"हिन्द महासागर क्षेत्र - बढ़ती भू-रणनीतिक विशिष्टता"
पर
हिन्द महासागर वार्ता सत्र I
में
राजदूत राजीव के. भाटिया
महानिदेशक, आईसीडब्ल्यूए
द्वारा
वक्तव्य
कोचीन, केरल 6 सितम्बर, 2014
मैं भारत के गुंजायमान रणनीतिक समुदाय के सदस्य के रूप में आपको संबोधित कर रहा हूं जो सामुद्रिक मामलों में गहन रुचि लेता है। हमारी संस्था, भारतीय विश्व मामले परिषद इस दिशा में अत्यंत सक्रिय रही है।
भारत के रणनीतिक चिंतन में आज 'समुद्र की अनदेखी' जैसी किसी भी कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं है। वस्तुत: यह वार्ता इसी बात का एक साक्ष्य है। हम उस आधारभूत अवधारणा के साथ इसे प्रारंभ करेंगे जिसे हमारे प्रथम प्रधानमंत्री द्वारा प्रतिपादित किया गया था जिन्होंने इस संदर्भ में 1948 में यह टिप्पणी की थी कि "कोई भी क्रियाकलाप जो संपूर्ण हिंद महासागर में घटता है भारत को प्रभावित करता है तथा भारत द्वारा प्रभावित होता है। हम इसमें कोई सहायता नहीं कर सकते हैं।"
अपने प्रस्तुतीकरणों को हिंद महासागर के साथ प्रारंभ करना तथा उन तथ्यों और आंकड़ों का स्मरण करना एक प्रथा बन चुकी है जो व्यापार, यात्रा, ऊर्जा सुरक्षा और आर्थिक विकास के लिए इसके बढ़ते हुए महत्व को प्रदर्शित करते हैं। मैं इस विशिष्ट सभा में उपस्थित विद्वतजनों के समक्ष इस रीति का उल्लेख नहीं करूंगा।
अत: हम सीधे ही उन प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख करेंगे जो अवधारणा पत्र में उठाए गए इन दो प्रश्नों के उत्तर अथवा कम-से-कम उनके लिए संकेत प्रदान करेंगे कि "क्षेत्र में भू-राजनीति के वर्तमान आयाम क्या है?" और "क्षेत्र में राजनीतिक अस्त-व्यस्तता के प्रधान चालक कौन हैं?"
इस संबंध में कम-से-कम पांच प्रवृत्तियों की पहचान की जा सकती है।
पहला, इस वाक्यांश "क्षेत्र को स्पष्टता के कुछ अंश के साथ परिभाषित किया जाना चाहिए। वस्तुत: हिंद महासागर एक अत्यंत सुपरिभाषित भौगोलिक क्षेत्र है, परंतु इसके भौगोलिक आयामों में परिवर्तन हो रहा है। क्षेत्र के प्रशांत महासागर के साथ संबंध स्वीकार्यता प्राप्त कर रहे हैं। हालांकि कतिपय अवधारणाओं जैसे "भारत-प्रशांत" पर अभी सर्वसम्मति बनाई जानी है, इन्होंने पर्याप्त वाद-विवाद को जन्म दिया है। अनिवार्य भाग यह है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य से, संपूर्ण क्षेत्र जो स्वेज नहर से जपान सागर और आस्ट्रेलिया तक फैला हुआ है, एक विशाल निर्बाध जलक्षेत्र है जिसे इस लक्ष्य के बावजूद ध्यान में रखा जाना होगा कि भले ही हम नीतिगत शोध, रणनीतिक चिंतन अथवा नीति निर्माण में संलिप्त हैं। 1 सितम्बर, 2014 की टोक्यो घोषणा में 'परस्पर जुड़े एशिया, प्रशांत और हिंद महासागर' का उल्लेख एक विशेष महत्व धारण करता है।
दूसरे, हमारे रणनीतिक विश्लेषक सुरक्षा और विकास को भी जुड़वां मानते हैं, वे एक-दूसरे के साथ भली प्रकार से जुड़े हैं; एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है। भारत सरकार का केन्द्रीय लक्ष्य हमारे राष्ट्र और क्षेत्र का समग्र आर्थिक विकास हासिल करना है। यह एक व्यापक प्रकार की सुरक्षा की मांग करता है जिसमें मानव और समाज के अस्तित्व के भौतिक ऊर्जा, आर्थिक, सामाजिक और अन्य पहलू शामिल होते हैं। आज अधिक तात्कालिता और सुदृढ़ प्रतिबद्धता के साक्ष्य देखने को मिलते हैं।
तीसरे, हिंद महासागर क्षेत्र के भागों को चार शब्दों से उल्लेखित किया जाता है। बाह्य क्षेत्र में अनेक राजनीतिक धड़े असफल हुए हैं जिनमें अन्य के साथ लीबिया, मिश्र, सोमालिया, सीरिया, इराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान शामिल हैं। हिंसक पंथवाद, उग्रवाद और आतंकवाद का श्राप अनेक जानें ले रहा है। समुद्र में, समद्री लुटेरों, आतंकवादियों और अन्य विधिविरुद्ध तत्वों की गतिविधियां अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में वृद्धि होने के संकेतों के बावजूद कहर बरपा रही हैं। तब हमें अन्य गैर-पारंपरिक चुनौतियों की विवक्षाओं और प्रभावों में ही स्वयं को व्यवस्थित करना होगा जिनमें प्राकृतिक आपदाएं और जलवायु परिवर्तन भी शामिल हैं।
