आगामी दशक में भारत की विदेश नीति के लिए चुनौतियों
पर
राजदूत राजीव के. भाटिया
महानिदेशक, आईसीडब्ल्यूए
द्वारा
व्याख्यान
आईआईटी (बीएचयू), वाराणसी
9 अगस्त 2014
इस चुने गए विषय पर अपनी बात रखने और विचारो का आदान-प्रदान करने के लिए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय) के प्रतिष्ठित संकाय सदस्यों और प्रतिभाशाली छात्रों के बीच उपस्थित रहते हुए मुझे प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। मैं सबसे पहले दो संस्थाओं अर्थात् विदेश मंत्रालय और आईआईटी (बीएचयू) के प्रति अपना हार्दिक आभार व्यक्त करूंगा जिन्होंने विदेश मंत्रालय की विशिष्ट व्याख्यान माला के अंतर्गत इस कार्यक्रम के आयोजन के लिए पर्याप्त सहयोग प्रदान किया।
मेरे लिए, यह वास्तव में, युवा भारत, भविष्य के उन नेताओं के साथ बातचीत करने का सुनहरा अवसर है, जो आने वाले दशकों में एक मजबूत, सुरक्षित और विकसित राष्ट्र के निर्माण में योगदान करेंगे।
इस ऐतिहासिक शहर ने हाल के चुनावों में एक निर्णायक भूमिका निभाई है। अगले कुछ वर्षों में इसका अनुमानित रूपांतरण अनेकों लोगों द्वारा न केवल भारत में, अपितु हमारी राष्ट्रीय सीमाओं से भी परे अत्यंत रुचि के साथ देखा जाएगा।
आवश्यक है : वार्तालाप
अपने संबोधन में, मैं विश्वविद्यालय के प्राध्यापक के रूप में, एक व्यावसायिक राजनयिक के रूप में और इस महान देश के रणनीतिक समुदाय के सदस्य के रूप में अपने चार दशकों का अनुभव आपके समक्ष प्रस्तुत करूंगा। हमारी संस्था, भारतीय विश्व मामले परिषद (आईसीडब्ल्यूए) जो देश की सबसे प्राचीन और प्रतिष्ठित विदेश नीति चिंतक संस्था है, विदेशी मामलों में भारत की भूमिका के बारे में विभिन्न प्रकार के शोध, पहुंच, विदेशी वार्ता और ज्ञान के प्रचार-प्रसार के क्रियाकलापों में सक्रियता के साथ लगी है। तथापि, एक उत्प्रेरक और असीमित संवाद के लिए मैं किसी सरकारी अथवा किसी विशिष्ट संस्था के लिए बोलने के स्थान पर अंतर्राष्ट्रीय मामलों और भारत की विदेश नीति के एक उत्सुक छात्र की भांति ही अपनी बात रखना पसंद करूंगा।
मैं एक पावर-प्वाइंट प्रस्तुतीकरण भी दूंगा जो उस व्याख्यान के पाठ पर आधारित है जिसके बारे में मैंने यहां आयोजकों को भी बताया है। मैं इसमें 40 मिनट का समय लूंगा। उसके बाद, मैं हमारी बातचीत के सबसे रुचिकर भाग को प्रारंभ करूंगा, प्रश्नोत्तर सत्र।
भारत और भारत की विदेश नीति के लिए चुनौतियां
मैं यहां इंजीनियरी और प्रौद्योगिकी के छात्रों के समक्ष विदेश नीति पर व्याख्यान देने के लिए क्यों आया हूं? क्या वे मेरी बात को सुनने में रुचि लेंग? क्या आज का यह विषय आप लोगों से संबधित भी है?
