नेपाल एक भूआबद्ध राष्ट्र है जो कि एक संप्रभु देश के रूप में एक मजबूत और अनूठी पहचान रखता है। यह दो महाकाय देशों, भारत और चीन के मध्य एक अस्थिर संतुलन के रुख को अपनाता रहा है। इसकी भौगोलिक एवं सामरिक अवस्तिथि के कारण, नेपाल की विदेश नीति की वरीयताएँ और विकल्प सीमित है जो कि काफी बार इसकी ‘उत्तरजीविता के लिए रणनीति’ के रूप में निरुपित होती है। दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में नेपाल भारत के सीमान्त से घिरा हुआ है। उत्तर की ओर हिमालय दुर्गम सीमाओं का निर्माण करता है जहाँ इसकी सीमायें चीन को छूती है।
नेपाल और भारत के बीच काफी लम्बे समय से मजबूत द्विपक्षीय सम्बन्ध रहे हैं। वर्ष १९५० में भारत और नेपाल के मध्य दो संधियाँ हुई – व्यापार और वाणिज्यिक संधि तथा शांति और मित्रता की संधि, जिसने इन दोनों देशों के सम्बंधो को और प्रगाढ़ किया। शांति और मित्रता की संधि के माध्यम से नेपाल के नागरिकों को भारत में बेजोड़ सुविधाएँ मिली है और उन्हें भारतीय नागरिकों की तरह कई व्यापक विशेषाधिकार और अवसर मिले हैं। दोनों देशों में सीमा के आर पार निर्बाध रूप से आने जाने की परम्परा रही है। भारत ने नेपाल में शांति प्रक्रिया में हमेशा एक निर्णायक भूमिका निभाई है और लोकतंत्र स्थापित होने में सहयोग दिया है। हाल ही के वर्षों में नेपाल के आर्थिक विकास को गति प्रदान करने में भारत का सहयोग रहा, जिसमें विशेषतः द्विपक्षीय व्यापार, निवेश और तकनीकी स्थानांतरण की अहम भूमिका रही। समुद्र का मुहाना न होने कारण, नेपाल अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और निकास मार्ग की सुविधाओं के लिए पूर्ण रूप से भारत पर निर्भर है। नेपाल के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का दो-तिहाई व्यापार भारत से होता है, वही चीन के साथ यह व्यापार मात्र १० प्रतिशत होता है। भारत के विदेश मंत्रालय ने नेपाल को ५३० मिलियन अमेरिकी डॉलर देने की बात कही जिससे कि वहां चार समन्वयित चेक पोस्ट, ३३ जिलों को जोड़ने वाली १५०० किलोमीटर सड़क और दोनों देशों के मध्य १८४ किमी ब्रोडगेज़ रेलवे लाइन का निर्माण प्रस्तावित है। भारत ने नेपाल को २१६ मिलियन रूपये की सहायता दक्षिणी नेपाल की नदियों पर बाँध बनाने के लिए प्रदान किये हैं।i अभी हाल ही में नेपाल में आये भूकंप की त्रासदी के बाद भारत ने नेपाल की हर स्तर पर मदद की, और १ बिलियन अमेरिकी डॉलर की आर्थिक सहायता की पेशकश की। गत माह में भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने काठमांडू में अन्तर्राष्ट्रीय दानदाता सम्मलेन में भाग लिया और नेपाल को भूकंप के बाद पुनर्निर्माण के लिए सहायता के रूप में आर्थिक पैकेज देने की बात कही। यद्यपि वर्तमान समय में भारत और नेपाल को जल संसाधनों के दोहन के क्षेत्र में संभावनाओं को तलाशने की ज़रूरत है जिससे कि दोनों देशों के पारस्परिक लाभ में वृद्धि हो सके।
