (एनएफयू) परमाणु नीति का पालन नहीं करता है।
इसी पृष्ठभूमि में इमरान खान के पराक्रमवाद और परमाणु हथियारों के बारे में इधर उधर की बात को हतोत्साहित करने के लिए भारतीय रक्षा मंत्री ने कहा है कि भारत की एनएफयू नीति में किसी बदलाव की कोई योजना नहीं है, लेकिन यह कि कोई भी बदलाव भविष्य के घटनाक्रम पर निर्भर करेगा। इमरान खान आपके पेपर में संपादकीय लेख सहित इस बात को हर जगह फैला रहे हैं, अपने स्वयं के परमाणु उल्लंघनों को अनदेखा कर रहे हैं, जिनकी दुर्भाग्यवश अमेरिका ने भी इस सारे अरसे में अनदेखी की है।
इमरान खान ऐसा व्यवहार कर रहे हैं मानो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के अस्तित्व के कारण ही पाकिस्तान ने भारत में आतंकवादी तबाही होने से रोक दी हो। असल में 1989 से पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ आतंकवादी हमलों को प्रायोजित किया है, तब भी जब यह अनुच्छेद लागू था। इतना ही नहीं, यह अनुच्छेद 1965 में जम्मू-कश्मीर, 1971 में और 1999 में कारगिल के खिलाफ पाकिस्तान की आक्रामकता से कोई सुरक्षा नहीं था। फिर इमरान खान की दलील का क्या मोल और प्रासंगिकता है कि धारा 370 को रद्द करना नया भड़काऊ कदम है, जिससे हिंसा होगी? वास्तव में, जैसे ही वहां लागू प्रतिबंधों को धीरे धीरे खत्म किया जाता है, वे अपने बयानों से जम्मू-कश्मीर में खुले तौर पर हिंसा के लिए उकसा रहे हैं।
इमरान खान जम्मू-कश्मीर में यथास्थिति में हुए बदलाव के बहुत बड़े अर्थ निकाल रहे हैं। भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय संघ में जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति में हुए परिवर्तन से भारत की वर्तमान बाहरी सीमाएँ नहीं बदली हैं और इसका जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के साथ नियंत्रण रेखा और लद्दाख में चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर कोई प्रभाव नहीं है।
वास्तव में पाकिस्तान और चीन ने जम्मू-कश्मीर में यथास्थिति को बदलने के लिए काफी अधिक मिल-जुलकर काम किया है। 1963 में पाकिस्तान ने पाक अधिकृत जम्मू कश्मीर (PoK) की शक्सगाम घाटी चीन को सौंप दी थी। इसके बाद चीन ने पीओके में काराकोरम राजमार्ग का निर्माण किया। पाकिस्तान ने 2009 में गिलगित बाल्टिस्तान में यथास्थिति बदल दी है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) के निर्माण से चीनी नागरिकों और सैन्य कर्मियों के भारत की सीमाओं के करीब आने के अलावा पीओके पर चीनी उपस्थिति स्थायी होना यथास्थिति में हुआ बड़ा भू-राजनीतिक परिवर्तन है। चीन कभी भी भविष्य में कश्मीर मुद्दे के ऐसे किसी समाधान पर सहमत नहीं होगा जिससे इसे सीपीईसी पर नियंत्रण खोना पड़े।
इमरान खान ने अपने लेख में कश्मीर में सैकड़ों लोगों को पैलेट गोलियों से अंधा करने की बात की। यह आंकड़ा उन्हें कहां से मिला है? क्या इसे प्रकाशित करने वाला एनवाइटी इस अफवाह के सच होने की गारंटी दे सकता है? वे भारत के संविधान के तहत धारा 370 और अनुच्छेद 35 ए के अवैध होने की बात करते हैं। यह मुद्दा भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन है, जिसने इस मामले पर अभी तक फैसला नहीं सुनाया है। इमरान खान इस नतीजे पर कैसे पहुंचे हैं? क्या भारतीय सुप्रीम कोर्ट के स्थान पर पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई की और उन्हें अपना फैसला सुनाया है?