मैं अपनी बात का प्रारंभ एक आधारभूत और स्वाभाविक बिंदु के साथ करूंगा : क्या भारत की विदेश नीति की आंतरिक और बाहरी चुनौतियां हमारे देश द्वारा सामना की जा रही चुनौतियां भी हैं। भारतीय विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य देश को उन चुनौतियों का प्रभावशाली और सफलतापूर्वक निवारण करने में सफल बनाना है। इसके साथ-साथ, विदेश नीति निर्माताओं तथा राजनयिकता के वृत्तिकों, जो ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति होते हैं जिनके माध्यम से विदेश नीति के लक्ष्यों की प्राप्ति की जाती है, का यह दायित्व भी होता है कि वे अंतर्राष्ट्रीय परिवेश की निगरानी करें, उस पर प्रतिक्रिया करें तथा जहां संभव हो, अंतर्राष्ट्रीय परिवेश का निर्माण करें ताकि भारत के राष्ट्रीय हित एक प्रबुद्ध तरीके से साधे जा सकें। अन्य उपायों की आवश्यकता भी होती है तथा उन्हें तैनात भी किया जाता है, जैसे सैन्य शक्ति, आर्थिक ताकत, प्रच्छन्न कार्यवाही, सॉफ्ट पावर और सबसे ऊपर, इन सभी का एक औचित्यपूर्ण संयोजन, जो तब मिलकर स्मार्ट पावर बन जाती है।
हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती एक तेजी से बदलते गतिशील, जटिल और बहु-ध्रुवीय विश्व में नीति उपकरणों के सही मिश्रण को अवधारित करना है। इसके अलावा, एक राष्ट्र के रूप में, हमें उस स्थिति में भी हमारे बाहरी संबंधों को संतुलित बनाए रखने की आवश्यकता पर विशेषज्ञता हासिल करना जारी रखना है, जब हमारा वैश्विक दृष्टिकोण विस्तारित हो रहा है। संतुलन की कला न केवल विदेश नीति प्रबंधन के लिए केन्द्रीय है, बल्कि सरकार के लिए भी है, विशेष रूप से भारत जैसे एक विशाल, वैविध्यपूर्ण और चुनौतीपूर्ण देश में।
मुझे आशा है, आप सभी आज देश के सामने आ रही चुनौतियों की सूची बनाने में सक्षम होंगे। आइए हम यह मानते हैं कि निम्नलिखित अवयव अधिकांश लोगों की सूची में शामिल होंगे : त्वरित, व्यापक और अधिक साम्यापूर्ण आर्थिक विकास जो नौकरियां सृजित करता हो, कृषि, विनिर्माण और सेवा के तिहरे खंडों को विस्तारित करता हो, स्वच्छ हवा, जल और विद्युत की आपूर्ति सहित अवसंरचना को सुधारता हो, केन्द्रीय, राज्य और स्थानीय सरकारों द्वारा सेवाओं के अधिक कार्यकुशल वितरण के माध्यम से बेहतर शासन; भ्रष्टाचार में कमी; आतंकवाद तथा आंतरिक सुरक्षा के लिए अन्य चुनौतियों का प्रभावशाली रूप से सामना; विभिन्न क्षेत्रों में सुस्पष्ट सुधार जैसे स्वास्थ्य देखरेख, शिक्षा, पर्यावरण, महिला सुरक्षा और अधिकारिता; तथा आर्थिक सैन्य और राजनयिक शक्ति में दृष्टिगोचर संवृद्धि ताकि भारत एक महाशक्ति के रूप में उभर सके।
यह सभी और इससे भी अधिक 'सबका साथ, सबका विकास' नारे में स्पष्टत: समाहित था। इस मंत्र ने निर्वाचकों को पर्याप्तत: प्रभावित किया और उन्होंने लोक सभा में एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्रदान कर दिया। ऐसा 1985 के बाद पहली बार हुआ है। आगामी कुछ दशकों में भारतीय विदेश नीति का वास्तविक उद्देश्य देश के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य को रूपांतरित करने में एक मुख्य सहयोगकर्ता के रूप में कार्य करेगा। चूंकि इस उद्देश्य के लिए आर्थिक विकास में तेजी से वृद्धि तथा अंतर्राष्ट्रीय विवादों को समाप्त करने की योग्यता महत्वपूर्ण है, भारत को अपने क्षेत्र में और उससे भी परे एक शांतिपूर्ण परिवेश सुनिश्चित करने पर विशेष बल प्रदान करना होगा तथा इसे आर्थिक राजनयिकता के उपकरण का प्रयोग भी इष्टतम रूप से करने की आवश्यकता होगी।
