पिछले महीने, सूडान के दारफुर क्षेत्र में विद्रोहियों द्वारा शुरू किए गए हमलों और साथ ही साथ आदिवासी संघर्षों के कारण 100 से अधिक लोग मारे गए।[1] सूडान में मानवीय मामलों के समन्वय के लिए संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (ओसीएचए) ने लिखित रुप से स्वीकार किया था कि 19 जुलाई से 26 जुलाई के बीच क्षेत्र में कम से कम सात हमले हुए हैं। हिंसा बढ़ने के कारण, अधिकारियों ने दारफुर के कुछ हिस्सों में कर्फ्यू की घोषणा की थी।[2] इन संघर्षों के पीछे का मुख्य मुद्दा मूल्यवान कृषि भूमि पर नियंत्रण है। इस हिंसा ने खार्तूम सरकार और दारफुरी विद्रोहियों के बीच चल रही शांति वार्ताओं को संकट में डाल दिया है।[3] दारफुर में नागरिकों द्वारा इन हत्याओं का विरोध किया गया है और प्रदर्शनकारियों की प्रमुख मांग आबादी की सुरक्षा सुनिश्चित करना है। हिंसा के बाद, सूडान के प्रधानमंत्री अब्दुल्ला हमदोक ने इस क्षेत्र में स्थिरता सुनिश्चित करने हेतु एक नए बल की तैनाती की घोषणा की। हालाँकि, इस घोषणा से क्षेत्र के नागरिकों को किसी प्रकार का कोई आश्वसन नहीं मिल सका, क्योंकि दारफुर में सूडानी सरकार द्वारा समर्थित मिलिशिया (नागरिक सेना) द्वारा किए गए क्रूरतापूर्ण अत्याचारों का काफी लंबा इतिहास रहा है, जिसे 'जनजावेद' के रूप में जाना जाता है। इसलिए, बल की तैनाती को मिलिशिया (नागरिक सेना) द्वारा अपने विशेषाधिकारों को जारी रखने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है तथा पहले से ही गंभीर स्थिति इस कदम से और गंभीर हो सकती है।[4]
दारफुर सूडान का सुदूर पश्चिमी क्षेत्र है जिसकी सीमाएं लीबिया, चाड, मध्य अफ्रीकी गणराज्य (सीएआर) के साथ-साथ दक्षिण सूडान से लगी हुई हैं और इस सदी की सबसे बड़ी मानव त्रासदियों में से एक को झेलने वाला क्षेत्र रहा है। 1960 के दशक के बाद से, सूडान के दक्षिणी सूडान के आसपास के क्षेत्रों को खूनी संघर्ष, विद्रोह, अलगाव की मांग और भयावहता के कारण हानि पहुंचायी गई है।[5] 2001-2003 के दौरान, दारफुर में लंबे समय से चल रहे स्थानीय विवाद और बदतर हो गए तथा स्थानीय सरकार इन विवादों को हल करने में असमर्थ रही। इससे, दारफुर के महत्वाकांक्षी तथा अभी तक हताश रहे नेतृत्व के साथ मिलकर क्षेत्र में उग्रवाद को बढ़ावा मिला। संघर्ष 'प्रत्याशित पक्ष की तुलना में अधिक तेज़ी से फैला और खूनी रहा है’।[6] दारफुरी विद्रोहियों ने 2003 में एक हवाई अड्डे पर हमला किया और इस सफल हमले के कारण दुनिया के साथ-साथ सूडानी सरकार का भी ध्यान दारफुर की दुर्दशा पर आया।[7]
उमर अल-बशीर के नेतृत्व में सूडानी सरकार ने विद्रोहियों के हमले और विद्रोह की शुरुआत का जवाब, वायु शक्ति तथा 'जंजावीद’ अरब मिलिशिया की तैनाती से दिया। सरकार ने विद्रोह को दबाने हेतु दृढ़ता दिखाई और इस प्रक्रिया में दारफुर में आतंक को खत्म करना शुरू कर दिया। यह संघर्ष 2003 से 2007 तक अपने चरम पर था। सूडानी सरकार पर इस क्षेत्र के अफ्रीकी जातीय समूहों (फर, ज़गहवा और मसलित) के खिलाफ 'सर्वक्षार’ रणनीति अपनाने और नरसंहार करने का आरोप लगाया गया।[8] ऐसा अनुमान है कि इन वर्षों के दौरान लगभग 300,000 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी और 3 मिलियन से अधिक लोग विस्थापित हो गए।[9] इस खतरनाक मानवीय स्थिति के जवाब में, अफ्रीकी संघ (एयू) के साथ संयुक्त राष्ट्र ने इस क्षेत्र में हाइब्रिड शांति सेना (जिसे दारफुर, यूएनएएमआईडी में यूएनएफ-एयू हाइब्रिड ऑपरेशन के रूप में जाना जाता है) को तैनात किया।[10] इसके अलावा, दारफुर संघर्ष में राष्ट्रपति बशीर की भूमिका को ध्यान में रखते हुए, अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (आईसीसी) ने उन्हें दोषी ठहराया और 2009 में दारफुर में मानवता के खिलाफ युद्ध अपराधों के लिए उनकी गिरफ्तारी का वारंट जारी किया।[11] वह आईसीसी वारंट द्वारा आरोपित ठहराए जाने वाले पहले राज्य प्रमुख थे।