इस क्षेत्र के भू राजनीतिक खेल में चीन ने सदैव भारत के प्रभुत्वशाली प्रभाव को प्रतिसंतुलित करने की सक्रिय कोशिश की है। वर्ष २००८ में नेपाल में राजतंत्र के खत्म होने के बाद एक राजनितिक शक्ति की रिक्तता आ गई है और चीन इस अवसर का लाभ उठाकर यहाँ भारत के प्रभाव को स्थिर करने की कोशिश कर रहा है। इसके तहत उसने नेपाल के साथ आर्थिक और व्यापारिक सम्बंधो में वृद्धि की। मुख्यतया, तिब्बत की सुरक्षा पर भू राजनीतिक चिंताओं के चलते चीन ने नेपाल पर हमेशा ध्यान दिया है, जिस पर वर्ष १९५० से चीन का प्रभुत्व रहा है। तिब्बत से हजारों शरणार्थी प्रत्येक वर्ष नेपाल में प्रवेश करते है और चीन का यह उद्देश्य रहा है कि इनकी संख्या कम हो और इस मध्यवर्ती क्षेत्र में उसकी नकारात्मक छवि न बने। चीन की सुरक्षा और विदेश नीति में नेपाल को लेकर कई उद्देश्य हैं। नेपाल और चीन काफी लम्बी अन्तर्राष्ट्रीय सीमा साझा करते हैं, जो कि लगभग १४१४ किमी है।ii चीन नेपाल की भविष्य की राजनीति निर्धारण में महत्तवपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
पचास-साठ के दशक से ही चीन ने नेपाल के साथ कुटनीतिक सम्बन्ध बढ़ाना शुरू कर दिया था। १९५५ से १९८९ के काल में चीन का मुख्य उद्देश्य नेपाल में आधारभूत संरचना का निर्माण करना था। चीन ने नेपाल से ये भी वादा किया था कि उसकी भूमि को अन्य तीसरे देश संरक्षण देगा। इस प्रकार इस दौर में चीन ने नेपाल में भारत विरोधी प्रचार किया। अस्सी के दशक के मध्य में चीन ने नेपाल में राजमार्ग निर्माण की गतिविधियाँ प्रारम्भ कर दी। और जून १९८४ में यह तय हुआ कि एक पार-हिमालय राजमार्ग का निर्माण होगा, जो कि पोखरा शहर और जियांग-तिब्बत को सडकों द्वारा जोड़ेगा। वर्ष १९८७ में चीन ने यह निश्चित किया कि नेपाल की सीमा पर ल्हासा से दज्हू तक एक सड़क का निर्माण किया जायेगा। वर्ष १९८८ में चीन और नेपाल के मध्य ऐसे कई श्रंखलाबद्ध करार हुए जिनसे भारत के सुरक्षा हितों की उपेक्षा हुई। और नेपाल ने चीन की इन कदमों का सकारात्मक रूप से स्वागत किया। वर्ष १९७५ तक नेपाल और चीन के मध्य व्यापार ०.७ प्रतिशत रहा जबकि शेष ९९.०३ व्यापार भारत के साथ होता था। नब्बे के दशक के मध्य में, चीन की सरकार ने नेपाल को आर्थिक और तकनीकी सहयोग कार्यक्रम के अंतर्गत काफी अनुदान प्रदान किया था। यह आर्थिक अनुदान प्रत्येक वर्ष ८० मिलियन तक पहुँच गया था।
वर्ष २००५ में चीन ने नरेश ज्ञानेन्द्र को भारी मात्रा में शस्त्रों की आपूर्ति की और इसी वर्ष भारत के विरोध के बावजूद नेपाल ने चीन को सार्क में शामिल करने का समर्थन भी किया। सितम्बर, २००८ में चीन ने अपने सैन्य अभ्यास में पर्यवेक्षक के रूप में नेपाल के रक्षा मंत्री को आमंत्रित किया और इस यात्रा के दौरान चीन ने नेपाल को १.३ मिलियन डॉलर की सैन्य सहायता पैकेज देने की घोषणा की। इसके अलावा पीपल्स लिबरेशन आर्मी के सेनाअध्यक्ष ने नेपाली सेना को २ .६ मिलियन डॉलर की गैर घातक सैन्य सहायता की पेशकश की। चीन नेपाल राजमार्ग के तैयार होने के बाद ल्हासा और काठमांडू शहर जुड़ जायेंगे और इससे चीन को दक्षिण एशिया में एक प्रवेशद्वार मिल जायेगा। किंगहाई-तिब्बत रेलमार्ग के साथ यह राजमार्ग चीन के वृहद व्यापार के माध्यम से नेपाल के आर्थिक विकास को ऊँचा ले जा सकता है।iii