भारत अत्यंत तेजी के साथ एक बहु-आयामी रूपांतरण से गुजर रहा है। इसके साथ-साथ यह "शहरी क्रांति, औद्योगिक क्रांति, सामाजिक क्रांति और राजनीतिक क्रांति" का अनुभव भी कर रहा है। जैसा कि एक पूर्व विदेश मंत्री द्वारा कहा गया है। हमारी राजनीति सामान्यत: लोकतांत्रिक सर्वसम्मति द्वारा चालित है, परंतु हाल ही में यह अधिक आक्रामक और कम धैर्यवान बन गई है। "लोकप्रिय अपेक्षाओं की क्रांति" जिसके विषय में सामाजिक वैज्ञानिकों ने एक लंबे समय से लिखा है, अब हमारे मध्य है। हमारी "महत्वाकांक्षी पीढ़ी" चाहती है कि उनकी आधारभूत जरूरतें यथासंभव कम समय में पूरी हो जाएं। हमारे राजनेता, सिविल सेवक, राजनयिक और संभ्रांत वर्ग के अन्य सदस्यों को इस बात को याद रखने और आत्मसात करने की आवश्कयता है।
उद्भव और दर्शन
आजादी के 67 वर्षों में, हमारी विदेश नीति अनेक चरणों में विकसित हुई है। इसकी वर्तमान स्थिति तथा भविष्य की तस्वीर को समझने के लिए इसके विकास पर एक तेज़ दृष्टि दौड़ाना लाभप्रद होगा।
जवाहरलाल नेहरू ने निसंदेह ही उस तरीके पर एक अमिट निशान छोड़ा था जिस प्रकार से भारत ने उपनिवेशी और उपनिवेश उपरांत विश्व को देखा, निर्वचन किया और उसके साथ जुड़े रहने का विकल्प लिया। संभवत: तीन मुख्य अवयवों ने इस वैश्विक दृष्टिकोण को परिभाषित किया : एशियाई एकता, पंचशील अथवा शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांत तथा शीत युद्ध की गठबंधन-आधारित राजनीति का विरोध। नेहरू के वारिसों, विशेष कर इंदिरा गांधी ने उनके अनुभवों, चाहे वे सकारात्मक थे या नकारात्मक, से सीखा और नेहरूवादी मूल्यों और सिद्धांतो का पालन करते हुए व्यवहारिकता पर आधारित नीति की ओर रूपांतरण किया।
1989-91 में शीत युद्ध की समाप्ति के दशकों उपरांत भारत ने विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकालों के दौरान अपनी विदेश नीति में व्यापक परिवर्तन शामिल किए। इनमें पश्चिम के साथ संबंधों के पुनर्निर्माण के लिएपहल इजराइल के साथ सहयोग विकसित करते हुए पश्चिम एशिया नीति को संतुलित करना, लुक ईस्ट नीति को प्रारंभ करना तथा मई, 1998 में परमाणु परीक्षण संचालित करना शामिल थे जिससे भारत एक परमाणु हथियार वाले राज्य की ओर उन्मुख हुआ।
पिछले दशक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की विदेश नीति, जो 'रणनीतिक अर्थव्यवस्था' की अवधारणा पर आधारित थी, ने पांच आधारभूत विशेषताएं दर्शाईं, जो इस प्रकार हैं:-
इस पृष्ठभूमि में, हम विदेश नीति पर वर्तमान नेताओं के विचारों की समीक्षा पर लौटते हैं। वे प्रथम राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार के कार्यकाल के दौरान विदेश नीति के संचालन की प्रशंसा करते हुए पूर्ववर्ती संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार की नीतियों के आलोचक रहे हैं। अक्तूबर 2013 में, चेन्नई में एक प्रमुख व्याख्यान में गुजरात के तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी इस बात पर बल दिया कि विदेश नीति के स्तंभ रणनीति और सुरक्षा होने चाहिए। श्री वाजपेयी को 'शक्ति और शांति' का दूत बताते हुए उन्होंने "एक निर्भीक भारत और बेहतर विश्व, एक सौहार्दपूर्ण पड़ोस और खुशहाल विश्व, एक मज़बूत एशिया और एक सुरक्षित विश्व" के लिए साथ मिलकर कार्य करने का आह्वान किया राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी द्वारा 9 जून, 2014 को संसद को दिए किए अपने पहले संबोधन में नई सरकार के सुविचारित दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित किया। उन्होंने "एक सुदृढ़ भारत, आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी भारत" की परिकल्पना के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की जो श्रेष्ठ राष्ट्रों की श्रृंखला में अपना उचित स्थान हासिल करेगा। उन्होंने इस बात का आगे वर्णन किया : "हम प्रबुद्ध राष्ट्रीय हितों के आधार पर हमारे अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को आगे बढाएंगे, हमारे मूल्यों की ताकत को व्यावहारिकता के साथ जोड़ेगें तथा पारस्परिक लाभप्रद संबंधों के सिद्धांत पर चलेंगे।"