चौथे, पारंपरिक शक्तियों (अर्थात् नाटो शक्तियां) और अन्य जैसे रूस चीन, जापान और भारत के मध्य सामुद्रिक प्रतिद्वंद्विताओं तथा रणनीतिक प्रतिस्पर्धी इक्कीसवीं शताब्दी में जीवन का सत्य है। इस प्रक्रिया को चयनात्मक सहयोग के पैटर्नों द्वारा प्रभावित किया है जिसमें प्रतिरोध और विवाद को दूर रखना ही प्रमुख लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
रॉबर्ट डी. कपलान यह वर्णन करने में एकदम सही थे कि हिंद महासागर केवल एक भौगोलिक विशेषता ही नहीं है, बल्कि एक "विचार" भी है। उन्होंने वर्णन किया कि : "इसमें इस्लाम की केन्दीयता तथा वैश्विक राजनीति की ऊर्जा और भारत तथा चीन के उदय का मिश्रण है जिससे हमें एक बहु-आयामी बहुध्रुवीय विश्व देखने को मिलता है।" तथापि, उनके इस निष्कर्ष के स्वीकार कर पाना कठिन है कि भारत और चीन के बीच हिंद महासागर के जल में एक गतिशील महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता" चल रही है, जहां अमेरिका एक "स्थिरकारक शक्ति" के रूप में कार्य कर रहा है। हमारे दृष्टिकोण में, क्षेत्र में भू-राजनीति के आयाम कहीं अधिक जटिल और गतिशील हैं तथा अन्य निर्वचनों के प्रति संशयशील भी हैं। यहां एकत्र हुए विशेषज्ञ नि:संदेह ही हमें नए अंतदर्शन प्रदान करेंगे और इस प्रकार बेहतर पारस्परिक समझ के प्रति योगदान देंगे।
पांचवें, एक महत्वपूर्ण बौद्धिक प्रवृत्ति यह है कि भू-राजनीति का विश्लेषण करना ही पर्याप्त नहीं है। आप इस विश्लेषण के साथ क्या करेंगे? इसका उत्तर संभवत: यह है कि क्षेत्र को, सबसे ऊपर, उन सभी शक्तियों और कारकों से सहायता प्रदान करने की आवश्यकता है, जो स्थायित्व, सुरक्षा, शांति, आर्थिक विकास और समृद्धि के अनुकूल हो। हमें सामूहिक रूप से यह विचार करने की आवश्यकता है कि किस प्रकार इस लक्ष्य, इस चुनौती को हासिल किया जाएगा।
इसके साथ ही हम अवधारणा पत्र के तीसरे प्रश्न पर आते हैं, "हिंद महासागर क्षेत्र के भीतर सहयोग में वृद्धि करने की राह में क्या रुकावटें हैं?" मेरा उत्तर यह है कि हमें अपनी विचारधारा पर पुन: विचार किए जाने की आवश्यकता है। इस हिंद महासागर के बारे में काफी बातें करते हैं, परंतु हमने अभी तक स्वयं पर हिंद महासागर समुदाय के रूप में विचार नहीं किया है।
यह प्रसन्नता की बात है कि भारत और आस्ट्रेलिया की अध्यक्षता के अंतर्गत हमारी संस्थाओं से संबंधित कुछ प्रगति हासिल की गई है। विदेश मंतियों की बेंगलुरु और पर्थ की बैठकों के बीच होने वाली बैठकों अर्थात् आईओआर-एआरसी, जो अब आईओआरए है, ने अब प्रगति करनी प्रारंभ कर दी है तथा इक्कीसवीं शताब्दी की आवश्यकताओं को लाभ प्रदान किया है। क्रियान्वित किए जाने वाले विभिन्न प्रस्तावों में से, मैं यह प्रस्ताव करता हूं कि सामुद्रिक सुरक्षा को सुदृढ़ बनाने तथा आर्थिक सहयोग को गहन करने के लिए विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
अंत में, हमारी प्रादेशिक वास्तुकला में सुधार लाने के लिए भी विशेष विचार किया जाना चाहिए। इस क्षेत्र में हिंद महासागर ऐसा (आईओआर) तथा पूर्व एशिया शिखर क्षेत्र (ईएएसआर) के बीच तुलना अत्यंत कड़ी है : आईओआर के पास वार्ता, संपर्क और सहयोग के लिए अत्यंत कम परा-क्षेत्रीय असंरचना है। अत: क्या हमें आईआरआरए को शिखर स्तर तक विस्तारित करने की दिशा में नहीं सोचना चाहिए। हम इस पर तथा अनेक अन्य मुद्दों पर आपके विचार सुनने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
मुझे ध्यान से सुनने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
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