वे दावा कर रहे हैं कि "पूरे भारत में हजारों कश्मीरियों को जेलों में डाल दिया गया है", और एनवाइटी ने इसकी पुष्टि किये बिना ही इस बकवास को प्रकाशित कर दिया है। कश्मीर बंद हो सकता है लेकिन बाकी भारत बंद नहीं है और अगर यह सच होता तो भारतीय और भारत में विदेशी पत्रकारों इसकी खबर दे देते। उनका कहना है कि कर्फ्यू की अवहेलना करने वाले कश्मीरियों की गोली मारकर हत्या की जा रही है, और यह भी कहना है कि ऐसा बड़ी संख्या में हो रहा है, जो सरेआम भ्रामक प्रचार है और यह खेदजनक है कि उन्होंने झूठ बोलने के लिए एनवाईटी का इस्तेमाल किया है। कश्मीर के संबंध में बोलते हुए वे कहते हैं, "हम पहले ही कई विकल्प तैयार कर चुके हैं"। विदेश मंत्री कुरैशी ने एक हास्यास्पद बात तो कह दी है। अन्य बातें, जिन्हें भारत से गुप्त रखा गया है, और भी हास्यास्पद हो सकती हैं।
आशा की जानी चाहिए कि एनवाईटी और समग्र पश्चिमी उदारवादी मीडिया जे एंड के की स्थिति और भारत के समक्ष चुनौतियों के बारे में संतुलित दृष्टिकोण रखने का प्रयास करेंगे। 1.25 अरब की आबादी को लोकतांत्रिक तरीके से नियंत्रित करने और पाकिस्तान जितनी बड़ी 18 करोड़ की मुस्लिम आबादी को एकीकृत करने की समस्याओं को कम नहीं आँका जाना चाहिये। पाकिस्तान में धार्मिक शत्रुता, पाकिस्तान के अपने लोगों का बढ़ता कट्टरपंथीकरण, उसकी सरज़मीं पर जिहादी संगठनों, पड़ोस में बैठे अफगानिस्तान में तालिबानके फिर से सक्रिय होने, वहां इस्लामिक स्टेट का फिर से सिर - इन सभी का कश्मीर के पारंपरिक रूप से उदारवादी इस्लाम पर बुरा प्रभाव पड़ता है। पश्चिमी देशों ने देखा है कि आतंकवाद और धार्मिक चरमपंथी के कारण उनके लोकतंत्र और समाज में कितना तनाव आ गया है। इन्होनें अपने मुस्लिम अल्पसंख्यकों को एकीकृत करने में कठिनाइयां अनुभव की हैं। नतीजतन इसकी मानवाधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति कितनी प्रतिबद्धता है - इस बात की परीक्षा हो रही है, यह स्पष्ट होता जा रहा है। भारत की समस्याएं परिमाण के लिहाज़ से बहुत बड़ी और अत्यधिक जटिल हैं, लेकिन भारत ने उनसे निपटने में बहुत लचीलापन दिखाया है। इसे विदेश में बेहतर ढंग से समझा और सराहा जाना चाहिए, जिसमें राजनीतिक वर्ग (बर्नी सैंडर्स जैसे नेताओं को पाकिस्तान द्वारा सक्रिय की गई इस्लामिक लॉबी के ज़रिये खुद से तिकड़म कराने की इजाजत नहीं देनी चाहिए), नागरिक समाज, मीडिया, मानवाधिकार संगठन और शैक्षणिक दायरे भी शामिल हैं, जिन पर भारत में ही कुछ वर्गों द्वारा व्यक्त किए गए अत्यधिक पक्षपातपूर्ण विचारों, जिनमें सरकार के जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक परिवर्तन लाने वाले फैसले का विरोध होता है, का नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
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राजदूत कंवल सिब्बल पूर्व विदेश सचिव हैं। यहां व्यक्त किये गए विचार उनके निजी विचार हैं।