जबकि नई सरकार ने सत्ता में अपने पहले साठ दिन लगभग पूर्ण कर लिए हैं, विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने इस विषय पर अधिक प्रकाश डाला है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ब्रिक्स शिखर-सम्मेलन में प्रतिभागिता पर संसद को सूचित करते हुए उन्होंने 23 जुलाई, 2014 को कहा कि सरकार के लिए यह अनिवार्य है कि हमारे राष्ट्रीय विकास और सुरक्षा में वृद्धि करने के लिए तथा एक शांतिपूर्ण और समृद्ध विश्व का निर्माण करने की हमारी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धता को पूर्ण करने के लिए अतिसक्रिय और व्यापक अंतर्राष्ट्रीय संबंध स्थापित करे। पूर्व अध्यक्ष की ही भांति, उन्होंने "विशेष बल" की बात की जो "पश्चिम एशिया से लेकर पूर्व एशिया तक फैले हमारे पड़ोस" के साथ सहयोग का निर्माण करने के लिए प्रदान किया जाएगा।
पड़ोस
हमारे निकटतम पड़ोसी क्षेत्र में शांति, सुरक्षा और आर्थिक विकास के निर्णायक महत्व तथा एक प्रभावशाली, वैश्विक भूमिका का निर्वहन करने की भारत की क्षमता पर इसके प्रभाव को व्यापक रूप से समझा गया है। दक्षिण एशिया नई सरकार के लिए उचित ही शीर्ष प्राथमिकता वाला क्षेत्र है। इसके द्वारा शपथ-ग्रहण समारोह में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (दक्षेस) के नेताओं को और मारीशस के प्रधानमंत्री को आमंत्रित करने और उसके बाद भारत के प्रधानमंत्री तथा विदेश मंत्री का पड़ोस देशों की यात्रा करने के निर्णय इस बात को प्रतिबिंबित करते हैं।
जैसे-जैसे यह निर्माणात्मक दृष्टिकोण जारी रहता है, उचित रूप से यह आशा की जाती है कि जब सरकार मई, 2015 में शासन का अपना प्रथम वर्ष पूर्ण करेगी, न केवल हमारे नेता अपने सभी पड़ोसी देशों (पाकिस्तान सहित) की यात्रा कर लेंगे, बल्कि वे क्षेत्र में हमारे संबंधों में नई ताकत और ऊर्जा लाने में भी सफल रहेंगे।
इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए, भारत को कतिपय दीर्घकालिक सफलताएं हासिल करने पर विचार करना चाहिए। ये हैं : बांग्लादेश के साथ भूमि सीमा करार के लिए संसद में विधान को मंजूर करना और इसका त्वरित क्रियान्वयन; विदग्ध प्रबंधन और पर्याप्त निधियों के आबंटन से भारत-श्रीलंका संबंधों से जुड़ी मछुआरों की समस्या का समाधान करना; सरकारी-सेना शिविर तथा आंग सान सु की के नेतृत्व वाले नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के बीच संबंधों में आई गिरावट पर विचार करते हुए म्यांमार को सूक्ष्म और मैत्रीपूर्ण निगरानी के भीतर रखना। हमें समझौते का आग्रह करना चाहिए परंतु इसके असफल रहने पर हमारा दृष्टिकोण शक्तिशाली देशों के साथ अपने कार्य को जारी रखना तथा लोकतंत्र-समर्थक ताकतों को समर्थन प्रदान करना होना चाहिए। अफगानिस्तान पर, हमें अंतर्राष्ट्रीय बलों के वापस चले जाने पर उसकी सुरक्षा, आर्थिक प्रगति और राष्ट्र-निर्माण को संपोषित करने में सहायता करने के लिए व्यावहारिक उपाय तलाशने होंगे। नेपाल के संबंध में, हमें उनके संविधान के निर्माण पर राष्ट्रीय सहमति विकसित करने के लिए उसके राजनीतिक दलों को राजी करने तथा साथ-ही-साथ भारत के साथ सहयोग को मजबूत करने के लिए नई पहलों को प्रारंभ करने का प्रयास करते रहना चाहिए। पाकिस्तान के संबंध में, वार्तालाप शीघ्र प्रारंभ किए जाने की आवश्यकता है। जबकि हम पाकिस्तान पर दबाव डाल रहे हैं कि वह भारत पर लक्षित आतंकवाद का सफाया करने के लिए हमें संतोषजनक प्रगति दर्शाए, फिर भी सामान्य, व्यापार सहयोग मुद्दों पर बातचीत को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