चीन की भागीदारी केवल सडकों, रेलमार्गों और अस्पतालों तक ही सीमित नहीं रही। अगस्त, २००८ में चीन ने ज्हंग्मु-काठमांडू ओप्टिकल फाइबर केबल प्रोजेक्ट भी नेपाल को सौप दिया। इस १०० किमी के ओप्टिकल फाइबर केबल ने चीन और नेपाल के मध्य एक सूचना नया तीव्र मार्ग स्थापित किया। इसके अतिरिक्त, काठमांडू घाटी की जल समस्या को खत्म करने के लिए चीनी ठेकेदार मेलामची जल आपूर्ति प्रोजेक्ट में शामिल है। नेपाल की सरकार ने पनबिजली परियोजना के विकास हेतु चीन को आमंत्रित किया और चीन ने इस प्रकार के विभिन्न प्रोजेक्टों में लगभग २०० मिलियन निवेश भी कर दिए हैं। इससे यह साबित होता है कि चीन के साथ नेपाल की संलग्नता बहु आयामी और दीर्घकालीन सुनियोजित है। नेपाल के प्रति चीन की यह सक्रिय नीति इस उद्देश्य से प्रेरित है कि दक्षिण एशिया में भारत के प्रभाव को कम किया जाये।
नेपाल की चीन पक्षीय नीति नरेश महेन्द्र के काल से ही जारी रही, लेकिन माओवादी शासन काल में भारत की नेपाल में सक्रिय भूमिका को संतुलित करने के लिए चीन को खुला आमंत्रण दिया गया। नेपाल द्वारा चीन को भारत के लिए एक तुरुप के पत्ते के रूप में इस्तेमाल करना कोई नई बात नही है, जैसे कि पहले भी देखा जा चुका है कि वर्ष २००५ में नरेश ज्ञानेन्द्र को चीन से शस्त्रों की आपूर्ति हुई थी और वहीं भारत एवं अमेरिका ने इसका विरोध किया था। इसके अलावा नेपाल को सैन्य सहयता भी चीन से प्राप्त हुई थी, जिसका वर्णन पहले किया जा चुका है।
चीन द्वारा नेपाल की सीमा तक रेल संपर्क बढ़ाने से नेपाल बीजिंग से पेट्रोल आयत कर सकेगा और भारत पर इसकी निर्भरता कम हो जाएगी। नेपाल में चीन की उपस्थिति क्रमशः बढ़ी है और यह व्यवस्थित रूप से नेपाल की भारत पर निर्भरता को कम कर रही है। अतः भारत विरोधी लहर के सूत्रीकरण में चीन यहाँ सहायक सिद्ध हो रहा है। अतः भारत दक्षिण एशिया में नेपाल को भोगोलिक रूप से छोटा राष्ट्र मानकर उसका आंकलन न करे बल्कि उसकी सामरिक और भूराजनीतिक अवस्थिति को ध्यान में रखते हुए नीतिगत निर्णय लेवे। इस संदर्भ में निम्न संस्तुतियां प्रस्तुत है-
नीतिगत संस्तुतियां
१ यदि नेपाल और चीन तथा नेपाल और भारत, दोनों के संपर्को को देखा जाये तो हम पाएंगे कि नेपाल और भारत के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक और नृवंशविज्ञान की अदभुत समानताएं है, जो कि चीन और नेपाल के मध्य नहीं है। अतः भारत को सांस्कृतिक कूटनीति पर मुख्य बल देना चाहिए, इसके अतिरिक्त अन्य समानताओं यथा आयुर्वेद और योग पर भी ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।