यहाँ यह ध्यान देना उचित है कि, दक्षिणी सूडानी विद्रोह के विपरीत, धार्मिक पहलू ने दारफुर संघर्ष में कोई भूमिका नहीं निभाई क्योंकि अधिकांश आबादी मुस्लिम है। हालांकि, अफ्रीकी जातीय समूहों का मानना था कि खार्तूम में सूडानी सरकार अरबों का पक्ष लेती है।[12] जातीयता पर आधारित भेदभाव के साथ, क्षेत्र के आर्थिक तथा राजनीतिक हाशिए पर विद्रोह को भी हवा दी थी। नतीजतन, विद्रोहियों में ज्यादातर फर, ज़गहवा और मसलित जातीय समूहों को लोगों को शामिल किया गया।[13] क्रूर आतंकवाद विरोधी अभियान के दौरान, सरकारी बल और अरब जंजावीद मिलिशिया अक्सर इन जातीय समूहों को निशाना बनाते थे। यह संघर्ष अरब के देहाती लोगों और कृषि कार्यों में संलग्न अफ्रीकी आबादी के बीच का संघर्ष भी था, क्योंकि देहाती इलाकों में मरुस्थलीकरण और सूखे की वजह से पशुपालक संचालित होते थे।[14] संघर्ष के मूल कारण अब भी वैसे ही बने हुए हैं और अल-बशीर शासन के युद्धकारी रवैये ने इसे और बदतर बना दिया है।
सूडान के तेल क्षेत्र में सक्रिय अंतर्राष्ट्रीय तेल कंपनियों पर दबाव बनाने हेतु दारफुर में जारी संघर्ष ने एक अंतर्राष्ट्रीय अभियान, सूडान डाइवेस्टमेंट टॉस्क फोर्स को भी प्रेरित किया।[15] दारफुर में अत्याचार के संदर्भ में, विश्वविद्यालय के छात्र (कुछ पश्चिमी देशों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका) सूडान डाइवेस्टमेंट टॉस्क फोर्स अभियान में विशेष रूप से सक्रिय थे तथा उन्होंने निवेशकों से इन तेल कंपनियों में मौजूद अपने शेयर को बेचने का आह्वान किया। कार्यकर्ताओं ने 2008 के बीजिंग ओलंपिक को निशाना बनाने और सूडान सरकार को चीन के अस्पष्ट समर्थन की आलोचना करने का भी प्रयास किया।[16] हालांकि, इन प्रयासों का सूडानी सरकार और अल-बशीर पर कम प्रभाव पड़ा। वे सत्ता में बने रहे और 2018 तक शासन पर अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखी।
हालांकि, इस दशक (2011-2020) में, दारफुर में हिंसा में कुछ कमी आई है, लेकिन विद्रोह पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है। इसके अलावा, विस्थापित आबादी की दुर्दशा किसी भी सार्थक तरीके से कम नहीं हुई है। इसका कारण विद्रोही समूहों और सरकार का व्यवहार है। सरकार ने 2006 और 2011 में विद्रोहियों के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए थे लेकिन सभी विद्रोही समूहों को इस शांति सौदों के दायरे में लाने में विफल रही। वास्तव में, केवल एक विद्रोही समूह ने 2006 में शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए और यह भी फिर से विद्रोह में वापस शामिल हो गया।[17] संघर्ष का समाधान इस बात से और भी जटिल हो गया कि 2011 में, तीन दारफुरी विद्रोही समूहों ने सूडान के अन्य अशांत क्षेत्रों के विद्रोहियों दक्षिणी कोर्डोफैन और ब्लू नाइल के साथ हाथ मिलाया; और सूडान रिवोल्यूशनरी फ्रंट (एसआरएफ) का गठन किया। इसके अलावा, यूएन ने दक्षिण सूडान के नए स्वतंत्र राज्य पर एसआरएफ का समर्थन करने का आरोप लगाया था। सूडान के पड़ोसियों, चाड और लीबिया ने भी दारफुरी विद्रोहियों का समर्थन किया था।[18]