द्विपक्षीय संबंधों पर कार्य करते हुए, नई दिल्ली क्षेत्र में सहयोग संबंधी बहुपक्षवाद की अनदेखी नहीं कर सकता है। इसके लिए प्रमुख उपकरण, दक्षेस ने सतर्क आशावाद के साथ 2010 में अपने 25 वर्ष पूर्ण कर लिए हैं। उसके बाद से यह संस्था मालदीव्स और नेपाल में हुए घटनाक्रमों और राजनीतिक इच्छाशक्ति की सामान्य अनुपस्थिति के कारण कुछ क्षीण हो गई है। दक्षेस के विभिन्न स्तभों अर्थात् राजनीतिक वार्तालाप व्यापार निवेश संयोजनता और आर्थिक संबंधों को मजबूत बनाने के लिए तथा इसके अनेक मित्रों, दक्षेस में प्रेक्षकों के साथ संबंधों को नवीकृत करने के लिए नवीन और सतत् प्रयासों के माध्यम से दक्षेस का प्रनुरूद्धार किए जाने की एक तात्कालिक आवश्यकता विद्यमान है ताकि दक्षिण एशिया मात्र आडम्बर, पारस्परिक दोषारोपण और तनावों की पारंपरिक मानसिकता से उबरते हुए मूर्त सहयोग की संस्कृति प्रतिपादित करे।
विस्तारित पड़ोस
एशिया के अन्य क्षेत्र - पश्चिम, मध्य और पूर्व तथा हिन्द महासागर की परिधि भारत के विस्तारित पड़ोस का निर्माण मध्य अवस्थिति प्रदान की है। भारत की स्थिति तथा भूमिका भी विस्तारित बनी हुई है जिसका मुख्य कारण हमारी बढ़ती हुई आर्थिक ताकत और सामुद्रिक क्षेत्र में एक निवल सुरक्षा प्रदाता के रूप में सेवा प्रदान करने की हमारी क्षमता है।
पश्चिम एशिया, जो हमारे तेल और गैस आपूर्ति का बड़ा आपूर्तिकर्ता है, छह मिलियन सुदृढ़ प्रवासी भारतीयों का घर है जो प्रत्येक वर्ष बिलियनों डॉलर भारत प्रेषित करते हैं तथा एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी अस्थिरता हमें सीधे प्रभावित करती है, आज एक अत्यंत कठिन संक्रमणकाल से गुजर रहा है। इस क्षेत्र के भागों ने फरवरी, 2011 से अरब स्प्रिंग का अनुभव किया है, जो शीघ्र ही असंतोष और खून-खराबे में बदल गया था। लीबिया, मिश्र, सीरिया, यमन और इराक जैसे देश असमंजस की स्थिति में हैं तथा उनके राज्यों के तंत्र अनेक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं जो उग्रवाद और लोकप्रिय असहमति से लेकर पंथवाद, कट्टरवाद, उग्रवाद और आतंकवाद के उदय तक फैली हैं। इस दौरान, 'समस्त अरब समस्याओं की जड़' इजराइल-फिलीस्तीन विवाद ने निकट भविष्य में हल होने का कोई संकेत नहीं दर्शाया। वस्तुत: गाजा में वर्तमान खूनी विवाद ने इसे और भी भड़का दिया। अत: पश्चिम एशिया के तत्काल भविष्य के बारे में आशावादी रहना कठिन प्रतीत होता है। इस स्थिति में भारत को वहां के घटनाक्रमों की निकट से निगरानी करनी होगी तथा उनके प्रतिकूल प्रभावों का निराकरण करना होगा। हम समूचे क्षेत्र में फैले अपने विविध हितों को देखते हुए सभी के साथ मित्रता बनाए रखने तथा किसी का भी विरोध न करने की अपनी पारंपरिक नीति को जारी रख सकते हैं। पश्चिम एशिया की बाहरी परिधि पर स्थित ईरान के भारत के साथ घनिष्ठ सभ्यात्मक संबंध हैं परंतु इसके अरबों, पश्चिम तथा अन्य शक्तिशाली देशों के साथ जटिल संबंध रहे हैं। इसके साथ भी हमारे देश द्वारा विशेष रूप से व्यवहार करने की आवश्यकता होगी।
मध्य एशिया पाचं देशों से मिलकर बना है अर्थात् कजाखस्तान, किर्गीस्तान, ताजीकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान तथा यह सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत के हितों के लिए एक नई विशेषता रखता है। जबकि रूस इस क्षेत्र में एक उल्लेखनीय भूमिका निभाने वाला देश बना हुआ है, इसकी अग्रगामी प्रवृत्ति चीन के राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव में व्यापक वृद्धि होने से संबंधित है। "मध्य एशिया से संपर्क" भारत की नीति की प्रतिक्रिया रही है जिसने अभी तक संतोषजनक लाभ प्राप्त किए हैं। विदेश मंत्रालय के कार्यालय साउथ ब्लॉक को इस क्षेत्र के साथ भारत की संयोजनता में विस्तार करने तथा चीन को आथ्रिक सहयोग में शामिल करने और रूस को मध्य एशिया में सुरक्षा सहयोग में संलिप्त करने पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता होगी।