२ नेपाल और भारत को भाषा केन्द्रों की स्थापना करनी चाहिए जहाँ नेपाल की प्राचीन और आधुनिक भाषाओँ का विकास किया जा सके, यह भाषा कूटनीति का एक आयाम हो सकता है। सिक्किम और बंगाल के पहाड़ी इलाकों में लोगों की मात्रभाषा नेपाली है, इन भागों में भाषा केंद्र स्थापित करने से दोनों देशों में प्रगाढ़ता आ सकती है।
३ बोधगया और लुम्बिनी के मध्य एक सड़क मार्ग को चिन्हित करना, जिससे कि यह विश्व भर में बौद्ध धर्म का मार्ग कहलाये। इस मार्ग के अलावा नालंदा विश्वविद्यालय को विकसित करते हुए बौद्ध अध्ययन केन्द्रों की श्रखंला को आगे बढ़ाना। संयुक्त प्रयासों द्वारा नेपाल और भारत में अवस्थित बौद्ध धर्म के सांस्कृतिक केन्द्रों को जोड़ना तथा भारत नेपाल सीमा के आस-पास बौद्धवाद पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन और संगोष्ठियों का आयोजन करवाना।
४ हाल ही में नेपाल में आये भूकंप से काफी ऐतिहासिक मंदिर नष्ट हो गए हैं, यहाँ भारतीय पुरात्तव विभाग भारत की कुछ संस्थाओ जैसे INTACH और IGNCA के साथ मिलकर पुरानी मूर्तियों और भग्नावशेष के जीर्णोद्धार के कार्य में सहायता कर सकती है। ये सब धरोहर नेपाल के नागरिकों के लिए अमूल्य है।
५ भारत में उच्च शिक्षा, व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा प्राप्त कर रहे नेपाली छात्रों को भारत सरकार विशेष वित्तीय सहायता प्रदान कर सकती है। इन क्षेत्रों में नेपाल में शिक्षा काफी महंगी है अतः यहाँ दोनों देश इस दिशा में एक ज्ञापन समझौता बना सकते हैं जिससे ज्ञान और शैक्षणिक संस्थाओं का आदान प्रदान होगा। भारतीय सहायता द्वारा नेपाल में पोलीटेकनिक संस्थाओं और कॉलेजों का निर्माण तथा नेपाली छात्रों को प्रशिक्षु के रूप में भारत में प्रशिक्षित किया जाये।
६ भूटान-बांग्लादेश-भारत-नेपाल (BBIN) और मोटर व्हीकल समझौता को आधार मानते हुए भारत और नेपाल दोनों देशों के बीच पैसों का लेनदेन निर्बाध कर देना चाहिए। एक दूसरे की प्रशुल्क बाधाओं और आर्थिक नीतियों की अडचनों को समझने के लिए वार्ताओं को बढ़ावा देना, जिससे भविष्य में एक एकीकृत सीमा शुल्क संघ की स्थापना का मार्ग मजबूत हो सके।
*लेखक, शोध अध्येता, विश्व मामलों की भारतीय परिषद् , नई दिल्ली
i Unnithan, Sandeep, “China, India battle for control of Nepal: Special Report - India Today”, India Today, November 26, 2011; The Statesman, “Indian aid for Nepal", May, 2013.
http://www.thestatesman.net/index.php?option=com_content&view=article&id=387811&catid=36
ii Hari Bansh Jha, “Nepal’s Border Relations with India and China”, Eurasia Border Review, BRIT XII, Vol 4, No 1 (Spring 2013), p. 72
iii Satish Kumar, “China’s Expanding Footprint in Nepal: Threats to India”, Journal of Defence Studies, Vol 5. No 2. April 2011, pp. 82-83