इसके अलावा, संघर्ष की बहुस्तरीय प्रकृति ने भी विद्रोह को हल करना बेहद कठिन बना दिया है। सूडान पीपुल्स लिबरेशन मूवमेंट (एसपीएलएम) के विपरीत, जिसने दक्षिणी सूडानी विद्रोह का नेतृत्व किया था, एक भी ऐसा छाता संगठन नहीं है जो दारफुर में बातचीत की शुरुआत कर सकता है। दारफुर में कई विद्रोही समूह (जैसे सूडान लिबरेशन आर्मी और जस्टिस एंड इक्वलिटी मूवमेंट) संचालित थे।[19] कई वर्षों में, विद्रोही समूह कई समूहों में विभाजित हो गए हैं, ज्यादातर आदिवासी पद्धतियों के साथ।[20] इसलिए, ऐसी बंटी हुई स्थिति में शांति लाना मुश्किल है। 2015 में, यह देखा गया कि संघर्ष निम्न स्तरों पर शुरु हुआ था:
सूडान की अल-बशीर सरकार, तेल से समृद्ध दक्षिणी सूडान को खोने के बावजूद लगातार दारफुर को की अपेक्षा करती रही और उनका दमन किया। सरकार क्षेत्र के राजनीतिक और आर्थिक हाशिए से निपटने में विफल रही। हालांकि, 2019 में अल-बशीर को हटाने और खार्तूम में राजनीतिक परिवर्तन ने दारफुर में उम्मीदों को फिर से जगाया। नागरिक तथा सैन्य नेतृत्व के संयोजन के नेतृत्व वाली नई सरकार ने दारफुरी विद्रोहियों के साथ बातचीत शुरू कर दी थी।[22] हालाँकि, अंतिम शांति समझौता अभी काफी दूर की बात है और खार्तूम सरकार तथा दारफुरी विद्रोही समूहों के बीच बातचीत धीमी गति से आगे बढ़ रही है। ऐसा प्रतीत होती है कि दारफुर में रुक-रुक कर हुई हिंसा ने इन वार्ताओं पर भी असर डाला है। हिंसा की ताजा घटनाएं और दारफुर में स्थिरता सुनिश्चित करने हेतु बल की तैनाती से लोगों के मन में जंजावीद और खार्तूम शासन के भारी-भरकम हथकंडे फिर से ताजा हो गए।[23]
अभियोजन हेतु विद्रोही समूहों से अल-बशीर को आईसीसी को सौंपने की मांग को लेकर भी आशंकाएं हैं। शुरुआत में, सूडानी सरकार ने आईसीसी को अल-बशीर को सौंपने पर विचार करने की इच्छा व्यक्त की थी।[24] हालांकि, यह अभी तक नहीं हुआ है और सौंपे जाने को लेकर संदेह है। सूडानी सरकार विद्रोही समूहों के साथ बातचीत कर रही है और राष्ट्रीय सरकार में दारफुर में 25% प्रतिनिधित्व करने और 40% विद्रोहियों को अनुमति देने पर सहमत हुई है। सरकार ने दारफुर को वार्षिक विकास निधि में 750 मिलियन डॉलर प्रदान करने का भी वादा किया है।[25] हालांकि, मौजूदा गंभीर वित्तीय स्थिति को देखते हुए, सूडानी सरकार द्वारा इस वादे का पालन किया जाना बेहद मुश्किल है। यह भी निश्चित नहीं है कि शांति समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद शांति हेतु लाभांश के रूप में कोई महत्वपूर्ण दाता फंडिग होगी या नहीं। हालांकि, एकमात्र अच्छी खबर यह है कि दोनों विद्रोही समूह और सरकार इस बात से सहमत हैं कि शांति सौदा 17 साल के लंबे संघर्ष को समाप्त करने का पहला कदम है।[26]
इस बीच, अगर लड़ाई जारी रहती है और 2020 का कृषि सत्र बाधित होता है, तो इस क्षेत्र में 2.8 मिलियन लोगों के सामने चिरकालिक खाद्य असुरक्षा का जोखिम हो सकता है।[27] निरंतर भूमि अधिकारों की समस्याओं तथा जनजातीय संघर्षों के कारण भी स्थिति खराब होने की संभावना है। इसलिए, अल-बशीर के पतन के बावजूद, दारफुर में शांति तथा स्थिरता अभी भी एक दूर का सपना नज़र आता है।
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* डॉ. संकल्प गुरज़ार विश्व मामलों की भारतीय परिषद में शोधकर्ता हैं।
व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं
संदर्भ:
[1]Nafisa Eltahir and Khalid Abdelaziz, “Sudan peace talks offer little hope for protesters in Darfur”, Reuters, July 29, 2020 at: https://in.reuters.com/article/sudan-politics-darfur-analysis/sudan-peace-talks-offer-little-hope-for-protesters-in-darfur-idINKCN24U264 (Accessed August 5, 2020)
[2] Al Jazeera, “Dozens killed in renewed violence in Sudan’s Darfur: UN”, July 27, 2020, at: https://www.aljazeera.com/news/2020/07/dozens-killed-renewed-violence-sudan-darfur-200727055410756.html (Accessed August 11, 2020)
[3] Eltahir and Abdelaziz, no. 1
[4] Eltahir and Abdelaziz, no. 1
[5] The southern region of Sudan demanded separate statehood due to the political marginalization as well as neglect. The region also had separate religious as well as racial identity and these fault lines had been exacerbated by the policies and behaviour of the regime in Khartoum. Southern Sudan ultimately achieved the statehood (in 2011) after a long civil war (1983-2005).
[6] Alex de Waal, “Darfur and the Failure of the Responsibility to Protect”, International Affairs, 83 (6), 2007, pp. 1039
[7] de Waal, no. 6
[8] Human Rights Watch, “Darfur Destroyed: Ethnic cleansing by Government and Militia Forces in Western Sudan”,May 6, 2004, at: https://www.hrw.org/report/2004/05/06/darfur-destroyed/ethnic-cleansing-government-and-militia-forces-western-sudan (Accessed August 12, 2020)
[9] Jason Burke and Zeinab Mohammed Salih, “Sudan signals it may send former dictator Omar al-Bashir to ICC”, The Guardian, February 11, 2020, at: https://www.theguardian.com/world/2020/feb/11/sudan-says-it-will-send-former-dictator-omar-al-bashir-to-icc (Accessed August 5, 2020)
[10] UNAMID, “About UNAMID”, 2020, at: https://unamid.unmissions.org/about-unamid-0 (Accessed August 5, 2020)
[11]BBC News, “Omar al-Bashir: Sudan’s ousted president”, August 14, 2019, at: https://www.bbc.com/news/world-africa-16010445 (Accessed August 5, 2020)
[12] James Copnall, “Darfur conflict: Sudan’s bloody stalemate”, BBC News, April 29, 2013, at: https://www.bbc.com/news/world-africa-22336600 (Accessed August 11, 2020)
[13] Human Rights Watch, no. 8
[14] Human Rights Watch, no. 8
[15] Luke Patey, The New Kings of Crude: China, India and the Global Struggle for oil in Sudan and South Sudan, Harper Collins, Noida, 2014 pp. 161-165
[16] Patey, no. 11
[17] Copnall, no.12
[18] Copnall, no.12
[19] Copnall, no.12
[20] Eltahir and Abdelaziz, no. 1
[21] International Crisis Group, “The Chaos in Darfur”, April 22, 2015, at: https://d2071andvip0wj.cloudfront.net/b110-the-chaos-in-darfur.pdf (Accessed August 12, 2020)
[22] The Defense Post, “Sudan government and rebels extend peace talks by 3 weeks”, February 17, 2020, at: https://www.thedefensepost.com/2020/02/17/sudan-government-rebels-extend-peace-talks-3-weeks/ (Accessed August 5, 2020)
[23] Eltahir and Abdelaziz, no. 1
[24] Burke and Salih, no. 9
[25] Eltahir and Abdelaziz, no. 1
[26] Eltahir and Abdelaziz, no. 1
[27] Eltahir and Abdelaziz, no. 1