म्यांमार से जापान और आस्ट्रेलिया तक फैला हुआ पूर्व एशिया प्राथमिकता वाला क्षेत्र बन गया है। हमारी लुक ईस्ट नीति (एलईपी) ने न केवल दक्षिण पूर्व एशिया राष्ट्र संघ (आसियान) के दस सदस्य राज्यों के साथ बल्कि अन्य देशों अर्थात् अमेरिका, चीन, जापान, आस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया के साथ भी राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा सहयोग को गहन बनाने की दिशा में मूल्यवान योगदान दिया है। इस नीति के बीस वर्ष बाद हम एलईपी 3.0 को क्रियान्वित कर रहे हैं, जो भारत का एक महत्वकांक्षी और प्रतिबद्ध प्रयास है जिसका उद्देश्य चीन के उदय तथा विशेष रूप से दक्षिण चीन सागर और पूर्व चीन सागर में उस प्रभाव में हुए उल्लेखनीय वृद्धि को ध्यान में रख्तो हुए भारत द्वारा एक संतुलनकर्ता की भूमिका का निर्वहन करना है। आने वाले वर्षों में इसकी राजनयिकता में, भारत को एक वास्तविक कार्यवाही वाले देश के रूप् में अपनी गणना कराने के लिए सृजनात्मक और दृढ़ तथा दृढ़ी और लचीला, दोनों ही बनना पड़ेगा।
अन्य क्षेत्र
हाल ही तक, विदेश नीति की चुनौतियों और प्राथमिकताओं पर अधिकांश समीक्षाएं एशिया पर आकर रुक जाती थीं, परंतु भारत के अद्यतन वैश्विक दृष्टिकोण में अब धीरे-धीरे अफ्रीका तथा लातिन अमेरिका के साथ संबंधों को सुदृढ़ बनाने की अपेक्षा भी शामिल हो गई है। हमारे देश ने अफ्रीका को उपनिवेशवाद से मुक्त कराने के लिए एक अग्रणी भूमिका का निर्वहन किया है। राजनीतिक और सांस्कृतिक सहयोग के पूर्व संबंध अब आर्थिक सहयोग, अवसंरचना, शिक्षा, क्षमता-निर्माण तथा वैश्विक मुद्दों पर समन्वय तक विस्तारित हो गए हैं। भारत द्वारा अनुदानों, ऋणों और लाइन ऑफ क्रेडिट के माध्यम से पर्याप्त वित्तीय निवेश किया गया है। विभिन्न संस्थाओं जैसे भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) और एक्सिम बैंक ने इस संबंध में रूपांतरणकारी भूमिका निभाई है। वर्ष 2008 और 2011 में आयोजित भारत-अफ्रीका शिखर-सम्मेलनों की कतिपय औचित्यपूर्ण आलोचना के बावजूद बेहतर रूप से उपयोग किया गया है। जबकि तीसरे शिखर-सम्मेलन जो दिसम्बर, 2014 में होना निर्धारित है, की तैयारियां की जा रही हैं, अब समय आ गया है कि हम बड़े परंतु व्यावहारिक विचारों के बारे में सोचें जिनका उद्देश्य चीन और पारंपरिक शक्तियों की तुलना में भारत की अफ्रीका में प्रतिस्पर्धा को संवृद्धि करना हो।
उच्च-स्तरीय राजनीतिक दौरों और दूरी को ध्यान में रखते हुए इंडिया इंक के क्रियाकलापों के माध्यम से लातिन अमेरिका धीरे-धीरे हमारे नीति-निर्माताओं के मस्तिष्क में अपना स्थान बना रहा है। जुलाई, 2014 में प्रधानमंत्री की ब्राजील यात्रा ने इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है। ब्रिक्स नेताओं तथा दक्षिण अमेरिका के ग्यारह नेताओं के साथ हुई अपनी संपर्क बैठक में उन्होंने टिप्पणी की: एक वैश्वीकृत और परस्पर जुड़े विश्व में हमारी नियतियां भी आपस में जुड़ी हैं।" प्रसिद्ध कवियों और लेखकों अर्थात् आक्टेवियो पाज, गैब्रियल गार्सिया आर्क्वेज, पाब्लो नेरूडा और रवीन्द्रनाथ टैगौर को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि भारत और दक्षिण अमेरिका एक 'गहरा संबंध' साझा करते हैं। उन्होंने अपने संवादियों को आश्वस्त किया कि भारत दक्षिण अमेरिका के साथ पहले की तुलना में अधिक घनिष्ठता के साथ कार्य करेगा। मेरे विचार से नई दिल्ली को आगामी 12-18 माह में प्रथम भारत-दक्षिण अमेरिका फोरम समिट के आयोजन की तैयारी करनी चाहिए। इस दौरान फेडरेशन ऑफ इंडियन चेम्बर्स ऑफ कामर्स एंड इंडस्ट्री (एमआईसीसीआई) और आईसीडब्ल्यूए अपना-अपना योगदान कर रहे हैं तथा घनिष्ठ भारत-लातिन अमेरिका संबंध स्थापित करने में आधारभूत कार्य कर रहे हैं जिससे इक्कीसवीं शताब्दी की अपेक्षाओं की पूर्ति हो रही है।
उच्च स्तर
भारत की वर्तमान स्थिति के बारे में अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञों के मध्य बहस छिड़ती है कि क्या यह क्षेत्रीय शक्ति है, अथवा एक महाशक्ति है अथवा संभावित महाशक्ति है? मेरा उत्तर है 'इनमें से कोई नहीं।' भारत आज एक परा-क्षेत्रीय शक्ति है और एक महत्वाकांक्षी महाशक्ति है। एक महाशक्ति बनने के अपने स्वप्न को साकार करने के लिए इसे व्यापक राष्ट्रीय पावर (सीएनए) के मापदण्डों पर अपनी स्थिति को पर्याप्तत: सुधारने की आवश्यकता होगी, विशेष रूप से अपनी आर्थिक शक्ति, अवसंरचना और पड़ोसियों के साथ संयोजनता, सैन्य क्षमता, अपने परमाणु हथियारों की प्रभावकारिता तथा साथ ही इसे एक वस्तुत: व्यावहारिक विदेश नीति तथा राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति भी अपनानी होगी।
फिर भी भारत आज विश्व के अग्रणी राष्ट्रों में से एक है। यह जी-20 का सदस्य है जो सकल विश्व उत्पाद के 85 प्रतिशत और विश्व व्यापार के 80 प्रतिशत भाग का योगदान करता है। यह ब्रिक्स का सदस्य है जो 'वैश्विक दक्षिण' में एक प्रभावशाली समूह के रूप में उभरा है। यह आसियान के इर्द-गिर्द केन्द्रित संस्थाओं की संरचना के साथ पर्याप्त रूप से एकीकृत है, तथा यह पूर्व एशिया समिट (ईएएस) का भी सदस्य है, तथा यह पूर्व एशिया के कार्यों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए पर्याप्त समर्थ भी है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में भारत की उम्मीदवारी ने पर्याप्त अंतर्राष्ट्रीय समर्थन हासिल किया है परंतु इसके तब तक सफल होने की उम्मीद नहीं है, जब तक पी-5 राष्ट्र अपनी ताकत बांटने के लिए अनिच्छुक रहते हैं और संयुक्त राष्ट्र सुधारों के प्रति वास्तविक इच्छा व्यक्त नहीं करते हैं।
द्विध्रुविता और एकध्रुविता की अवस्थाओं से यात्रा करने के उपरांत आज विश्व बहु-ध्रुवीय हो गया है तथा अनेकध्रुवीय अवस्था की और जाने की हमारी प्रवृत्ति बनी रहेगी। पश्चिम से पूरब की ओर अथवा शेष देशों को शक्ति का स्थानांतरण भू-राजनीतिक परिदृश्य के भाग का निर्माण करता है। इस संदर्भ में, भारत सभी शक्तिशाली देशों के साथ सहयोगी संबंधों का अनुरक्षण करने को अत्यधिक महत्व प्रदान करता है जैसे अमेरिका, चीन, रूस, यूरोपीय संघ (विशेष रूप से जर्मनी, फ्रांस और यूके) और जापान। उनके (और भारत के) मध्य एक साम्यापूर्ण तथा प्रभावी संतुलन स्थापित करना नई दिल्ली के लिए एक प्रमुख नीतिगत लक्ष्य होगा। जैसा पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने हाल में लिखा है : "मित्रों के साथ हमारे उल्लेखनीय मतभेद थे तथा विरोधियों के साथ हमारे हित के साझे क्षेत्र थे। इसका अर्थ यह है कि स्वच्छ विदेश नीति विकल्प उपलब्ध नहीं हैं। हमें हमारे लिए महत्वपूर्ण देशों के साथ संबंधों को सावधानीपूर्वक संतुलित करने की आवश्यकता है।"
समय के अभाव के कारण प्रमुख शक्तियों के साथ भारत के संबंधों के विवरणों में जाना हमारे लिए संभव नहीं होगा। यहां यह स्मरण करना पर्याप्त है कि पिछले दो महीनों में, अमेरिका, रूस, चीन, यू.के. और फ्रांस के उच्च स्तरीय अधिकारियों ने हमारी सरकार से वार्तालाप करने के लिए दिल्ली का दौरा किया है। हमारे प्रधानमंत्री ने ब्राजील में चीन और रूस के राष्ट्रपतियों के साथ भेंट की। श्री मोदी की अमेरिका और चीन के राष्ट्रपति तथा जापान के प्रधानमंत्री के साथ शिखर बैठक आने वाले सप्ताहों में निर्धारित है। इसके बाद वर्ष की समाप्ति से पूर्व जी-20 और ईएएस शिखर-सम्मेलनों में उनकी प्रतिभागिता होगी। अत: यह कहा जा सकता है कि शीर्ष-स्तरीय वार्ताओं की संपूर्ण श्रृंखला विश्व में शक्तियों के मध्य भारत की स्थिति को मजबूत और सुदृढ़ बनाने में सहायक होगी।
वर्तमान क्षण इतिहास का एक महत्वपूर्ण क्षण है जब भारत को उन सभी देशों के साथ बेहतर संबंधों की आवश्यकता है ताकि इसके सुरक्षा और विकास एजेंडा को प्रोत्साहित किया जा सके तथा स्पष्टत: उनमें से सभी भारत को लुभाने के लिए भी उत्सुक हैं। कुछ विशेषज्ञ भारत का एक "वैश्विक प्रगमन राज्य" के रूप में उल्लेख करते हैं। हम एक ऐसा राष्ट्र हैं जो तब तक हर देश का मित्र बने रहने के लिए सदैव इच्छुक है जब तक हमोर अनिवार्य राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित रखा जाता है तथा देश की 'रणनीतिक स्वायत्तता' की रक्षा होती है।
गैर-पारंपरिक विषय
अंतर्राष्ट्रीय संबंध उत्तरोत्तर रूप से गैर-पारंपरिक विषयों की एक संपूर्ण श्रृंखला को समाहित करते हैं जिनमें लोगों के जीवन को प्रभावित करने की क्षमता होती है। ये मुद्दे राष्ट्रीय स्तर पर उठाए जाते हैं। भविष्य में, जल के लिए लड़ाई होगी, यदि ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की गई तो बिजली का भारी अभाव होगा, विश्व की निरंतर बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए भोजन एक बड़ा मुद्दा बनेगा, अत: खाद्य सुरक्षा का निर्णायक महत्व है। ग्रह के पर्यावरण के लिए अपनी जटिल विवक्षाओं और संपोषणीय विकास पर पारिणामिक प्रभावों के साथ जलवायु परिवर्तन अंतर्राष्ट्रीय बहस का एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है।
ऐसी परिस्थितियों जहां राज्य एक-दूसरे के साथ संव्यवहार करते हैं, के लिए एक नियम-आधारित प्रणाली की विश्व के आवश्यकता राष्ट्रों के मध्य भावी आदान-प्रदानों और संबंधों को परिभाषित करने और उन्हें आकार प्रदान करने से संयोजित होगी तथा ये स्थितियां अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, व्यापार, परिवहन और संसाधन उपयोग के लिए महासागरों के प्रयोग, अन्य 'वैश्विक साझे' स्थान के प्रबंधन, साइबर सुरक्षा, इंटरनेट शासन और आतंकवाद एवं सीमापार से होने वाले अपराधों का सामना करने के लिए व्यापक रणनीति के अंगीकरण से संबंधित हैं। ऐसे मुद्दे भी हैं जो हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करते हैं क्योंकि हम आज एक वैश्वीकृत, परस्पर-जुड़े विश्व में रह रहे हैं। ये सभी भारत के लिए तथा भारत की विदेश नीति के लिए आने वाले दशक में तथा उसके बाद की दबावकारक चुनौतियां होंगी।
विचारों का पृथक्कीकरण
विदेश नीति की चुनौतियों का सामना करने की भारत की क्षमता सुदृढ़ होगी यदि हमारे राजनीतिक दल और नेता एक-दूसरे के साथ अधिक संगतता और एकता दर्शाते हैं तथा निजी हितों से ऊपर उठते हैं और राष्ट्रीय हित को संपोषित करते हैं, यदि सरकार स्मार्ट पावर का प्रयोग करने के लिए एक एकीकृत रणनीति का पालन करती है, और यदि नीति निर्माता हमारे गुंजायमान शैक्षणिक-रणनीतिक समुदाय से आने वाली सलाह के प्रति अधिक जागरूक बनते हैं।
इस सब से ऊपर, युवा भारतीयों जैसे यहां विद्यमान छात्र समूह है को ऐसे आधारभूत विचारों को आत्मसात करने की आवश्यकता है कि विदेश नीति के परिणाम बाहरी नहीं है, बल्कि हमारे अपने हितों से जुड़े हैं और हमारे स्वप्नों, आशाओं और चिंताओं से संबंधित हैं। अत: विदेश नीति के मुद्दों को समझने और अध्ययन करने का नियमित प्रयास तथा अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रमों के विषय में जागरूक रहना अब वैकल्पिक नहीं रह गया है। यह इक्कीसवीं शताब्दी को ध्यान में रखते हुए अनिवार्य हो गया है जिसमें हम रहते हैं, पढ़ते हैं और कार्य करते हैं।